Edited By ,Updated: 29 Oct, 2019 01:36 AM
महाराष्ट्र और हरियाणा के हालिया विधानसभा चुनावों के फैसले से भारतीय राजनीति के दो मूल सिद्धांतों की पुष्टि होती है जो नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने की मांग करते हैं। एक, मतदाता समझदार विकल्प बनाते हैं और अक्सर संसदीय और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग...
महाराष्ट्र और हरियाणा के हालिया विधानसभा चुनावों के फैसले से भारतीय राजनीति के दो मूल सिद्धांतों की पुष्टि होती है जो नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने की मांग करते हैं। एक, मतदाता समझदार विकल्प बनाते हैं और अक्सर संसदीय और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग तरह से मतदान करते हैं। दूसरा, जनाधारों के साथ दो मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रप भाजपा के राज्य नेताओं के खिलाफ अपने गढ़ में कब्जा जमा सकते हैं, यहां तक कि तब भी जब मोदी राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर भी हावी हैं।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के महाराष्ट्र में शरद पवार और कांग्रेस के जाट नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने हरियाणा में जननायक जनता पार्टी के युवा नौसिखिया नेता दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर भाजपा की कमजोरियों का पर्दाफाश किया और आश्चर्यजनक रूप से अपने अच्छे प्रदर्शनों से अवगत कराया तथा वर्तमान मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस और मनोहर लाल खट्टर को असमंजस में डाल दिया क्योंकि वे बहुमत का आंकड़ा छूने में विफल रहे।
6 महीने पहले लोकसभा चुनावों में मोदी की प्रचंड जीत के बाद विधानसभा चुनाव के इस पहले दौर के खंडित परिणामों में कई संदेश हैं भाजपा और विपक्ष दोनों के लिए। हालांकि यह अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी कि क्या वे वर्तमान राजनीति और आने वाले महीनों में इसके संभावित परिणामों को एक महत्वपूर्ण मोड़ देते हैं क्योंकि अपने दूसरे कार्यकाल में आगे बढ़ रहे मोदी को कम नहीं आंका जाना चाहिए।
राष्ट्रीय मुद्दों का इस्तेमाल
संदेश नंबर 1 यह है कि राज्य के चुनाव में लोगों की चिंताओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय मुद्दों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। भाजपा अति-राष्ट्रवाद, पाकिस्तान का हौवा और अन्य जोरदार मुद्दों को हवा देती है। इसने दो राज्यों में अगले मुख्यमंत्री के लिए मतदान में मतदाताओं के ठंडेपन को अधिक खत्म नहीं किया। उनके दिमाग में नौकरी के नुक्सान, आॢथक मंदी, कृषि संकट और रोजी-रोटी जैसे मुद्दों को लेकर चिंता थी। मोदी सरकार आखिरकार बढ़ते हुए आर्थिक संकट की वास्तविकता को लेकर जागी है, उसे आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी राजनीतिक गिरावट की समस्या को तेजी से हल करना होगा। 2 चुनाव तो 6 महीने से भी कम समय में होने वाले हैं- झारखंड और दिल्ली। ये चुनाव उस दिशा का अगला परीक्षण होंगे जिस ओर राजनीति आगे बढ़ रही है।
जाति का मामला
संदेश संख्या 2 यह है कि जाति महत्व रखती है, विशेष रूप से एक विधानसभा चुनाव में। मोदी ने यह साबित कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में जातिगत परिवर्तन हो सकता है, जब राष्ट्रपति शैली में एक करिश्माई नेता के व्यक्तित्व के चारों ओर अभियान चलाया जाता है, जिसकी राष्ट्रीय मुद्दों पर अच्छी तरह से स्थापित साख है। पांच महीने पहले जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले और पाकिस्तान के बालाकोट में भारत के जवाबी हवाई हमले के बाद राष्ट्र को चयन करना पड़ा था- एक तरफ मोदी के रूप में मजबूत नेता, जबकि दूसरी तरफ क्षेत्रीय सरदारों का अराजक मिश्रण और तत्कालीन कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी। मतदाताओं ने जोर-शोर से और स्पष्ट रूप से अपना फैसला सुनाया।
जब लड़ाई राज्य के लिए होती है तो गतिशीलता बदल जाती है। महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों में मतदाताओं ने दिखाया कि इन राज्यों में दो प्रमुख समुदायों (मराठा और जाट) के साथ जाति कितनी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने उन्हें अनदेखा करने के लिए विपक्षी दलों के पीछे एकजुट होकर भाजपा को कड़ा संदेश दिया। भाजपा ने पांच साल पहले महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री की नियुक्ति करके एक अनूठा प्रयोग करने की कोशिश की, जो लगभग हमेशा एक मराठा और हरियाणा में एक पंजाबी मुख्यमंत्री द्वारा शासित रहा है, जिसमें शीर्ष पर जाट के अलावा कोई भी कभी नहीं रहा।
इस तरह भाजपा ने अन्य सभी मतदाता समूहों को अपने साथ एकजुट करने की उम्मीद की ताकि उसे एक विशेषाधिकार प्राप्त प्रभुत्व वाली जाति के लिए भटकना न पड़े। एक मजबूत बहुलतावादी राष्ट्रवाद के थीम पर आधारित एक संसदीय चुनाव में यह मायने नहीं रखता लेकिन जब पांच महीने बाद मतदाताओं को अपना मुख्यमंत्री चुनना पड़ा तो भाजपा के गैर-पारम्परिक जाति के खेल के खिलाफ प्रभुत्वशाली जातियों के बीच गुस्सा बढ़ गया। परिणामों से पता चलता है कि जाटों ने कांग्रेस और जे.जे.पी. के उन उम्मीदवारों को वोट दिया जो भाजपा को हराने में सक्षम थे और महाराष्ट्र में मराठों ने पवार की राकांपा के लिए भाजपा छोड़ दी।
भाजपा ने जल्दी ही हरियाणा में जे.जे.पी. के साथ गठबंधन करके उसके नेता दुष्यंत सिंह, जो जाट हैं, को उपमुख्यमंत्री का पद दे दिया। भाजपा के शिवसेना के साथ संघर्ष के कारण महाराष्ट्र में स्थिति स्पष्ट नहीं है, जो बदली हुई परिस्थितियों में सत्ता समीकरणों को फिर से स्थापित करना चाहती है। भाजपा ने राज्य में महत्वपूर्ण सीटों को खो दिया है और अब अपनी सरकार को बचाए रखने के लिए शिवसेना पर पहले से कहीं अधिक निर्भर है।
क्षेत्रीय क्षत्रप
संदेश संख्या 3 यह है कि क्षेत्रीय क्षत्रप जीवित हैं और हाथ-पांव चला रहे हैं और जब उन्हें दरकिनार किया जाता है तो वे एक अच्छी लड़ाई लड़ सकते हैं। पवार ने 79 साल की उम्र में एक ऊर्जावान अभियान चलाया और चुनाव को सतारा से अपनी परिभाषित छवि दी जहां उन्होंने बारिश में भी खड़े रह कर मराठा गौरव का आह्वान किया। हरियाणा में हुड्डा और दुष्यंत चौटाला ने जोरदार प्रचार किया और खट्टर-मोदी की जुगलबंदी को धीमा करने में कामयाब रहे।
यह स्पष्ट है कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई राज्यों में है। मोदी ने केन्द्र में पांच साल का दूसरा कार्यकाल जीता है जो 2024 तक रहेगा। राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत चुनौतीदाता की अनुपस्थिति में वह प्रभावी और लगभग अजेय बने हुए हैं। हालांकि महाराष्ट्र और हरियाणा ने जो दिखाया है वह यह है कि भाजपा के पास राज्य स्तर पर मोदी जैसे नेता की कमी है। फडऩवीस और खट्टर दोनों बिना किसी अपवाद के बड़े स्तर के नेता साबित हुए हैं। पवार और हुड्डा जैसे मजबूत क्षत्रपों का सामना करते हुए वह ढीले पड़ गए। उनके लिए बचा था मोदी का हाई-वोल्टेज अभियान लेकिन राज्य के सर्वेक्षण में यह पर्याप्त नहीं था।
केन्द्र के ब्रह्मास्त्र
संदेश संख्या 4 यह है कि प्रवर्तन निदेशालय, सी.बी.आई. और आयकर विभाग जैसे ब्रह्मास्त्रों का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए। भाजपा ने चुनाव प्रचार के बीच में पवार परिवार पर नकेल कसने की गंभीर गलती की। इसने पवार को लडऩे के लिए उकसाया, जिसे उनके राजनीतिक जीवन की बेहतरीन लड़ाई माना गया। उनके जोरदार अभियान ने उनके मराठा वंशजों के बीच एक सहानुभूति लहर पैदा की और उनकी सफलता ने उन्हें विपक्ष के प्रमुख चेहरे के रूप में बढ़ावा दिया।
क्षेत्रीय नेताओं का महत्व
संदेश संख्या 5 यह है कि अब गांधी परिवार को क्षेत्रीय नेताओं के पोषण और उन्हें संचालित करने के लिए राजनीतिक स्थान देने के महत्व का एहसास हो। यदि हरियाणा में कांग्रेस पुन: खेल में है तो यह केवल इसलिए क्योंकि वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हुड्डा को बागडोर सौंप दी और स्वयं अभियान से दूर रहीं। राहुल गांधी ने भी मुश्किल से दो राज्यों में अपना चेहरा दिखाया। यदि वह 2024 तक चुनाव में रहना चाहती है तो कांग्रेस को गांधी परिवार की भविष्य की भूमिका की समीक्षा करने की सलाह दी जाएगी।-आरती आर. जैरथ