1947 के बाद कई राजनीतिक दल ‘उभरे और अस्त’ हुए

Edited By ,Updated: 06 Oct, 2020 02:39 AM

after 1947 many political parties  emerged and settled

कभी संसद में स्वतंत्र पार्टी और उनके बड़े नेता मीनू-मसानी की आवाज गूंजती थी। कांग्रेस छोड़ विजयाराजे सिंधिया (राजमाता) स्वतंत्र पार्टी से जनसंघ में आईं। तब 1960 के दशक में लोकसभा में स्वतंत्र पार्टी के 44 सदस्य हुआ करते थे। 1963

कभी संसद में स्वतंत्र पार्टी और उनके बड़े नेता मीनू-मसानी की आवाज गूंजती थी। कांग्रेस छोड़ विजयाराजे सिंधिया (राजमाता) स्वतंत्र पार्टी से जनसंघ में आईं। तब 1960 के दशक में लोकसभा में स्वतंत्र पार्टी के 44 सदस्य हुआ करते थे। 1963 में राम मनोहर लोहिया यू.पी. के फर्रूखाबाद से जीत कर आए, उनकी पार्टी थी समाजवादी पार्टी। 

1964 में बिहार से मुंगेर लोकसभा सीट जीतकर आए समाजवादी पार्टी के ही नेता मधु लिमये। 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया और कम्युनिस्ट नेता ए.के. गोपालन, ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद, बी.टी. रणदिवे ने माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बना ली। कभी संसद में कम्युनिस्टों के अस्सी-अस्सी लोकसभा सदस्य हुआ करते थे। एक राजनीतिक दल प्रजा सोशलिस्ट पार्टी भी हुआ करता था। आश्चर्य होगा आपको 1960 के दशक में इस पार्टी के 23 लोकसभा सांसद हुआ करते थे। 

फिर एक पार्टी आई संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी। द्रमुक  तमिलनाडु में एकमात्र राजनीतिक दल हुआ करता था। उसको 1960 के दशक में 25 लोकसभा सीटें मिली थीं। चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल बनाया था। उड़ीसा में बीजू पटनायक ने उत्कल कांग्रेस की आधारशिला रखी। पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी ने बंगला-कांग्रेस बनाई। 1989 आते-आते जनता दल सत्ता संभाल गया। मुस्लिम लीग के 1980 में 49 संसद सदस्य थे। कांग्रेस जिसको 1967 तक ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ के नाम से जाना जाता था, इसके बाद लगातार लुढ़कती चली गई। कभी इससे कांग्रेस (ओ) अलग हुई, कभी शरद पवार नैशनलिस्ट-कांग्रेस पार्टी बना कर अलग हो गए तो कभी पी.ए. संगमा नैशनल पीपुल्स पार्टी बना कर अपना डंका बजा गए। 

यदि स्वर्गीय कांशी राम 1984 में बहुजन समाज पार्टी न बनाते तो भारत में कांग्रेस कभी न हारती। काग्रेस को ध्वस्त किया कांशीराम और मायावती ने क्योंकि दलित वोट ही कांग्रेस का वोट बैंक था। बसपा ने वह वोट बैंक कांग्रेस से छीन लिया। मैंने लोकसभा में रिपब्लिकन पार्टी के उदय होते हुए सूर्य को भी देखा। अब संसद में कोई भी विपक्षी पार्टी दहाड़ती नजर नहीं आती। अन्ना हजारे के ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के नारे पर ‘आम आदमी पार्टी’ का 2012 में उदय हुआ। एक दिलचस्प किस्सा अपने पाठकों को बॉलीवुड का भी बताऊं। पता है क्यों मैं इस किस्से का जिक्र करना चाहता हूं? 

जानते हो न उस हैंडसम एक्टर का नाम? फिल्मी उद्योग का ‘सदाबहार एक्टर’ देव आनंद। हां, उसी देव आनंद ने 1977 में ‘नैशनल पार्टी ऑफ इंडिया’ की आधारशिला रखी थी। मुम्बई के ताजमहल होटल में ‘नैशनल पार्टी’ का जन्म हुआ। फिल्मी उद्योग की बड़ी-बड़ी हस्तियां इसके स्थापना दिवस पर उपस्थित हुईं। नाम गिनाऊं तो आप हैरान हो जाएंगे। इस पार्टी के जन्मदाता थे महान निर्माता, निर्देशक व्ही शांताराम, निर्देशक विजयानंद, रामायण सीरियल के निर्माता रामानंद सागर, जी.पी. सिप्पी, श्री राम वोहरा, गुरुदत्त के भाई आत्मा राम, आई.एस. जौहर, सुप्रसिद्ध एक्टर संजीव कुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमामालिनी वगैरह-वगैरह। 

नैशनल पार्टी का हैड आफिस राजकमल स्टूडियो में बनाया गया। 4 सितम्बर, 1979 को नैशनल पार्टी ने एक विशाल जनसभा का आयोजन मुम्बई के शिवाजी पार्क में रखा। इस जनसभा में जनसैलाब उमड़ पड़ा। इस सभा में फिल्मी एक्टर, निर्माता, निर्देशक आई.एस. जौहर ने घोषणा की कि जनता पार्टी की सरकार के स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण के विरुद्ध वह लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे। दूसरी तरफ राज नारायण मंत्री महोदय ने भी घोषणा कर दी कि वह आई.एस. जौहर की टांगें तोड़ देंगे।

इसी विशाल जनसभा में देव आनंद को नैशनल पार्टी का अध्यक्ष घोषित किया गया। बड़े जोशो-खरोश से पार्टी के घोषणा पत्र को जारी किया गया। बॉलीवुड सितारों ने ‘नैशनल पार्टी’ राजनीति में क्यों उतारी? इसलिए कि जनता पार्टी की सरकार से भारत की जनता का विश्वास उठ चुका था। जनता पार्टी का प्रत्येक घटक सरकार में अपना-अपना एजैंडा लागू करवाना चाहता था। जनता पार्टी की दाल जूतों में बांटी जा रही थी। जनता पार्टी की सरकार जो 1977 में बनी, 1980 में अपने ही भार से टूट गई। 

देव आनंद यद्यपि राजनीति को समझते थे। उनके पिता पिशौरी लाल आनंद पंजाब के गुरदासपुर जिले के प्रसिद्ध वकील थे। उनके भाई मनमोहन आनंद जनसंघ की टिकट पर गुरदासपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ अपनी जमानत गंवा चुके थे। देव आनंद अंग्रेजी साहित्य के ज्ञाता थे। मात्र 36 रुपए लेकर गुरदासपुर से मुम्बई पहुंचे थे। मुम्बई स्थित मिलिट्री सैंसर आफिस में 165 रुपए प्रतिमास की नौकरी कर चुके थे। अपना बुलंद फिल्मी करियर छोड़ राजनेता बनने की उनकी धुन समझ से परे की बात थी। दो साल की नैशनल पार्टी स्वत: खत्म हो गई।

देव आनंद इतने निराश हुए कि 1989 और 1996 के लोकसभा का चुनाव गुरदासपुर संसदीय क्षेत्र से लडऩे की गुजारिश लेकर जब उनके पास मैं मुम्बई पहुंचा तो उन्होंने राजनीति से तौबा कर लेने की बात दोहराई। पैसा, इज्जत, शोहरत, नाम, लोकप्रियता में देव आनंद का कोई सानी नहीं। फिर उन्हें राजनीतिक पार्टी बना कर क्या लेना था? गालियां, आलोचना और न जाने क्या-क्या राजनीति में जाकर अपने नाम करवा लेते। अच्छा किया ‘नैशनल पार्टी’ से उनका मोहभंग हो गया।-मा. मोहन लाल
(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)

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