कब रुकेगा भीड़ का ‘अन्याय’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 May, 2018 02:57 AM

when will the injustice of the crowd stop

कहा जाता है कि तकनीक की उन्नति, निर्माण तथा आविष्कार इंसानों की सुविधा के लिए किया जाता है परंतु हर तकनीक का शुरूआत में दुरुपयोग होता है। इसी तरह मोबाइल फोन तथा उसके एप्स लाभदायक हैं तो उनके नुक्सान भी कम नहीं। व्हाट्सएप...

कहा जाता है कि तकनीक की उन्नति, निर्माण तथा आविष्कार इंसानों की सुविधा के लिए किया जाता है परंतु हर तकनीक का शुरूआत में दुरुपयोग होता है। इसी तरह मोबाइल फोन तथा उसके एप्स लाभदायक हैं तो उनके नुक्सान भी कम नहीं। व्हाट्सएप पर बच्चों को अगवा करने वालों से बचने की चेतावनी देने वाली हालिया अफवाहों के फैलने से आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा झारखंड में भीड़ ने 7 लोगों की नृशंस हत्या कर दी तथा 20 लोग घायल हो चुके हैं। 

ये संदेश 3 सप्ताह से व्हाट्सएप पर फैल रहे हैं। हालांकि, अधिकतर गांववासी इनके ‘फेक मैसेज’ (जाली संदेश) होने की जानकारी होने को स्वीकार करते हैं, फिर भी गांवों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर तनाव है। हो सकता है कि ये संदेश किन्हीं आम गिरोहों की ओर से फैलाए जा रहे हों परंतु गौर करने वाली बात इनमें प्रयोग किए जा रहे शब्द हैं जैसे कि ‘डोंगा’ (चोर) तथा ‘साइको’ परंतु साथ ही लिखा है कि बंगाली या हिन्दी भाषी उत्तर भारतीय अथवा मलयाली बोलने वाले गैंगस्टर बच्चों को अगवा कर रहे हैं। 

जहां पहले धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बांटा जाता था वहीं आज उन्हें उत्तर और दक्षिण भारत के नाम पर बांटा जाता है। इस सबकी शुरूआत तब हुई जब अपने एक 17 वर्षीय रिश्तेदार से मिल कर बाहर निकले 32 वर्षीय एक ऑटो ड्राइवर को भीड़ ने आधे घंटे में पीट-पीट कर मार डाला जो उस पर बच्चों को अगवा करने का आरोप लगा रही थी। दूसरी घटना में 6 भाई-बहनों में सबसे छोटे युवक को एक गांव में मौत के घाट उतार दिया गया जहां वह परिवार से मिलने आया था। वीरवार को मारे गए अन्य 4 लोग मुस्लिम थे जिससे अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगों को लगता है कि ये हमले साम्प्रदायिकता से प्रेरित थे। 

क्या हम ‘लिंचोक्रेसी’ (‘लिंच’ का अर्थ उग्र भीड़ द्वारा लोगों को मौत के घाट उतार देना) बनते जा रहे हैं क्योंकि भीड़ के हिंसक होने की घटनाएं अब पहले की तुलना में अक्सर होने लगी हैं, जिन्हें खुलेआम किसी तरह का भय नहीं है जबकि ऐसे अपराध करने वालों के चेहरे मौके पर कैमरे में कैद भी हो रहे हैं। अगर मान भी लिया जाए, जैसा कि इलाके की पुलिस का कहना है, कि दूर-दराज के गांवों के लोगों के लिए स्मार्टफोन नई चीज है और वे अफवाहों तथा खबरों के बीच अंतर करने में अक्षम होते हैं, तो शहरों में रहने वाले उन लोगों का क्या जो पत्रकारों, कलाकारों, वास्तव में किसी भी ऐसे व्यक्ति को खुलेआम धमकाने से झिझकते नहीं हैं जो उनके विचारों के विपरीत बात करता है। 

राणा अयूब जैसी महिला पत्रकारों को बलात्कार तथा हत्या की धमकियां फोन या ट्विटर पर ही नहीं, वीडियोज में भी दी जाती रही हैं। रवीश जैसे पत्रकारों की कहानी भी ऐसी ही है जिन्हें गम्भीर परिणाम भुगतने की चेतावनी खुलेआम मिलती है। इतिहासकारों और मनोवैज्ञानिकों के अनुसार तीन प्रकार की हिंसा में अंतर करना जरूरी है- 
1. ‘पोग्रोम्स’ (सामूहिक हत्या)- जब बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाता है और बड़े स्तर पर होने वाली हिंसा दंगों का रूप ले लेती है। 
2. ‘मोब वायलैंस’ (हिंसक भीड़)- आमतौर पर छोटे स्तर पर हिंसक घटनाएं होती हैं, ऐसा करने वाले चोर या लुटेरे हो सकते हैं अथवा कभी-कभी सड़क दुर्घटना होने पर जुटी हुई भीड़ ड्राइवर को मार डालती है। इसकी एक वजह कानून द्वारा वह न्याय न दे सकने की कमजोरी भी है जिसका वह वायदा करता है।
3. हिंसा का तीसरा प्रकार सबसे अधिक चिंतित करने वाला तथा आजकल देश में तेजी से फैल रहा है। ये तत्व मनोरोगी हैं जो लोगों को धमकाने की ताकत के एहसास का आनंद लेते हैं। 

इस तीसरी प्रकार की हिंसा में कुछ समूहों को लगता है कि कुछ रूढि़वादी सामाजिक मूल्यों की रक्षा करना आवश्यक है फिर चाहे वे कानून के खिलाफ ही क्यों न हों। यानी उन्हें पता है कि यह सब गैर-कानूनी है परंतु अपने विश्वास थोपने के लिए भय पैदा करके उन्हें संतुष्टि मिलती है। यह केवल तभी सम्भव है जब केंद्र तथा राज्य सरकारें अपनी आंखें मूंद लेती हैं अथवा इन लोगों को कानून-व्यवस्था का खुलेआम उल्लंघन करने देती हैं। कानून को कठोरता से लागू करके और मिसाली सजा देकर इन पर काबू पाया जा सकता है।

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