धर्म नहीं, ‘जरूरत’ मायने रखती है

Edited By ,Updated: 24 Jan, 2020 03:27 AM

need matters not religion

कोलकाता  के बड़ा बाजार में एक कारोबारी कई बच्चों को अपना मानता है, जिनमें से कई हिन्दू तो कई मुसलमान हैं। उनका धर्म मायने नहीं रखता। निर्मल जालान के लिए किसी भी समुदाय के बच्चे हों वह उनको अपना मानते हैं और वह उनके धर्म को नहीं, उनकी जरूरत को महत्व...

कोलकाता के बड़ा बाजार में एक कारोबारी कई बच्चों को अपना मानता है, जिनमें से कई हिन्दू तो कई मुसलमान हैं। उनका धर्म मायने नहीं रखता। निर्मल जालान के लिए किसी भी समुदाय के बच्चे हों वह उनको अपना मानते हैं और वह उनके धर्म को नहीं, उनकी जरूरत को महत्व देते हैं। 60 वर्षीय जालान ने अपने कालेज को पहले वर्ष ही छोड़ दिया था ताकि वह कुछ कमाई कर सकें। उन्होंने अभी तक 50 बच्चों की वित्तीय सहायता की है। 

जालान का कहना है कि बच्चों को उनके धर्म से उन्होंने कभी नहीं पहचाना। धर्म की तभी अहमियत होती है जब किसी की जरूरत पूरी की जाए। वह उनकी मदद इसलिए करते हैं क्योंकि उनको इसकी जरूरत होती है। ऐसा वह पिछले 14 वर्षों से कर रहे हैं। जिनकी उन्होंने मदद की उनमें से कुछेक बच्चे 2006 में विदेश चले गए थे। कुछ बच्चे मल्टीनैशनल कम्पनियों में कार्यरत हैं और कुछ अभी भी जालान की मदद से पढ़ रहे हैं। जालान के बच्चों में से एक 30 वर्षीय रिसर्च स्कालर है जोकि अब चैक गणराज्य में रह रहा है। उसने इंजीनियरिंग कर रखी है। 16 वर्षीय एक अन्य बच्चा 11वीं कक्षा का विद्यार्थी है। जालान इन सभी बच्चों की बात बड़े गर्व से करते हैं। 26 वर्षीय सांपा मैती अब लैब असिस्टैंट है। जालान ने ही उसकी पढ़ाई का खर्च उठाया था। सांपा का कहना है कि उसके पिता एक रिक्शा चालक तथा माता एक गृहिणी है। सर जालान की मदद से ही उसने शिक्षा पूरी की। 

बच्चों के घर जाकर उनसे मिलना भी उनकी प्राथमिकता
जालान के लिए पैसे की मदद ही सब कुछ नहीं, इसके साथ-साथ बच्चों से निरंतर उनके घर में जाकर मिलना भी उनकी प्राथमिकता है। मुलाकात के साथ-साथ वह बच्चों संग भोजन भी करते हैं। पिछले वर्ष ईद के दौरान जालान ने अपनी पत्नी तथा बेटी के साथ आइशा फरहीन के घर की यात्रा की। आइशा ने 94.2 प्रतिशत अंक हासिल किए। वहीं मोहम्मद फैजान ने आई.सी.एस.ई. में 92.2 प्रतिशत अंक हासिल किए। जालान की मदद से पहले आइशा का परिवार पूर्णतया अपनी बड़ी बहन पर निर्भर था जो प्राइवेट ट्यूशन करती है। उधर फैजान के परिवार की कुल आय 5000 रुपए प्रति माह से भी कम है। 

जब जालान तथा उनका परिवार फैजान के घर गया तब उसके पिता मोहम्मद अरशद रोने लग पड़े। उन्होंने जालान को कहा कि गरीब होने के नाते उनके घर पर कोई नहीं आता। जालान के घर आने से ईद का त्यौहार मुकम्मल हो गया। जालान का कहना है कि वह ऐसे मौकों पर इसलिए बच्चों के घर जाते हैं ताकि उनको यह महसूस हो कि उनके और बच्चों के बीच धर्म मायने नहीं रखता। जालान का कहना है कि उनके तथा मुस्लिम बच्चों के परिधान में फर्क तो है मगर असल बात तो यह है कि हम सब मानव जाति से संबंध रखते हैं और यदि हमारे मन में मानवता मौजूद है तो कुछ भी मायने नहीं रखता। वह फैजान तथा उसकी छोटी बहन फराह नाज को एक रेस्तरां में ले गए जहां पर उन्होंने बच्चों के साथ उसी तरह व्यवहार किया जैसे उनका उनसे खून का रिश्ता हो। वह नहीं चाहते कि बच्चों को यह लगे कि मैं उनसे अधिक बेहतर हूं। जब मैं उनके साथ जमीन पर बैठ कर खाता हूं तब कोई फर्क नहीं रह जाता। 

जालान मानते हैं कि शिक्षा का निचला स्तर परिवार में एक भेद उत्पन्न कर देता है। उन्होंने भी पढ़ाई शुरू की थी मगर गरीबी के चलते उसे बीच में ही छोडऩा पड़ा। शिक्षा ही बच्चों के भाग्य को बदलेगी जिससे उनका तथा उनके परिवार का भला होगा। वह बच्चों को गरीबी में नहीं जीने देना चाहते। ऐसे भले कार्यों की शुरूआत उन्होंने 2006 में की थी जब उन्होंने एक जगह पढ़ा था कि 12वीं कक्षा का एक छात्र जिसने 85.2 प्रतिशत अंक हासिल किए थे और जिसका पिता एक मिल में 3000 रुपए मासिक वेतन पर कार्य करता था मगर इतनी कम आय के चलते वह बच्चे को आगे पढ़ाने में असमर्थ था। जालान ने ही उसकी दाखिला तथा ट्यूशन फीस भरी। उस बच्चे को एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में इन्फार्मेशन टैक्रोलॉजी में दाखिला दिलवाया। अब यह छात्र कल्याणी यूनिवर्सिटी से एम.टैक. कर चुका है और पी.एचडी. करने के बाद पोलैंड चला गया है। 

जालान यह जानते हैं कि सभी छात्रों को वह उनके नाम से जानते हैं और समय पडऩे पर उनसे मुलाकात भी करते हैं। वह बच्चों के करियर गोल्स के बारे में भी बात करते हैं। वह बच्चों से एक वायदा लेते हैं कि जब वे कमाने लायक हो जाएं तब वह भी उनकी तरह आगे किसी की मदद करें। वह नहीं जानते कि बच्चे कहां तक उनका कहना मानेंगे मगर वह इस कोशिश में हैं कि उनकी तरह जारी कार्य को बच्चे भी आगे बढ़ाएं। 

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