महाराष्ट्र के लोगों पर हमले ‘शिव सेना की चिंता उचित’ लेकिन...

Edited By ,Updated: 08 Nov, 2016 01:28 AM

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स्वतंत्रता के 70 वर्ष और राज्यों के पुनर्गठन के बाद भी देश में अभी तक विभिन्न राज्यों के बीच सीमा ...

स्वतंत्रता के 70 वर्ष और राज्यों के पुनर्गठन के बाद भी देश में अभी तक विभिन्न राज्यों के बीच सीमा विवाद चल रहे हैं। इनमें दशकों से चला आ रहा महाराष्ट्र और कर्नाटक का सीमा विवाद अपने आप में अनूठा है। 

मराठी बहुल ‘बेलगांव’ के अलावा ‘कारावार’ और ‘निपानी’ को महाराष्ट्र में शामिल करने की लंबे अर्से से मांग हो रही है जिसके लिए महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका भी लगा रखी है।   

दोनों राज्यों में कटुता इतनी बढ़ी हुई है कि कर्नाटक में मराठी फिल्मों के प्रदर्शन पर भी अघोषित प्रतिबंध लगा हुआ है। कन्नड़ लोगों के भय से सिनेमाघर मालिक मराठी फिल्में प्रदर्शित करने का जोखिम नहीं लेना चाहते।  

यह विवाद 1 नवम्बर को कन्नड़ राज्य दिवस के अवसर पर पुन: गंभीर रूप धारण कर गया जब ‘बेलगांव’ में महाराष्ट्र एकीकरण समिति (एम.ई.एस.) के सदस्यों द्वारा काला दिवस मनाए जाने के मौके पर कर्नाटक पुलिस ने उन्हें पीटा और अनेक महाराष्टियनों युवकों को गिरफ्तार किया गया।

इसी संबंध में 6 नवम्बर को शिवसेना नेता नीलम गोरहे ने कर्नाटक के ‘बेलगांव’ और अन्य सीमावर्ती इलाकों में मराठी भाषी लोगों पर कन्नड़ों के अत्याचारों  पर दुख व्यक्त करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह से उनकी ‘सुरक्षा’ के लिए हस्तक्षेप की मांग की।

शिवसेना के अनुसार, ‘‘बेलगांव से मराठों का नामोनिशां मिटाने के लिए कन्नड़ लोग दंगे फैला रहे हैं। इसी कारण कर्नाटक राज्य दिवस पर बेलगांव के येलूर गांव में वेश बदल कर आई कन्नड़ पुलिस ने महाराष्टियनों के मकान गिरा दिए, जबरदस्ती घरों में घुस कर महिलाओं को पीटा, पुरुषों के सिर फोड़ दिए और महाराष्ट्र के नाम से बने एक चबूतरे को भी तोड़ दिया।’’ 

कर्नाटक में महाराष्टियनों पर हमलों की तरह ही महाराष्ट्र में भी उत्तर भारतीयों पर हमले हो रहे हैं। इसकी शुरूआत अक्तूबर 2008 में हुई थी जब शिव सेना तथा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के आह्वान पर मुम्बई में रेलवे परीक्षा देने आए उत्तर भारतीय छात्रों को बुरी तरह पीटा गया। 

तब से महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों पर जानलेवा हमलों, हत्या व पिटाई आदि की घटनाएं होती रहती हैं। यहां तक कि बिहार से आए चंद पत्रकार भी ‘मनसे’ कार्यकत्र्ताओं के कोप से नहीं बचे।

इसी वर्ष मार्च में ‘मनसे’ के अध्यक्ष राज ठाकरे ने ‘बाहरी लोगों’ (उत्तर भारतीयों) को होली में पानी इस्तेमाल करने पर पीटने तथा गैर-मराठों को आटो परमिट न देने तक के फरमान भी जारी किए।

8 सितम्बर को ही मनसे वालों ने ‘मराठा किसानी’ हक के नाम पर एक उत्तर भारतीय फल वाले को बुरी तरह पीटा और यह कहते हुए उसकी रेहड़ी तहस-नहस कर दी कि ‘‘हम किसी उत्तर भारतीय को फलों की रेहड़ी नहीं लगाने देंगे क्योंकि यह अधिकार केवल मराठी किसान का है।’’

नि:संदेह कर्नाटक के मराठी भाषी लोगों के प्रति शिव सेना के नेताओं की ङ्क्षचता पूर्णत: उचित है परंतु वैसी ही चिंता उन्हें लगभग एक दशक से महाराष्ट्र के चंद राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही घृणा की राजनीति के शिकार हो रहे महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों की भी होनी चाहिए। 

उल्लेखनीय है कि पंजाब से आकर जमींदार और व्यवसायी उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं तथा दूसरी ओर उत्तर प्रदेश एवं बिहार के लोग पंजाब व अन्य राज्यों में जाकर वहां उद्योग-धंधों व खेती किसानी आदि कार्य बखूबी संभाल कर अनेकता में एकता व सहअस्तित्व की मिसाल पेश कर रहे हैं जिनसे किसी को कोई शिकायत नहीं। इसका उल्लेख हमने अपने 7 अक्तूबर के सम्पादकीय ‘उत्तर प्रदेश के पंजाब में एक दिन’ में किया था।

ऐसे में महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के प्रति विद्वेष की भावना का जारी रहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता विशेषकर उस स्थिति में जबकि शिव सेना तो शुरू से ही कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक अखंड भारत की ध्वजारोही रही है।      
 

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