कश्मीर में हिंसा का नया दौर केंद्र के लिए चेतावनी

Edited By ,Updated: 20 Oct, 2021 03:21 AM

a new round of violence in kashmir warns the center

सुरम्य कश्मीर में हिंसा का दौर जारी है। पिछले सप्ताह यहां 11 गैर-कश्मीरी हिन्दू, सिख अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों और प्रवासी कामगारों की हत्या के बाद भय का वातावरण बन गया है। श्रीनगर में लोगों में यह भावना

सुरम्य कश्मीर में हिंसा का दौर जारी है। पिछले सप्ताह यहां 11 गैर-कश्मीरी हिन्दू, सिख अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों और प्रवासी कामगारों की हत्या के बाद भय का वातावरण बन गया है। श्रीनगर में लोगों में यह भावना बलवती हो रही है कि हिंसा का पहले का दौर शुरू हो गया है और इसने 1990 के घावों को हरा कर दिया है, जब लोगों की चुन-चुन कर हत्याएं की गईं और उस भय के वातावरण में अपना अस्तित्व बचाने के लिए कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया था। 

पुंछ में आतंकवादियों और सेना के बीच मुठभेड़ में 13 आतंकवादी मारे गए तो 9 सुरक्षाकर्मी भी शहीद हुए। यह बताता है कि आतंकवादी सीमा में कहां तक पहुंच गए हैं। लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन से बने संगठन रिजिस्टैंस फ्रंट ने आर.एस.एस. के एजैंटों और पुलिस के मुखबिरों की हत्याओं की जिम्मेदारी ली है।

पुलिस ने अब तक 900 लोगों को हिरासत में लिया और प्रतिबंधित धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी से जुड़े 2 आतंकवादियों को मौत के घाट उतारा है। आतंकवादियों द्वारा लोगों की चुन-चुन कर हत्या करने से उन कश्मीरी पंडितों में पुन: भय व्याप्त हो गया है जो तीन दशक के बाद घर वापसी की योजना बना रहे थे। साथ ही इससे उत्तर प्रदेश, बिहार से हिंदुओं और मुस्लिम सामान्य प्रवासी कामगारों में भी भय पैदा हुआ है। राज्य में जो शांति स्थापना के प्रयास किए गए हैं, वे बिखरने लगे हैं। 

यह बताता है कि अनुच्छेद 370 को रद्द करने से जम्मू-कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद समाप्त नहीं होगा क्योंकि वहां इस्लामी कट्टरवाद बढ़ता जा रहा है। इसके अलावा भय की मानसिकता बढ़ती जा रही है और यह राजनीतिक रूप से संवदेनशील बनती जा रही है। अब धार्मिक नेता भी केन्द्र के एक कदम आगे और दो कदम पीछे हटने की नीति पर प्रश्न उठाने लगे हैं। घाटी के एक नेता का कहना है कि यह हिंसा हाल ही में केन्द्रीय मंत्रियों के घाटी के किए गए दौरों का उत्तर है। केन्द्र द्वारा इन हत्याओं पर खोखली शोक संवेदनाओं और आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं किया गया। यह बताता है कि घाटी में विकास, सामान्य स्थिति की बहाली और आतंकवाद की समाप्ति के बारे में कितने खोखले वायदे किए गए। इसके अलावा ये घटनाएं सरकार के इस दावे को झुठलाती हैं कि घाटी से आतकंवाद का लगभग खात्मा हो गया है और राज्य में विकास कार्यों को गति मिलने से विभिन्न वर्ग के लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा हो रही है। 

घाटी में मंत्रियों के दौरों के दौरान उनकी सुरक्षा के लिए सुरक्षाकर्मियों की तैनाती से आतंवादी समूहों को अपने लक्ष्यों तक पहुंचने में सहायता मिली और वे अपने सांप्रदायिकता प्रेरित षड्यंत्रों को कार्यरूप देने में सफल हुए। इसका परिणाम यह हुआ कि सुरक्षा के घेरे में बसी अपनी कालोनियों से कश्मीरी पंडित वापस जम्मू लौटने लगे हैं। देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को सबक सिखाने का मनोवैज्ञानिक भावनात्मक प्रभाव दिखने लगा है।

कश्मीर में मुख्य धारा के लोग और नेता केन्द्र द्वारा उठाए गए कदमों से नाराज हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पंडितों के पक्ष में ज्यादा हैं। वे पंडितों को हिंदुओं के रूप में देखते हैं और मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर में भारत का प्रतीक मानते हैं। केन्द्र द्वारा हाल ही में कश्मीर में अनेक प्रशासनिक आदेश जारी किए गए हैं जिनमें प्रवासी कश्मीरी पंडितों द्वारा अपनी भूमि की बिक्री शुरू करना भी शामिल है। इससे उन लोगों में भी भय पैदा हुआ है जिनके पास वास्तविक कानूनी दस्तावेज हैं किंतु उन्हें इस बात का भय है कि यदि विक्रेता उनकी वैधता पर प्रश्न उठाए तो वे दस्तावेज अवैध घोषित किए जा सकते हैं। 

जम्मू के व्यापारियों ने हाल ही में केन्द्र और राज्य प्रशासन की नीतियों और कार्यों के विरुद्ध हड़ताल की। बौद्ध बहुल लद्दाख भी अपनी उपेक्षा की शिकायत कर रहा है, जो अब पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग कर रहा है। घाटी में अनेक सरपंचों ने त्यागपत्र दे दिया है, हालांकि सरकार पंचायत चुनावों को घाटी में सामान्य स्थिति की बहाली के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रही है। तीनों क्षेत्रों में इस तरह की नाराजगी इस बात का संकेत है कि अगस्त 2019 में राजग सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को रद्द करने के सकारात्मक परिणाम और सतही तौर पर इसका कोई लाभ नहीं मिला है। परिसीमन आयोग को समाप्त करने, विधानसभा चुनाव करवाने और कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने में जितना विलंब होगा इसका सुरक्षा और राजनीतिक दोनों दृष्टि से अधिक खतरा होगा। चुनाव पश्चात हेरा-फेरी कर वैकल्पिक कठपुतलियों को सत्ता में लाने के अवांछित परिणाम सबने देखे हैं। 

भारत समर्थक अनेक कश्मीरी नेताओं को आशंका है कि कश्मीरी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने से कश्मीरी मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ेंगी। 7 लाख सैनिकों की उपस्थिति से लोग चिंतित हैं और उनको आशंका है कि केन्द्र द्वारा इस संबंध में कड़ी कार्रवाई की जा सकती है। वर्ष 1989 से अब तक इस संघर्ष में 47,000 लोगों की जानें गई हैं। 1990 का दशक हो या 2021, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर की जनता में आज भी अनेक लोग जेहाद को समर्थन देते हैं, जिसे प्रायोजित करने के लिए पाकिस्तान निश्चित रूप से दोषी है किंतु कश्मीरी आतंकवादी संगठनों ने भी भटके हुए कश्मीरी युवकों को भड़काया है और इसके चलते लोगों और राजनीतिक व्यवस्था के बीच खाई बढ़ी है। अब ये कट्टरवादी तत्व राजनीतिक विरोधियों की बजाय निर्दोष लोगों की जान लेने लगे हैं। 

गत दशकों में कश्मीर हमारे राजनेताओं के लिए पाकिस्तान के षड्यंत्रों को विफल करने तथा सीमा पार प्रायोजित आतंकवाद को समाप्त करने हेतु प्रयोग करने का क्षेत्र रहा है। कश्मीर में हाल में हुई यह हिंसा केन्द्र के लिए एक चेतावनी है। जब तक सरकार लोगों में कट्टरवादी भावनाएं फैलाने से नहीं रोकती, तब तक जेहाद पर अंकुश नहीं लगेगा। इस संघर्ष के समाधान के लिए एक ठोस रणनीति की आवश्यकता है। केन्द्र सरकार को अतिवाद, आतंकवाद और अलगाववाद के स्रोतों, घाटी में पाकिस्तान के प्रभाव को समाप्त करना और कश्मीरियों को भारत से जोडऩा होगा। जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के बीच विश्वास बढ़ाने के लिए मोदी सरकार को अगुवाई करनी पड़ेगी और इसका उद्देश्य नया जम्मू-कश्मीर होना चाहिए। अंतत: उन्हें कश्मीरियों के दिलों को जीतना होगा क्योंकि युद्ध की शुरूआत व्यक्ति के मन से होती है और वहीं से ही शांति स्थापना के प्रयास किए जाने चाहिएं।-पूनम आई. कौशिश
 

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