Edited By ,Updated: 25 Jan, 2016 01:09 AM
पिछले कई सालों के दौरान अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अनेक विवादों की चुपचाप मौत हो गई क्योंकि मुख्यत: वे बेतुके थे।
(टी.सी.ए. श्रीनिवास राघवन): पिछले कई सालों के दौरान अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अनेक विवादों की चुपचाप मौत हो गई क्योंकि मुख्यत: वे बेतुके थे। आपको पूंजी सिद्धांत, वृद्धि सिद्धांत, व्यापार सिद्धांत, विकास सिद्धांत जैसी कई बातें अभी भी याद होंगी?
लेकिन एक विवाद ऐसा है, जो अनेक युद्धों के अनुभवी सैनिक की तरह मौत से परास्त होने का नाम नहीं लेता और वह है वित्तीय घाटे के संबंध में विवाद। यह किसी घटिया बदबू अथवा किसी छलेडे की तरह वातावरण में तैरता रहता है।
ऐसे में यदि भारतीय अर्थशास्त्री भारत के वित्त मंत्री के ‘वित्तीय समेकन’ को विश्राम देने के सुझाव के पक्ष और विपक्ष में तलवारें भांज रहे हैं तो कोई हैरानी की बात नहीं। मंत्री महोदय के इस सुझाव का अभिप्राय यही है कि वह खुले हाथों से खर्च करने की अनुमति मांग रहे हैं। और शायद उनको यह अनुमति मिल भी जाएगी क्योंकि कोई भी अन्य व्यक्ति या संस्था अपनी वैध आमदन को खर्च करने को तैयार नहीं। बहुत ऊंचे टैक्सों और लगातार ऊंचे स्तर पर बनी हुई खाद्य पदार्थों की मुद्रा स्फीति के चलते उपभोक्ता लगातार इस बात से ङ्क्षचतित हैं कि गुजारा कैसे करना है। सरकार शायद उसकी आधी आमदन छीन लेगी। शेष आय का तीसरा हिस्सा मालिक मकान या जमींदार ले जाएगा। पांचवां हिस्सा आय परिवहन पर खर्च हो जाएगा और शेष बची आमदन स्कूल की फीसों की भेंट चढ़ जाएगी। उपभोक्ता तो बेचारा खाली हाथ मलता रह जाएगा।
इसी बीच प्राइवेट कार्पोरेट क्षेत्र कर्ज में डूबता जा रहा है और मगरमच्छ द्वारा नीचे की ओर खींचे जा रहे मिथिहासिक गजराज की तरह बस उसकी भी सूंड ही पानी के ऊपर दिखाई देती है, जिससे किसी तरह उसकी सांसें चल रही हैं। यह वर्ग निवेश पर खर्च नहीं कर सकता। जब उपभोक्ता कोई भी खरीदारी न कर रहे हों तो कम्पनियां अधिक निवेश भला क्यों करेंगी? उत्पादन बढ़ाकर उन्हें क्या हाथ आएगा?
ऐसी परिस्थितियों में हमारी परम्परागत संकट मोचक यानी कि सरकार ही खर्च करने वाले एकमात्र निकाय के रूप में सामने आएगी। लेकिन एक दशक तक सोनिया गांधी ने केवल अपने तुनक मिजाज बेटे को प्रधानमंत्री के सिंहासन तक पहुंचाने हेतु जिस तरह मतदाताओं को खरीदने के लिए करदाताओं के पैसे को बेदर्दी से उड़ाया है, उससे सरकार का लगभग दीवाला निकल चुका है।
और इस दीवाले की बची-खुची कसर भी जल्दी ही पूरी हो जाएगी। क्यों? क्योंकि सरकार को उन लाखों लोगों के वेतन और पैंशन में वृद्धि करनी पड़ेगी, जिनको इसने न केवल वर्तमान में नौकरी पर लगा रखा है, बल्कि अतीत में भी करदाताओं के टैक्स पर ही पलते रहे हैं। 10 प्रतिशत लोगों को छोड़कर इनमें से शेष सभी लोग हमारे अर्थतंत्र का सबसे बेकार अंग हैं। उनका योगदान एक पैसे का भी नहीं, लेकिन वे टिड्डी दल की तरह सब कुछ चटम किए जा रहे हैं।
जनता के टैक्सों की कमाई की लूट यहीं समाप्त नहीं हो जाती। पैंशन और वेतनों के अलावा कई तरह की सबसिडियां भी सरकार की आय को दीमक की तरह चाट रही हैं। वैसे हमारा सौभाग्य ही है कि पैट्रोलियम तेलों की कीमतें काफी नीचे चल रही हैं और अभी यह क्रम जारी रहने की उम्मीद है। फिर भी तेल कीमतें इतनी तेजी से नीचे नहीं आएंगी, क्योंकि देश में कहीं न कहीं तो चुनाव होता ही रहता है और सबसिडियों पर पलने वाली जनता भारी संख्या में मतदान करती है। सबसिडी नहीं तो कोई मतदान नहीं।
इन सब खर्चों के बाद भी जान छूटने वाली नहीं क्योंकि अतीत में लिए गए ऋणों का भारी-भरकम ब्याज भी अदा करना होता है। ये ऋण भी मुख्य तौर पर उपरोक्त खर्चों के कारण ही लेने पड़े थे। इनकी अदायगी तो हर हालत में करनी ही होगी। इस मामले में कोई ‘किन्तु-परन्तु’ नहीं चलेगा। यदि भविष्य में हमने कर्ज लेने की अपनी पात्रता बनाए रखनी है तो हमें पहले लिए गए ऋण का भुगतान करना ही होगा। लेकर मुकर जाने वालों को कोई कर्ज नहीं देता, खास तौर पर बाहरी देश तो किसी कीमत पर यह काम नहीं करेंगे। और अगले तीन नहीं तो दो वर्षों तक तो भारत को उन पर बुरी तरह निर्भर रहना पड़ेगा।
मोदी के गले में 2019 की फांस
इसीलिए वित्त मंत्री बहुत बेचारगी से गुहार लगा रहे हैं : ‘‘क्या वित्तीय समेकन को एक-दो बार ब्रेक नहीं लगाई जा सकती?’’ कुछ अर्थशास्त्री उनके इस अनुरोध का उत्तर हां में देते हैं और कुछ न में।
लेकिन मेरा मानना है कि इस संबंध में सरकार पहले ही अपना इरादा तय कर चुकी है क्योंकि यदि जेतली अभी पैसा खर्च नहीं करते तो 2019 का चुनाव निश्चय ही मोदी के हाथों से निकल जाएगा। वर्तमान में उन्हें 282 से कम सीटें आने की ही उम्मीद है।
इससे सवाल पैदा होता है : ‘‘यदि इस वर्ष वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 3.9 प्रतिशत के लक्ष्य से ऊंचा उठ जाता है तो अर्थव्यवस्था के लिए इसका क्या अर्थ होगा?’’
अर्थव्यवस्था का भाग्य इस बात पर निर्भर करता है कि यह घाटा कितना बड़ा होगा। इसके साथ ही हमें यह भी फैसला करना होगा कि वित्तीय घाटे का ‘सुरक्षित स्तर’ क्या होना चाहिए। यही वह मुद्दा है जिसके बारे में कोई भी निश्चय से कुछ नहीं कह सकता। जैसे कि हर कोई यह मान लेता है कि भगवान का अस्तित्व है, इसी प्रकार अधिकतर अर्थशास्त्री भी यह मान कर चलते हैं कि वित्तीय घाटे का ‘सुरक्षित स्तर’ 3 प्रतिशत है।
वास्तव में यह स्थिति झूठा प्रोपेगंडा करने के लिए विश्व भर में कुख्यात द्वितीय विश्वयुद्ध के जर्मन सेनापति गोएबल्स की शरण में जाने की ओर संकेत करती है। गोएबल्स कहा करता था कि बार-बार दोहराने पर लोग झूठ को भी सच मानने लगते हैं। इसी प्रकार यदि अर्थशास्त्री भी बार-बार ‘3 प्रतिशत’ वाली बात को दोहराते जाएंगे तो वे एक-दूसरे से सहमत होना शुरू कर देंगे।
मतदाताओं को लुभाने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं पर जिस तरह सोनिया गांधी ने पैसा बर्बाद किया था, उसके विपरीत यदि समझदारी से खर्च किया जाता है तो क्या 4.9 प्रतिशत वित्तीय घाटे का आंकड़ा कोई बहुत चिन्ता की बात है? 2009 के चुनाव सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस केवल इसलिए जीत गई थी कि यू.पी.ए. सरकार ने अप्रैल 2005 से मार्च 2009 के बीच चुङ्क्षनदा ग्रामीण क्षेत्रों पर 6 लाख करोड़ रुपए की रियायतों की बारिश कर दी थी।
आप बहुत आसानी से यह सवाल पूछ सकते हैं: ‘समझदारी से खर्च करने’ का तात्पर्य क्या है? समझदारी से पैसा खर्चने का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि एक ही झटके में सरकारी क्षेत्र के बैंकों को दलदल में से निकाला जाए। लेकिन इससे पहले उन पर यह शर्त लगाई जाए कि वे लटकी चली आ रही वसूलियों की कम से कम आधी राशि कर्जदारों से अवश्य वापस ले लें। स्टेट बैंक आफ इंडिया इस काम की शुरूआत विजय माल्या से कर सकता है।
समझदारी भरा खर्च करने का दूसरा तरीका यह हो सकता है कि यह पैसा नितिन गडकरी को दिया जाए। वह कह रहे हैं कि उन्हेें सड़कें और राजमार्ग बनाने के लिए पैसे की कमी का सामना करना पड़ रहा है। यह दोनों उपाय एक-दूसरे के आड़े नहीं आते और दोनों एक साथ लागू किए जा सकते हैं। दोनों के लिए राशि आधी-आधी बांट दी जाए। व्यक्तिगत रूप में मैं बैंकों को फिर से पूंजी की दृष्टि से मजबूत करना चाहूंगा। उसके बाद वे यदि बड़ी-बड़ी कम्पनियों को नहीं तो आम ग्राहकों और उपभोक्ताओं को ऋण देने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं।
फिर भी इस नीति के नतीजे रातों-रात सामने नहीं आ जाएंगे। इसलिए ऐसा लगता है कि यदि नितिन गडकरी वित्त पोषण हासिल करने में अग्रणी रहते हैं तो इससे मुख्य रूप में स्टील और सीमैंट क्षेत्र फिर से सृजित हो सकता है। आप इन दोनों क्षेत्रों की कम्पनियों के स्टॉक एंड शेयर की खरीद शुरू कर सकते हैं। इसके लिए आपको और आपके परिवार को या तो दिन में एक बार खाना खाने से परहेज करना होगा या फिर ऊंचे टैक्स देने से बचना होगा।