आखिर कौन थे फैज अहमद ‘फैज’

Edited By ,Updated: 17 Jan, 2020 01:04 AM

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10 जनवरी से देशभर में लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और भविष्य में संभावित तैयार होने वाले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन.आर.सी.) के खिलाफ धरना-प्रदर्शन, टी.वी.स्टूडियो पर बहस के दौरान गाली-गलौच और समाचारपत्रों में आलेखों के माध्यम से...

10 जनवरी से देशभर में लागू नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) और भविष्य में संभावित तैयार होने वाले राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एन.आर.सी.) के खिलाफ धरना-प्रदर्शन, टी.वी.स्टूडियो पर बहस के दौरान गाली-गलौच और समाचारपत्रों में आलेखों के माध्यम से पक्ष-विपक्ष में अपनी बात रखने को एक माह से अधिक हो गया।

आखिर इस प्रकार का आक्रामक प्रदर्शन या सी.ए.ए.-एन.आर.सी. का विरोध क्यों हो रहा है? इसे करने वाले कौन हैं? इसमें संदेह नहीं कि आंदोलन करने वाले अधिकांश प्रदर्शनकारी मुस्लिम समाज से हैं। स्वाभाविक रूप से इन प्रदर्शनकारियों को वे राजनीतिक दल बढ़-चढ़ कर अपना प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन दे रहे हैं जो गत वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में फिर पराजित हो गए थे। इस तथाकथित जन आंदोलन में हर प्रकार के वामपंथी (सी.पी.आई.- सी.पी.एम. से लेकर शहरी नक्सली तक) की भी भागीदारी दिख रही है। 

सी.ए.ए.-एन.आर.सी. के खिलाफ लामबंद होने वालों की मानसिकता क्या है? यह उनके जुलूसों के चरित्र और उसमें लगने वाले नारों से स्पष्ट है। इस संदर्भ में सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल हैं, जिसमें प्रदर्शनकारियों को ‘अल्लाह हू अकबर’,‘ला इलाह..इलल्लाह...’, ‘हमें क्या चाहिए आजादी’, ‘हिंदुओं से चाहिए आजादी’, ‘जिन्ना वाली आजादी’ जैसे नारे लगाते हुए सुना गया, तो कई तख्तियां हिंदू प्रतीक-चिन्हों (ओउम सहित) को विकृत कर लहराई गईं जिसमें करोड़ों हिंदुओं की आराध्य मां दुर्गा को हिजाब पहने हुए भी दर्शाया गया। कुछ जगहों पर तिरंगा लहरा कर राष्ट्रगान भी गाया गया। 


भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर (आई.आई.टी.-के.) के कुछ छात्रों ने 17 दिसम्बर को परिसर में सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शन किया था और उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रवादी और प्रसिद्ध शायर फैज अहमद फैज की नज्म- ‘हम भी देखेंगे’ को गाया था। इसकी कुछ पंक्तियों-‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे, जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से, सब बुत उठाए जाएंगे... हम अहल-ए-वफा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे..., बस नाम रहेगा अल्लाह का...’ पर जब एक पक्ष ने आपत्ति जताई, तो एकाएक स्वघोषित सैकुलरिस्टों के साथ वामपंथियों का कुनबा फैका के बचाव में खड़ा हो गया। 

देश के प्रसिद्ध गीतकार और पूर्व राज्यसभा सांसद जावेद अख्तर ने कहा, ‘‘फैज ने अपना आधा जीवन पाकिस्तान के बाहर गुजारा, उन्हें वहां पाकिस्तानी विरोधी कहा गया। ‘हम देखेंगे’ नज्म उन्होंने जिया-उल-हक की साम्प्रदायिक, प्रतिगामी और कट्टरपंथी सरकार के खिलाफ  लिखी थी।’’ क्या जावेद साहब ने सच कहा या फिर सुविधा अनुरूप पूरा सच बताने से पीछे हट गए?

फैज की वैचारिक पृष्ठभूमि और जीवनशैली 
आखिर फैज कौन थे, उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि और जीवनशैली क्या थी? उनका जन्म 13 फरवरी, 1911 में अविभाजित पंजाब के सियालकोट में हुआ। फैज के पिता सुल्तान मोहम्मद खान बैरिस्टर (अधिवक्ता) थे, जिनके जीवन का अधिकांश हिस्सा अंग्रेजों की सेवा में बीता। वे सर सैयद अहमद खान के विचारों से खासे प्रभावित थे और चाहते थे कि फैज भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलें। सैयद अहमद ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद के नाम पर ‘दो राष्ट्र-सिद्धांत’ के विकृत दर्शन का बीजारोपण किया, जिसके गर्भ से 1947 में पाकिस्तान का जन्म हुआ।

फैज वामपंथी थे, पर चिंतन में उनमें कट्टर इस्लाम था
मस्जिद से मजहबी दीक्षा प्राप्त करने के बाद फैज ने ब्रितानियों द्वारा संचालित मिशनरी स्कूल से पढ़ाई पूरी की और बाद में अंग्रेजी साहित्य व अरबी भाषा में स्नातकोत्तर उपाधि ली। वह मोहम्मद इकबाल के विचारों से प्रभावित थे, जिन्हें वर्तमान पाकिस्तान का आध्यात्मिक पिता भी कहा जाता है। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान फैज भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सम्पर्क में आए और उसके एक मुख्य सदस्य बन गए। वामपंथ के प्रति सेवानिष्ठ रहने के कारण उन्हें 1963 में तत्कालीन वाम-शासित सोवियत संघ द्वारा लेनिन शांति पुरस्कार भी दिया गया। फैज वामपंथी थे और चिंतन में कट्टर इस्लाम था। वर्ष 1941 में ब्रितानी महिला आयल्स जार्ज से उन्होंने जब श्रीनगर में निकाह किया, तब एक सच्चे मुसलमान का सबूत देते हुए उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी का सर्वप्रथम इस्लाम में मजहब परिवर्तन करवाया। इस विवाह के गवाह घोर साम्प्रदायिक शेख अब्दुल्ला भी थे।

अंग्रेजों के प्रति वफादार 
कुछ वर्ष कॉलेज प्राध्यापक की नौकरी करने के बाद 1942 में ब्रितानी भारतीय सेना से जुड़ गए। अंग्रेजों के प्रति वफादार रहने के कारण 1944 तक वह न केवल ‘सैकेंड लैफ्टिनैंट’ से ‘लैफ्टिनैंट कर्नल’ पर पदोन्नत हो गए, साथ ही 1945 में तत्कालीन अंग्रेजी साम्राज्य के ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पायर’ के सदस्य भी नियुक्त कर दिए गए। जब 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बना, तब भी वह पाकिस्तानी सेना से जुड़े रहे। 

उसी वर्ष अक्तूबर में उसे कश्मीर में ‘काफिर’ भारत के हाथों पहली पराजय झेलनी पड़ी। इस हार से बौखला कर 1951 में पाकिस्तान की प्रथम लियाकत सरकार के सैन्य तख्तापलट की कोशिश हुई, जिसमें फैज भी मुख्य भूमिका में थे। परिणामस्वरूप, उन्हें भी सैंकड़ों विद्रोहियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और रिहा होने पर वह लंदन चले गए, फिर अयूब खान की सैन्य तानाशाही में 1964 को लौटे।

भुट्टो की नीति को पाकिस्तान आज भी पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ा रहा है फैज जुल्फिकार अली भुट्टो के बेहद करीबी थे, जिनकी भारत (हिंदुओं) के प्रति घृणा 1965 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में दिए उनके वक्तव्य से स्पष्ट है। तब भुट्टो ने कहा था-‘‘पाकिस्तान, भारत से हजार वर्षों तक लड़ता रहेगा और हजारों घाव देकर उसे लहूलुहान करता रहेगा।’’ इस नीति को पाकिस्तान आज भी पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ा रहा है। 

1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री भुट्टो ने अपने प्रभाव से फैज को आयूब खान के सैन्य शासनकाल में सूचना मंत्रालय भेज दिया। स्वाभाविक था कि फैज अपने नए अवतार में इस्लाम के नाम पर ‘काफिर’ भारत (हिंदू) को गरियाने और पाकिस्तानी आवाम को युद्ध उन्माद में झोंकने के लिए बनाए प्रचार तंत्र के केंद्र में थे।

जब भुट्टो 1972 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तब फैज को उस सांस्कृतिक और शिक्षा मंत्रालय का सलाहकार बनाया गया, जिसके कंधों पर विभाजन के बाद भारत की सनातन संस्कृति और परम्पराओं से पाकिस्तान की जड़ों को काटने का दायित्व था। इसी उद्देश्य से पाकिस्तान का स्कूली पाठ्यक्रम भी तैयार हुआ, जिसमें आज भी  हिंदू-भारत विरोधी सामग्री की भरमार है। अब क्या यह सत्य नहीं कि फैज भी उसी प्रयास का हिस्सा थे, जिसमें भारत-हिंदू विरोधी पाठ्यक्रम तैयार किया गया?
 
कालांतर में फैज ने घोर इस्लामी जिया-उल-हक का विरोध क्यों किया? इसका एकमात्र कारण 1977 में भुट्टो को जिया द्वारा अपदस्थ कर उसे फांसी के तख्त पर चढ़ाना था। यह सब इस्लामी पाकिस्तान की विशुद्ध आंतरिक राजनीति की उपज थी, जिसमें फैज और उनकी पुस्तकों पर प्रतिबंध भी लगा दिए गए थे। परिणामस्वरूप, फैज लेबनान चले गए और 1982 में वापस लौटे।
 
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि फैज का जीवन पाकिस्तान नामक विचार और देश को समर्पित था, इसलिए उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान को चुना और वह लाहौर में 20 नवम्बर 1984 को अंतिम सांस लेने तक इसी इस्लामी देश के लिए जिए। स्पष्ट है कि फैज कभी भी उच्च मूल्यों, मानवाधिकारों और समतापूर्ण समाज के लिए आंदोलित नहीं रहे। उनके जीवन का संघर्ष केवल मुसलमानों की ‘शुद्धभूमि’ पाकिस्तान के लिए रहा।

इसी सेवा के लिए उन्हें 1990 में पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से नवाजा गया। अब पाकिस्तान के युवा और ‘सच्चे’ इस्लामी अनुयायियों के लिए फैज प्रेरणास्रोत हो सकते हैं-यह तो समझ में आता है किंतु भारत में मानवाधिकार, पंथनिरपेक्षता, संविधान, लोकतंत्र इत्यादि की बात करने वालों को फैज में अपना आदर्श क्यों दिख रहा है?      
बलबीर पुंज  punjbalbir@gmail.com 

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