उत्तर-पूर्व के चुनाव परिणामों से ‘अब तो विपक्ष सबक सीखे’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 06 Mar, 2018 12:12 AM

now the opposition lessons learned from the pre election elections

उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनाव परिणामों में भाजपा को त्रिपुरा में सबसे ज्यादा फायदा हुआ। उसने ‘इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा’ से गठबंधन करके 60 में से 43 सीटें जीत कर इतिहास रचा और माकपा को 16 सीटों पर सीमित...

उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनाव परिणामों में भाजपा को त्रिपुरा में सबसे ज्यादा फायदा हुआ। उसने ‘इंडीजीनियस पीपुल्स फ्रंट आफ त्रिपुरा’ से गठबंधन करके 60 में से 43 सीटें जीत कर इतिहास रचा और माकपा को 16 सीटों पर सीमित करके उसका 25 साल पुराना लाल किला ढहा दिया जिसकी वामदलों ने कल्पना तक नहीं की थी।

2016 में बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वामदलों से 34 वर्ष  पुरानी सत्ता छीन ली और अब त्रिपुरा में वामदलों की पराजय के बाद देश में केवल केरल ही एकमात्र वामपंथी दलों द्वारा शासित राज्य बचा है।

हमने अपने 4 मार्च के संपादकीय ‘हिमाचल प्रदेश में एक दिन’ में लिखा भी है कि ‘‘बदल-बदल कर सरकारें आने के परिणामस्वरूप यहां काफी विकास हुआ है। प्रदेश ने लगभग शत-प्रतिशत साक्षरता दर प्राप्त कर ली है और केरल के बाद यह उपलब्धि प्राप्त करने वाला देश में दूसरा राज्य बन गया है।’’

इसके साथ ही हमने सदा यह भी कहा है कि कांग्रेस, कम्युनिस्टों एवं अन्य विरोधी दलों का कमजोर होना देश के हित में नहीं है और देश को एक सशक्त विपक्ष देने के लिए इकट्ठे होकर इन्हें एक फ्रंट बनाना चाहिए।

यही बात कम्युनिस्ट पाॢटयों पर भी लागू होती है। इनमें फूट का उदाहरण कोलकाता में माकपा की सैंट्रल कमेटी की बैठक में मिला जब 2019 के चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन के प्रश्र पर महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के मतभेद खुल कर सामने आ गए। जहां येचुरी धड़ा भाजपा को टक्कर देने के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने के पक्ष में है वहीं कारत धड़ा इसके विरुद्ध है।

मेघालय में कांग्रेस 21 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी और सरकार बनाने की दावेदार भी वही थी लेकिन महज 2 सीटें जीतने वाली भाजपा ने कांग्रेस को सरकार बनाने से रोक दिया और एन.पी.पी., यू.टी.पी. व अन्य पाॢटयों के सहयोग से बहुमत लायक सदस्यों का आंकड़ा जुटा लिया।

भाजपा नेतृत्व ने अपना चुनाव प्रबंधन गोवा में भी दिखाया था जब पार्टी ने 13 सीटें जीतने के बावजूद 40 सीटों वाली गोवा विधानसभा में बहुमत के लायक विधायक हासिल कर लिए तथा कांग्रेस 17 सीटें जीतने के बावजूद बहुमत के लिए जरूरी 4 सदस्यों का प्रबंध न कर पाई।

आज हर पार्टी अकेली चलना चाहती है और उसका परिणाम सबके सामने है। विभिन्न दलों की एकता में इनके नेताओं का अहं सबसे बड़ी बाधा है। जब तक वे अहं नहीं त्यागेंगे मार पड़ती रहेगी। ममता बनर्जी ने भी कहा है कि कांग्रेस यदि त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस और  स्थानीय आदिवासी पार्टियों से गठजोड़ कर लेती तो त्रिपुरा में नतीजे ऐसे न होते।

अब तेलंगाना के मुख्यमंत्री तथा तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव ने देश में बदलाव के लिए समान विचारधारा वाले गैर कांग्रेस और गैर भाजपा दलों का एक मंच बनाने की आवश्यकता जताई है और कहा है कि एक तीसरे मोर्चे का बनना जरूरी हो गया है।

ममता बनर्जी ने भी इसका समर्थन किया है तथा इसके द्वारा शिवसेना, आप, बीजेडी तथा तेदेपा से संपर्क साधने की चर्चा है। उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में आपस में गठबंधन किए बिना सपा व बसपा साथ आ गए हैं।

त्रिपुरा में हार के बाद माकपा में कांग्रेस से तालमेल बिठाने की मांग उठने लगी है। कांग्रेस का एक वर्ग भी मान रहा है कि धर्मनिरपेक्ष दलों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आपस में चुनावी तालमेल करना होगा। वरिष्ठ कांग्रेस नेता एम. वीरप्पा मोइली ने भी कहा है कि ‘‘जब हम भाजपा जैसी साम्प्रदायिक ताकत का सामना कर रहे हैं तो गैर साम्प्रदायिक लोग और धर्म निरपेक्ष दल अलग-अलग रह कर काम नहीं कर सकते।’’

इसी प्रकार कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता जयराम रमेश का कहना है कि ‘‘भारत में लैफ्ट को मजबूत होना होगा। इसकी पराजय देश के लिए विनाशकारी है। भारत इसे सहन नहीं कर सकेगा।’’

यदि उक्त राज्यों में चुनाव लड़ रहे कांग्रेस, कम्युनिस्ट तथा अन्य विपक्षी दल एक मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ते तो परिणाम भिन्न होते। आज जबकि देश के विभिन्न दल आंतरिक कलह और फूट का शिकार हो रहे हैं यदि आपसी मतभेद भुला कर अपने सांझे मोर्चे बना लें तो न सिर्फ यह उनके लिए बल्कि देश के लिए भी अच्छा होगा।     —विजय कुमार

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