Edited By Yaspal,Updated: 12 Nov, 2018 03:07 AM
केन्द्र सरकार द्वारा 9 नवम्बर को रूस की राजधानी मॉस्को के एक होटल में तालिबानी नेताओं के साथ आयोजित वार्ता में हिस्सा...
एडोटोरियल डेस्कः केन्द्र सरकार द्वारा 9 नवम्बर को रूस की राजधानी मॉस्को के एक होटल में तालिबानी नेताओं के साथ आयोजित वार्ता में हिस्सा लेने की खबर हर किसी को हैरान करने वाली थी। हो भी क्यों न, भारत ने 1996 से 2001 के दौरान अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को न तो कभी मान्यता दी और न ही आज से पहले तक तालिबान के साथ किसी भी प्रकार की वार्ता का समर्थन किया।
क्या है सरकार की मंशा
ऐसे में इस बैठक पर सवाल उठना स्वाभाविक है। विरोधी दलों ने अफगानिस्तान को लेकर सरकार की विदेश नीति में इस तरह के ‘यू-टर्न’ पर सवाल उठाए हैं, जबकि यह वार्ता अफगानिस्तान की वर्तमान अशरफ गनी सरकार के नेतृत्व में आयोजित नहीं हो रही थी। चारों ओर से सरकार की आलोचना होने पर विदेश मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया है कि 12 देशों की ‘मास्को फॉर्मैट मीटिंग ऑफ कंसल्टेशन्स ऑन अफगानिस्तान’ में हिस्सा लेने वाले भारतीय प्रतिनिधियों ने तालिबान के साथ सीधी वार्ता नहीं की है और भारत इस वार्ता में केवल नॉन-ऑफिशियल स्तर पर हिस्सा ले रहा है।
सरकार पर उठाए सवाल
सरकार के ‘नॉन-ऑफिशियल’ प्रतिनिधिमंडल भेजने के इस स्पष्टीकरण पर सवाल उठाते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पूछा है कि यदि ऐसी बैठक तालिबान के साथ स्वीकार की जा सकती है तो जम्मू-कश्मीर से जुड़े सभी पक्षों के साथ सरकार ‘नॉन-ऑफिशियल’ वार्ता क्यों नहीं कर सकती है? पहले यही बैठक 4 सितम्बर को होनी थी परंतु अफगानिस्तान सरकार द्वारा इससे खुद को अलग कर लेने पर इसे टालना पड़ा था। तब भारत ने भी इसमें हिस्सा लेने के आमंत्रण को ठुकरा दिया था।
गौरतलब है कि अफगास्तिान पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए वैश्विक शक्तियों के बीच दशकों तक लगी रही होड़ को इतिहासकार ‘ग्रेट गेम’ के नाम से जानते हैं। इसी के अंतर्गत एक दशक तक वहां लड़ाई लडऩे के बाद लज्जित होकर अपनी सेना हटाने को मजबूर होने के 30 साल बाद रूस ने इस महत्वपूर्ण बैठक को आयोजित किया है। रूस के पीछे हटने के बाद अमेरिका सहित अन्य पश्चिमी देश भी अफगानिस्तान में 4 दशक से जारी खूनी संघर्ष पर काबू पाने में नाकाम रहे हैं।
कितने देशों ने की शिरकत
ऐसे में विश्व पटल पर अपना प्रभाव फिर से कायम करने को प्रयासरत रूस द्वारा अफगान संघर्ष के दोनों पक्षों को एक मंच पर लाना एक बड़ी उपलब्धि अवश्य कही जा सकती है। यह वार्ता सालों से मॉस्को तथा तालिबान के बीच बंद दरवाजों में जारी कूटनीतिज्ञ प्रयासों का फल है। हाल के सालों में तालिबान ने अमेरिका, तुर्की, सऊदी अरब तथा ईरान सहित अनेक देशों के साथ वार्ता की है परंतु वे हमेशा गोपनीय रहीं। यह बैठक अमेरिका की ओर से अफगानिस्तान में जारी खूनी संघर्ष का शांतिपूर्ण हल तलाश करने के काम पर लगाए विशेष अमेरिकी दूत जालमे खालीलजाद के साथ तालिबान की वार्ता के एक महीने बाद हुई है जिसमें चीन, ईरान तथा पाकिस्तान सहित 11 देशों ने हिस्सा लिया।
भारत की क्या है भूमिका
युद्धग्रस्त अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में सालों से सक्रिय भूमिका निभा रहे तथा अब तक विभिन्न परियोजनाओं पर 2 बिलियन डॉलर खर्च कर चुके भारत के इस बैठक में हिस्सा लेने से कई सवाल उठे हैं। क्या अंतत: हमने तालिबान को मान्यता दे दी है और जब हम आतंकवाद जारी रहने तक पाकिस्तान के साथ कश्मीर पर वार्ता से इंकार करते रहे हैं तो तालिबान के साथ वार्ता में हिस्सा लेकर आखिर हम क्या हासिल करना चाहते हैं?
सरकार की नीयत पर हुए सवाल खड़े
हालांकि भारत अफगानिस्तान जैसी स्थिति में कतई नहीं है लेकिन एक नीति के लिहाज से जिस प्रकार अफगानिस्तान की सरकार की गैर मौजूदगी में उसके आतंकवादी संगठनों से विश्व भर के देश न केवल विचार-विमर्श कर रहे हैं, बल्कि समझौता भी करने की कोशिश कर रहे हैं, क्या भविष्य में कश्मीर या अरुणाचल प्रदेश के मामले को भारत संयुक्त राष्ट्र में जाने देगा? वर्षों से पाकिस्तान कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य देश की मध्यस्थता चाहता है परंतु भारत की नीति द्विपक्षीय समझौते पर ही रही है तो क्या इस मामले में किसी अन्य देश में हस्तक्षेप करके हम अपनी नीति पर कायम रह पाएंगे?
भविष्य में यदि पाकिस्तान 11 देशों की शिखर वार्ता आयोजित करे, जिसमें कश्मीर के आतंकवादी संगठनों को बुलाया जाए और उनसे समझौता या विचार-विमर्श करने की कोशिश की जाए तो क्या यह भारत को स्वीकार्य होगा? – विजय कुमार