अब देश के संघीय ढांचे की मजबूती का उल्लेख नहीं करता अकाली दल

Edited By Pardeep,Updated: 11 May, 2018 03:00 AM

akali dal does not mention the countrys federal structure

जब शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने यह बयान दिया था कि ‘‘हिन्दुस्तान खत्म हो सकता है परन्तु अकाली दल और भाजपा का गठजोड़ नहीं टूट सकता।’’  तब बहुत से लोगों ने इसे हल्के स्तर की टिप्पणी कह कर टाल दिया था लेकिन यदि इस कथन की गहराई में...

जब शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने यह बयान दिया था कि ‘‘हिन्दुस्तान खत्म हो सकता है परन्तु अकाली दल और भाजपा का गठजोड़ नहीं टूट सकता।’’ 

तब बहुत से लोगों ने इसे हल्के स्तर की टिप्पणी कह कर टाल दिया था लेकिन यदि इस कथन की गहराई में झांका जाए तो इसके पीछे उस अकाली दल की मानसिकता के दर्शन होंगे, जिसने पंजाब के अंदर पहले आर.एस.एस. की राजनीतिक शाखा ‘जनसंघ’ के साथ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ के द्वारा देश और प्रदेश की राजसत्ता में हिस्सेदारी हासिल की। 

यह रुतबा अकाली दल जैसी एक धर्म आधारित क्षेत्रीय पार्टी के लिए अकेले दम पर हासिल करना मुश्किल था। शुरूआती दौर में बेशक इस तालमेल में अनेक राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक विभेदों ने कुछ कठिनाइयां पैदा कीं लेकिन जैसे-जैसे अकाली दल ने सिख अल्पसंख्यक भाईचारे के हितों की पहरेदारी के अपने दावे को तिलांजलि देनी शुरू कर दी और पंजाब के विशेष क्षेत्रीय हितों का परित्याग करके भाजपा की तरह ही बड़े पूंजीपतियों और सामंतों के वर्ग हित की रक्षा करते हुए केन्द्रीय तर्ज की सरकार के पक्ष में भुगतने का फैसला ले लिया तो इसे साम्प्रदायिक और फासिस्ट भाजपा के साथ मिलकर काम करने में भी कोई दिक्कत महसूस नहीं हो रही। अकाली नेता इस ‘उपलब्धि’ को पंजाबी लोगों और सिख अल्पसंख्यकों के हितों को ठेंगा दिखाने के बाद भी कायम रखना चाहते हैं।

अकाली दल की राजनीति के सदैव दो आयाम रहे हैं। बेशक मुख्य रूप में यह सिख धर्म के विचारों पर आधारित एक मजहबी पार्टी ही है। एक आयाम है, देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सेदारी तथा पंजाबी लोगों की धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक आकांक्षाओं और उमंगों का मुद्दई होने की रोशनी में संघीय ढांचे का समर्थक होना। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल के विरुद्ध लड़े गए मोर्चे में अकाली दल ने लोकतंत्र की रक्षा के पक्ष में नकारात्मक भूमिका अदा की। यह एक लोकतांत्रिक पैंतरा था, जिससे अकाली दल पंजाब के अंदर एक धार्मिक राजनीतिक संगठन होने के साथ-साथ मजबूत क्षेत्रीय पार्टी के रूप में उभरा था। इस छवि के पीछे सिख धर्म के मानवतावादी जीवन मूल्यों तथा अत्याचारों के विरुद्ध लडऩे के इसके गरिमापूर्ण इतिहास का भी उल्लेखनीय योगदान था और अकाली नेता खुद को इस शानदार इतिहास के इकलौते पक्षधर और अनुयायी के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। 

अकाली दल का दूसरा रूप स्वार्थी हितों से प्रेरित कुछ मजहबी और कट्टरपंथी लोगों ने सृजित किया है जिनकी मानसिकता सिख धर्म की प्रगतिवादी परम्पराओं और मान्यताओं के विपरीत शासक वर्ग की जागृतियों को अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रयुक्त करने की ओर प्रेरित करती है। नि:संदेह भाजपा के साथ राजनीतिक भागीदारी करने के कारण अकाली दल पर काबिज नेताओं की अपनी वर्गगत प्राथमिकताओं के कारण इसके जनवादी, प्रगतिवादी चरित्र का लगातार क्षरण होता गया और आज यह दल लुटेरा वर्गों की अन्य पार्टियों की तरह जन विरोधी आर्थिक विकास मॉडल का पक्षधर बन गया है। इस मानसिकता के कारण ही अकाली दल ने देश के अंदर फैडरल (संघीय) ढांचे का उल्लेख तक करना भी छोड़ दिया है।

इसके विपरीत अकाली नेताओं ने भाजपा द्वारा अपनाए जा रहे कदमों और गढ़े जा रहे कानूनों का समर्थन करना शुरू कर दिया है। ये कानून राज्यों के वित्तीय एवं राजनीतिक अधिकारों में सेंधमारी करते हैं और संघीय ढांचे का विरोध करते हैं। केन्द्र और पंजाब में भाजपा और अकाली दल की गठबंधन सरकारों के कार्यकाल दौरान चंडीगढ़ को पंजाब के हवाले करने, पंजाब से बाहर रह गए पंजाबी भाषी क्षेत्रों को पंजाब में शामिल करवाने, नदी जल के न्यायपूर्ण बंटवारे तथा हाइडल परियोजनाओं का नियंत्रण पंजाब को दिलाने के लिए आंदोलन तो दूर की बात, कभी इन बातों का उल्लेख तक नहीं किया गया। पंजाब और इसके पड़ोसी राज्यों में मातृभाषा पंजाबी को उचित स्थान दिलाने के मामले में अकाली दल का चरित्र और पहुंच पूरी तरह संवेदनाहीन बन गई है। 

1984 के दिल्ली दंगों में हजारों सिखों के नरसंहार तथा उनको उजाडऩे के दोषियों को सजा दिलाने और विस्थापित लोगों का पुनर्वास करने के लिए भी अकाली दल ने कभी आक्रोश और आवेश में आंसू तक नहीं बहाया। विपक्ष में बैठने के बाद अकाली नेताओं की खाली बयानबाजी भी अब जनसमूहों पर कोई खास असर नहीं करती। बच्चियों के साथ होने वाले बलात्कार की घटनाओं और दलितों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचारों के विषय में भी अकाली दल ने देश के अन्य प्रगतिवादी लोगों की तरह कभी डटकर आवाज बुलंद नहीं की। अकाली दल के अध्यक्ष द्वारा भाजपा के साथ संबंधों को ‘हाड़-मांस का रिश्ता’ बताना खोखला और हास्यास्पद लगता है। अब उन पंजाबियों और सिखों के लिए सोचने का समय आ गया है जो देश के समूचे हितों को बढ़ावा देने की उम्मीद में अकाली दल के अनुयायी या समर्थक बने हुए हैं।-मंगत राम पासला

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