कृषि कानून न लागू होंगे न वापस!

Edited By ,Updated: 14 Oct, 2021 03:35 AM

agricultural laws will neither apply nor return

लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को नई खाद दे दी है। यू.पी., उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा के लिए यह एक बुरी खबर है लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट सरकार को कोई खुशखबरी सुना सकती है? सवाल यह भी

लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को नई खाद दे दी है। यू.पी., उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा के लिए यह एक बुरी खबर है लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट सरकार को कोई खुशखबरी सुना सकती है? सवाल यह भी है कि क्या नए कृषि कानून सचमुच अमल में आ पाएंगे? क्या सरकार तीनों कानूनों में व्यापक संशोधन का कोई नया प्रस्ताव देगी और किसान क्या इस पर बातचीत की मेज पर आने के लिए तैयार हो जाएंगे? कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि नए कृषि कानून लागू नहीं होंगे लेकिन वापस भी नहीं होंगे। जब मोदी सरकार द्वारा बनाए तीनों कृषि कानूनों के अमल पर रोक है, स्टे है तो फिर क्यों धरना प्रदर्शन किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के गहरे मतलब निकाले जा रहे हैं।

किसानों और सरकार के बीच बातचीत का आखिरी दौर 23 जनवरी को हुआ था। यानी 9 महीनों से गतिरोध बना हुआ है और सरकार ने इसे तोडऩे की नई पहल भी नहीं की है। आखिर सरकार की मंशा क्या है? मोदी सरकार बार-बार कह रही है कि तीनों कृषि कानून वापस नहीं होंगे। इसके साथ ही किसानों से बातचीत का रास्ता भी खुला रखा गया है। उधर किसानों का कहना है कि तीनों कानून वापस हों और एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाया जाए। वहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित 3 सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट 19 मार्च को सौंप दी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक उस पर कोई फैसला नहीं लिया है। समिति के एक सदस्य अनिल घनावत का कहना है कि रिपोर्ट में व्यावहारिक हल सुझाए गए हैं जो किसान आंदोलन का समाधान निकालने की गुंजाइश रखते हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की है। 

हैरत की बात है कि न तो किसान और न ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से रिपोर्ट सांझा करने का आग्रह किया है। सरकार चाहे तो कोर्ट से कह सकती थी कि 10 महीनों से किसान धरने पर हैं और आम आदमी को तकलीफ हो रही है लिहाजा शीघ्र समाधान की कोशिश की जानी चाहिए। कोर्ट के सामने पंजाब का उदाहरण रख सकती थी कि सीमावर्ती राज्य होने के कारण पाकिस्तान वहां किसान समस्या का नाजायज फायदा उठाने के फेर में है, ड्रोन के जरिए हथियार भेज रहा है। नाराज युवक फिर हथियार उठा सकते हैं, खासतौर से लखीमपुर खीरी की घटना के बाद। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को बीच-बचाव करना चाहिए। लेकिन ऐसी कोई पहल नहीं की गई। जानकारों का कहना है कि कोर्ट चाहे तो इस रिपोर्ट के आधार पर अपनी कुछ सिफारिशें सामने रख सकती है जिस पर सरकार और किसान एक साथ बैठ कर किसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं। यानी कोर्ट संवाद का जरिया बन सकती है। 

किसान चाहते हैं कि 2024 तक, यानी अगले लोकसभा चुनाव तक नए कानून हाशिए पर ही रहें। ऐसा होता भी दिख रहा है। अगले 2 सालों में  यू.पी., गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब समेत 16 राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं और भाजपा राजनीतिक जोखिम उठाने से बच रही है। अब मान लीजिए कि 1 जनवरी, 2022 को डेढ़ साल तक कानूनों को ठंडे बस्ते में डालने की शर्त पर किसानों और सरकार के बीच समझौता होता है तो इसका मतलब यह हुआ कि जुलाई-अगस्त 2023 तक कानून लागू नहीं होंगे। उसके 3 महीने बाद राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे जो भाजपा के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

ऐसे में जाहिर है कि सरकार नए कानूनों पर अमल नहीं करेगी। उसके 3 महीने बाद लोकसभा चुनाव का समय हो जाएगा। यानी गई भैंस पानी में। लेकिन किसानों को बातचीत की मेज पर लेकर कौन आएगा? जो कानूनों की वापसी और एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाने पर अड़े  हुए हैं उन्हें कैसे समझाया जाएगा? कुछ जानकार कह रहे हैं कि कुछ रियायतों के साथ अगर कैप्टन अमरेन्द्र सिंह मध्यस्थता करें तो बात बन भी सकती है। 

यू.पी. के लखीमपुर खीरी में आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच 20 घंटों में ही समझौता हो गया और स्थिति खराब होने से बच गई। यह समझौता किसान नेता राकेश टिकैत के सहयोग से ही हो सका जिनकी सेवा का इस्तेमाल मुख्यमंत्री योगी ने किया। अब कहा जा रहा है कि अगर सरकार तीन नए कानूनों में से कार्पोरेट सैक्टर को जमीन लीज पर देने वाले अनुबंध को हटा देती है तो किसानों का बहुत बड़ा संशय दूर हो जाएगा। इसके साथ ही सरकार अगर डेढ़ की जगह 2 साल तक कानूनों पर स्टे लगा देती है तो सोने पर सुहागा। कैप्टन ने कुछ महीने पहले एक इंटरव्यू में कहा भी था कि स्टे अगर डेढ़ की जगह 2 साल का होता है तो काफी किसान संगठन धरना उठाने के लिए तैयार हो सकते हैं। 

किसानों को डर है कि सरकार एम.एस.पी. पर खरीद आगे चल कर बंद कर सकती है। अभी सरकार 23 कृषि जिंसों के लिए एम.एस.पी. तय करती है। वैसे भी सरकार कुल उपज का 23 फीसदी ही खरीदती है। एक सर्वे के अनुसार देश के 20 फीसदी से भी कम किसान एम.एस.पी. के बारे में जानते हैं। अब यहां रास्ता यह निकल सकता है कि सरकार लिख कर दे कि कभी भी एम.एस.पी. पिछले साल से कम नहीं होगी। इससे किसानों का मकसद हल हो जाएगा और सरकार को कानूनी अधिकार घोषित करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी।

इसके अलावा दूसरा तरीका यह हो सकता है कि नए कानून में जो इजाजत कृषि जिंस मंडी के बाहर खरीदने-बेचने की दी गई है वहां जरूरी कर दिया जाए कि एम.एस.पी. के नीचे खरीद नहीं होगी। पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की कांग्रेस ने अपने कृषि कानूनों में इस तरह का प्रावधान शामिल किया है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि  आज की तारीख में कहानी यह है कि कानून वापस नहीं होंगे लेकिन लागू भी नहीं होंगे। इस बीच सुप्रीम कोर्ट धरने और रिपोर्ट पर अपना कोई फैसला सुना दे तो कहानी का एंटी क्लाइमैक्स भी संभव है।-विजय विद्रोही
 

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