भारत के पुरुष प्रधान कार्पोरेट जगत में ‘कम होता महिलाओं का दर्जा’

Edited By ,Updated: 08 Feb, 2021 03:03 AM

reducing the status of women  in india s male dominated corporate world

पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता हमेशा से ही दुनिया भर में बहस का विषय रही है। हम भले ही आम बातचीत में महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता की बात करते हैं परंतु जब बात कार्यक्षेत्र की आती है तो महिलाओं से भेदभाव साफ नजर आता है। महिलाओं

पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता हमेशा से ही दुनिया भर में बहस का विषय रही है। हम भले ही आम बातचीत में महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता की बात करते हैं परंतु जब बात कार्यक्षेत्र की आती है तो महिलाओं से भेदभाव साफ नजर आता है। महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को लेकर एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 24 देशों में अभी भी महिलाओं को रात की शिफ्ट में काम करने की स्वतंत्रता नहीं है। जहां तक भारत के कार्पोरेट जगत का सम्बन्ध है इसमें अभी भी शीर्ष पदों पर पुरुष ही हावी हैं। हालत यह है कि 250 कम्पनियों के सी.ई.ओ. में से केवल 6 ही महिलाएं हैं और इनमें से भी 3 महिला सी.ई.ओ. या तो उस कम्पनी की संस्थापक और या फिर उस कम्पनी को प्रमोट करने वाले परिवारों से सम्बन्ध रखती हैं। 

‘ई.एम.ए. पार्टनर्स इंडिया’ द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2016 में कार्पोरेट जगत में महिला सी.ई.ओ./मैनेजिंग डायरैक्टरों की भागीदारी 4.1 प्रतिशत थी (245 कम्पनियों में 10 महिला सी.ई.ओ. थीं तथा वर्ष 2020 में उनकी संख्या घट कर मात्र 2.4 प्रतिशत अर्थात 6 रह गई। हालांकि बैंकिंग, फाइनैंशियल सर्विसिज़ और इंश्योरैंस (बी.एफ.एस.आई.) में महिलाओं की स्थिति मजबूत रही और इस सैक्टर में तीन महिला सी.ई.ओ. थीं जो अपनी पोजीशन पर कायम हैं। 

पिछले पांच वर्ष में ऐसा भी पहली बार हुआ है जब प्रोफैशनल और प्रोमोटर सी.ई.ओ. की संख्या एक समान हो गई है। ‘ई.एम.ए. पार्टनर्स इण्डिया’ की रीत भंभानी का मानना है कि, ‘‘कार्पोरेट जगत में उच्च पदों पर महिलाओं की स्थिति पिछले 10-15 वर्षों से चर्चा के केंद्र्र में है परन्तु दुर्भाग्यवश आंकड़े फिर भी इसके विरुद्ध ही बोलते हैं और अभी भी कम्पनियों में शीर्ष पदों पर लैंगिक सन्तुलन कायम करने के मामले में हमें बहुत लम्बा सफर तय करना है।’’ ‘‘हमने देश की कंपनियों में सी.ई.ओ. बनने की क्षमता रखने वाली महिलाओं को लेकर सर्वे किया है लेकिन उद्योग एवं व्यवसाय जगत के अधिकांश क्षेत्रों में स्थिति उत्साहजनक नहीं है।’’ 

देश में उद्योग एवं निर्माण के क्षेत्र में काम करने वाली कम्पनियों की शीर्ष उद्योग जगत में बड़ी हिस्सेदारी है परंतु इन कंपनियों में सी.ई.ओ. बनने में सक्षम महिलाओं की अधिक कमी पाई जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस मुद्दे का तुरंत कोई समाधान नहीं मिल सकता, अत: स्थिति में सुधार और लंबी अवधि के लिए परिणाम प्राप्त करने के लिए जमीनी स्तर पर अभी से प्रयास करना जरूरी है। 

ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज़ की पूर्व प्रबंध निदेशक विनीता बाली का मानना है कि, ‘‘संस्थाएं एक प्रकार से समाज का ही दर्पण हैं अत: इनमें सी.ई.ओ. के रूप में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व केवल कंपनियों की ही समस्या नहीं है बल्कि कहीं न कहीं यह समाज में लैंगिक असमानता की  स्थिति को भी दर्शाता है।’’ ‘‘कार्यस्थलों पर महिलाओं की कम संख्या इस बात का प्रमाण है कि उन्हें घर और कार्यालय में पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं होता। घर में माता-पिता, जीवन साथी और कार्य स्थल पर सह कर्मियों को यह समझना होगा कि महिलाएं भी कार्य स्थलों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।’’

विनीता बाली इस सम्बन्ध में परामर्श देते हुए कहती हैं, ‘‘कम्पनियों के निदेशक मंडलों को भी इस तरह से काम करना चाहिए जिसमेें महिलाओं को समान अवसर प्राप्त हों और कार्य स्थल पर उनके साथ भेदभाव न हो।’’’ एक अन्य संस्था ‘विमन ऑन कार्पोरेट बॉडर््स इन इण्डिया’ के संस्थापक अरुण दुग्गल के अनुसार कंपनियों में महिला चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर्स और सी.एक्स.ओ. बहुत कम हैं अत: निकट भविष्य में महिला सी.ई.ओ. की संख्या में वृद्धि की कोई संभावना नहीं है। 

इस हालत में यदि कम्पनियों को महिला सी.ई.ओ. की संख्या में वृद्धि करनी है तो सबसे पहले सी.एक्स.ओ. के पदों को भरने के लिए कार्यक्रम चलाना जरूरी है और इसके साथ ही संभावित सी.ई.ओ. के रूप में महिलाओं के विकास का सावधिक पुनरीक्षण करते रहने की भी जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 में भारत में महिला कर्मचारियों की संख्या 24.8 प्रतिशत रह गई है जो 2006 में 34 प्रतिशत थी। कोरोना काल के दौरान 64.7 मिलियन लोग जो श्रम बल से बाहर हो गए उनमें 22.6 प्रतिशत महिलाएं ही थीं। ऐसा लगता है कि जिन महिलाओं ने कोरोना के दौरान अपना रोजगार खो दिया था उनके अपने कार्य स्थलों पर लौटने की संभावना बेहद कम है। 

इसका मतलब स्पष्ट है कि देश में महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ तो उठाई जाती है और महिलाओं के वोट हासिल करने के लिए उनके आरक्षण की बात भी होती है लेकिन धरातल पर महिला सशक्तिकरण और उन्हें आर्थिक  रूप से सशक्त करने के लिए कोई सार्थक पहल नजर नहीं आती। हमें उनके कार्यस्थल को भी बेहतर बनाना होगा ताकि वह पुरुषों के समान मजबूती से कार्य कर सकें। जब तक सामाजिक रूप से हम खुद को इसके लिए तैयार नहीं करते तब तक यह स्थिति सुधरने की संभावना भी कम है।

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