‘स्वच्छ भारत’ के बाद अब ‘शिक्षित भारत’ की बारी

Edited By Pardeep,Updated: 18 Aug, 2018 02:42 AM

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स्वर्गीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि उनके द्वारा शुरू किए गए सर्वशिक्षा अभियान के सपने को साकार करने की दिशा में ठोस नीति के अंतर्गत कदम उठाए जाएं। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता दिवस पर भाषण देते हुए...

स्वर्गीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि उनके द्वारा शुरू किए गए सर्वशिक्षा अभियान के सपने को साकार करने की दिशा में ठोस नीति के अंतर्गत कदम उठाए जाएं। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता दिवस पर भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को सभी तरह के अधिकार दिलाने के लिए किए गए प्रयासों का जिक्र किया लेकिन शिक्षा के अधिकार को लेकर उन्होंने कुछ नहीं कहा इसलिए सरकार को यह बताना जरूरी हो जाता है कि जब तक व्यक्ति शिक्षित नहीं होगा तब तक वह अन्य किसी भी अधिकार का उपयोग करने की क्षमता हासिल नहीं कर सकता। 

यह कहना काफी अधिक पीड़ादायक है कि उनके बाद की सरकार ने एक अच्छे कार्यक्रम को केवल इसलिए उपेक्षित किया क्योंकि वह भारतीय जनता पार्टी ने शुरू किया था। यदि उसे आगे बढ़ाया गया होता तो आज शिक्षा के मामले में हम पिछड़े नहीं कहलाते। इसी के साथ सत्य यह भी है कि वर्तमान सरकार ने अब तक इस दिशा में ज्यादातर लीपापोती करने का ही काम किया है। इस अभियान का एक हिस्सा यह था कि शिक्षकों के प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की जाए और उन्हें केवल पठन-पाठन तथा विद्याॢथयों के चरित्र निर्माण के कार्य में ही लगाया जाए। हकीकत यह है कि उचित प्रशिक्षण तो दूर की बात है, शिक्षकों को आज भी ज्यादातर ऐसे कामों में उलझाए रखा जाता है जिनका पढ़ाने-लिखाने से कोई संबंध नहीं होता। 

शिक्षा का अधिकार कानून सम्मत तो बना दिया गया और उसके लिए सन् 2007 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने और सन् 2010 तक एलीमैंटरी शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया जो आज तक पूरा नहीं हुआ। इसी प्रकार 6-14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का लक्ष्य भी अधूरा ही है। वाजपेयी जी को शिक्षा के महत्व का एहसास अपने स्कूली जीवन में ही हो गया था, जब एक बार वह अपनी कक्षा में एक परीक्षा के दौरान पूरी तरह बोल नहीं पाए थे। कदाचित वह चाहते थे कि उन्होंने अपने छात्र जीवन में शिक्षा को लेकर जो कठिनाइयां झेली थीं वे आज की पीढ़ी को न झेलनी पड़ें। ‘पढ़े भारत बढ़े भारत’ और एक शिक्षित दूसरे अशिक्षित को शिक्षित बनाए, यह उनकी अनूठी पहल थी। उनके कार्यकाल में हजारों लोगों ने इस दिशा में पहल की लेकिन उनके बाद की सरकार ने शिक्षा की इतनी उपेक्षा की कि आज लगता है कि इस क्षेत्र में कुछ काम ही नहीं हुआ। 

व्यक्तित्व का विकास हो: सर्वशिक्षा अभियान का उद्देश्य यह था कि विद्यार्थियों को तोतारटंत न बनकर विश्लेषण कर सकने की योग्यता हासिल करनी चाहिए। उन्हें अपनी भी आलोचना करनी आनी चाहिए ताकि वे किसी भी विषय की गंभीरता को समझकर उसके अनुसार विद्याध्ययन करें। उनका कहना था कि जब तक विद्यार्थी जीवन से ही स्वयं के व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया शुरू नहीं होती, तब तक सशक्त और बुद्धिमान पीढ़ी का निर्माण नहीं हो सकता। एक उद्देश्य यह भी था कि शिक्षा ऐसी हो जो शिक्षा संस्थान से निकलते ही उन्हें रोजगार दे सके, उद्यमी बना सके और जीवनभर उनके अंदर सीखने की भावना को बलवती कर सके।
शिक्षा का माध्यम क्या हो, इसके प्रति भी सर्वशिक्षा अभियान में अटल जी की सोच झलकती है। उनका मानना था कि अपनी मातृभाषा में शिक्षित होकर ही जीवन के कर्मक्षेत्र में सफलतापूर्वक उतरा जा सकता है। 

आज स्थिति यह है कि विद्यार्थी अपनी नहीं, दूसरों की आलोचना करने में सिद्धहस्त हो रहे हैं। रोजगार के लिए केवल नौकरी पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किए रहते हैं। कांग्रेस जैसे पुराने राजनीतिक दल भी नौकरी को ही युवा वर्ग के लिए अंतिम पड़ाव समझाने में लगे रहते हैं। हालांकि युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने का कार्य वर्तमान सरकार स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रमों द्वारा करने का प्रयत्न कर रही है लेकिन क्या शिक्षा के दौरान विद्यार्थी को इतना कुशल बना दिया जाता है कि वह अपना रोजगार कर सके। जरूरी है कि उसमें यह निर्णय करने की क्षमता होनी चाहिए कि वह कौन-सा रोजगार करने के योग्य है और कौन-सा नहीं। जहां तक एजुकेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर की बात है, यह बहुत ही धीमी गति से तैयार किया जा रहा है। स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों की देश में बेहद कमी है। यह कितनी असम्मानजनक बात है कि गांव-देहात से लेकर छोटे कस्बों और कई शहरों तक आज भी पेड़ के नीचे या खुले मैदान में विद्यालय चल रहे हैं। 

हम इस बात पर गर्व करते नहीं थकते कि प्राचीन काल में तक्षशिला, नालंदा, प्रयाग जैसे स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशी लालायित रहते थे। आज की स्थिति क्या ऐसी है कि हमारे देश के बड़े से बड़े शिक्षा संस्थानों में विकसित देशों से आकर कोई विद्यार्थी पढऩे को उत्सुक हो? वास्तविकता यह है कि हमारे यहां समर्थ और धनवान युवा पीढ़ी दूसरे देशों में जाकर शिक्षित होने को प्राथमिकता देती है। इसका कारण उनमेंं देशभक्ति कम होना नहीं है बल्कि यह है कि भारत में पश्चिमी देशों के समान सुविधाएं नहीं हैं। हमारे यहां राष्ट्रवाद का अर्थ केवल विद्यार्थियों को एक सीमित दायरे में रहने की तरह समझाया जाता है और शिक्षा का दृष्टिकोण व्यापक व वैश्विक होने की बजाय स्थानीय और धार्मिक परम्पराओं के पोषण को ही मान लिया गया है। इससे विद्यार्थियों में कुछ नया करने की सोच ही आगे नहीं बढ़ पाती और वे कुएं के मेंढक की तरह सीमित दायरे में ही रहने में सुख अनुभव करते हैं। 

इसका परिणाम यह हुआ कि जहां शिक्षा का लक्ष्य सामाजिक असमानता को दूर करना था वह जातिगत आधार पर भेदभाव करने की तरफ मुड़ गया। आज शिक्षा गैर बराबरी को जन्म दे रही है। इसका उदाहरण यह है कि अमीर व्यक्ति तो अच्छी शिक्षा पा सकता है लेकिन गरीब उसके बारे में सोच भी नहीं सकता। वर्तमान सरकार से और विशेषकर हमारे डायनैमिक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से यह अपेक्षा की जा सकती है कि जिस प्रकार उन्होंने देश को स्वच्छता की सौगात दी है, इसके बाद वह इसी प्रकार अब देशवासियों को शिक्षित भारत का भी उपहार देंगे। प्रत्येक गांव में 12वीं तक की शिक्षा देने के लिए विद्यालयों का निर्माण लक्ष्य होना चाहिए। इसी प्रकार जिले में जनसंख्या के हिसाब से कालेजों और विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थान केवल साधन-सम्पन्न लोगों के लिए न होकर सामान्य वर्ग के लिए होने चाहिएं। 

एक बात और कि समाज में परिवर्तन तब ही आ सकता है जब क्वालिटी एजुकेशन सभी के लिए सुलभ हो। विकसित देश हमसे केवल इसलिए आगे नहीं हैं क्योंकि वे धनवान हैं बल्कि इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने शिक्षा में गुणवत्ता लाकर युवा पीढ़ी को इस योग्य बनाया कि वह विकासशील और अविकसित देशों के लिए प्रेरणास्त्रोत बने। शिक्षा का जब तक आधुनिकीकरण नहीं होगा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं पनपेगा, उसे व्यावहारिक नहीं बनाया जाएगा तब तक हम विकसित देशों से होड़ करने के योग्य नहीं बन पाएंगे।-पूरन चंद सरीन

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