हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में ‘आया राम-गया राम’-न इधर के रहे न उधर के रहे

Edited By ,Updated: 26 Oct, 2019 12:13 AM

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चढ़ते सूरज को सलाम करने के पुराने दस्तूर के अनुसार हमारे नेताओं में पिछले कुछ समय से अपनी मूल पाॢटयों को छोड़ कर सत्ता के लालच में दूसरी पाॢटयों में जाने का रुझान बढ़ गया है। इसी के अनुरूप हरियाणा और महाराष्टï्र में अभी चुनावों से पहले बड़ी संख्या...

चढ़ते सूरज को सलाम करने के पुराने दस्तूर के अनुसार हमारे नेताओं में पिछले कुछ समय से अपनी मूल पाॢटयों को छोड़ कर सत्ता के लालच में दूसरी पाॢटयों में जाने का रुझान बढ़ गया है। 

इसी के अनुरूप हरियाणा और महाराष्ट्र में अभी चुनावों से पहले बड़ी संख्या में विभिन्न नेताओं ने पाला बदलने का खेल खेला परंतु इन चुनावों के परिणामों ने सिद्ध कर दिया है कि आज देश के मतदाता जागरूक हो चुके हैं और मात्र स्वार्थ पूर्ति के लिए अपनी मूल पार्टी को छोड़ कर दूसरी पार्टी का दामन थामने वाले दलबदलुओं को वह स्वीकार नहीं करते। इसी कारण हरियाणा विधानसभा के चुनावों से ठीक पहले अपनी मूल पार्टियों को छोड़ कर भाजपा, कांग्रेस और जजपा में शामिल होकर चुनाव लडऩे वाले एक दर्जन से अधिक जाने-माने नेता हार गए। 

भाजपा में अन्य राजनीतिक दलों से पार्टी में शामिल होकर टिकट प्राप्त करने में सफल हुए अनेक उम्मीदवार हार गए। इनैलो के 10 तथा शिअद के एक विधायक ने चुनावों से ठीक पहले भाजपा का दामन थामा था। हारने वाले उम्मीदवारों में इनैलो से भाजपा में आए विधायक रामचंद्र कम्बोज (रानियां), सतीश नांदल (गढ़ी सांपला किलोई), परमिंद्र ढुल (जुलाना), जाकिर हुसैन (नूह), नागेंद्र भडाना (फरीदाबाद), नसीम अहमद (फिरोजपुर झिरका), राजबीर बराड़ा (मुलाना), शिअद से भाजपा में आए बलकौर सिंह (कालांवाली), इनैलो से कांग्रेस में आए पूर्व मंत्री अशोक अरोड़ा (थानेसर), जसबीर मलौर (अम्बाला), बसपा से कांग्रेस में आए अकरम खान (जगाधरी), निर्दलीय से कांग्रेसी बने जय प्रकाश (कलायत), कांग्रेस छोड़ जजपा में आए पूर्व मंत्री सतपाल सांगवान (दादरी), कांग्रेस से भाजपा में आए बचन सिंह आर्य (सफीदों) आदि शामिल हैं। 

महाराष्ट्र में भी समूचे देश में कुछ ही समय पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में मोदी लहर को देखते हुए कांग्रेस और राकांपा के लगभग 35 सदस्य सत्तारूढ़ भाजपा या शिवसेना में शामिल हो गए थे जिनमें से 19 दलबदलुओं की हार होने के कारण उनका राजनीतिक करियर दाव पर लग गया है। पराजित दलबदलुओं में चुनावों से ठीक पहले राकांपा छोड़ कर शिवसेना के टिकट पर बीड़ से चुनाव लडऩे वाले कैबिनेट मंत्री जयदत्त क्षीरसागर, राकांपा से भाजपा में शामिल हुए पूर्व मंत्री मधुकर पिछड़ के बेटे वैभव पिछड़ (आकोले), कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल होने वाले पूर्व कैबिनेट मंत्री हर्षवर्धन पाटिल इंदापुर से तथा ‘वंचित बहुजन आघाड़ी’ से भाजपा में आए गोपीचंद पडलकर भी शामिल हैं जो बारामती में जमानत जब्त करवा बैठे हैं। 

चुनावों से ठीक पहले राकांपा छोड़कर पूर्व विधायक पांडुरंग बरोड़ा तथा कांग्रेस छोड़ कर पूर्व विधायक निर्मला गावित ने शिवसेना का दामन थाम लिया था परंतु इन दोनों को ही क्रमश: शाहपुर तथा इगतपुरी में मुंह की खानी पड़ी। कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होने वाले विधायक गोपाल दास अग्रवाल अपनी गोंदिया सीट बचाने में विफल रहे। सबसे रोचक मामला तो पिछली बार कांग्रेस के टिकट पर गुजरात के राधनपुर से चुनाव जीतने वाले ओ.बी.सी. नेता अल्पेश ठाकोर का रहा। उन्होंने इस बार कांग्रेस छोड़ कर भाजपा के टिकट पर राधनपुर से चुनाव लड़ा और हार गए। महाराष्ट्र में सतारा लोकसभा सीट पर राकांपा को अलविदा कह कर भाजपा में शामिल हुए शिवाजी महाराज के वंशज उदयन राजे को भी हार का मुंह देखना पड़ा। अल्पेश ठाकोर और उदयन राजे में एक समानता है कि दोनों को ही उनकी पुरानी पार्टी के उम्मीदवारों ने हराया। 

स्पष्ट है कि मूल पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में जाने वालों को न ही मतदाता तथा न ही दूसरे दल के कार्यकत्र्ता आदि उन्हें दिल से स्वीकार कर पाते हैं और उनका हश्र ‘न इधर के रहे, न उधर के रहे’ वाला ही होता है। इसलिए व्यक्ति ने जिस पार्टी में रह कर अपना स्थान बनाया है उसे उस पार्टी को छोडऩे की बजाय उसी में रह कर संघर्ष करना चाहिए ताकि मतदाताओं में उसका विश्वास और प्रतिष्ठा बनी रहे वर्ना ज्यादातर मामलों में दलबदलुओं का हाल बकौल शायर कुछ ऐसा ही होता है :‘बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।’—विजय कुमार 

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