ये यू.पी. के लड़के ही तो हैं!

Edited By ,Updated: 06 Feb, 2017 11:34 AM

akhilesh yadav rahul gandhi

पी के लड़के यानी कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव अपने सफेद कुर्ते पाजामे और काली जैकेट में ...

यू.पी के लड़के यानी कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव अपने सफेद कुर्ते पाजामे और काली जैकेट में साथ-साथ दिख रहे हैं। उनसे शायद यह कहा गया होगा कि वे एक जैसे कपड़ों, वेशभूषा में नजर आएं और लोगों के दिमाग पर छा जाएं, छप जाएं।  नारा भी है यूपी को यह साथ पसंद है। और यूपी के लड़के। जो भी हो जिस मैनेजमैंट कम्पनी ने यह नारा गढ़ा है सम्भवत  वह प्रशांत किशोर की टीम ही है, उसने लोगों और खास तौर से युवाओं की मानसिकता या साइकी को केंद्र में रखा है।

लड़के कहने में जो मधुरता और वात्सल्य छिपा है, उसका जवाब नहीं। लड़कपन और लरिकाई को यूपी में बहुत प्यार और रस से सराबोर करके बोला जाता है। लड़के कहते ही युवा तो साथ हो ही सकते हैं, उनके माता-पिता भी, क्योंकि बेटा चाहे साठ वर्ष का हो, नाती-पोते वाला हो, माता-पिता उसे लड़का ही पुकारते हैं। यही पुकारने में जैसे उन्हें सुख मिलता है। फिर लड़का कहने में कुछ खिलंदड़ापन , उमंग, उत्साह, जवानी का जोश, कुछ नया करने की ललक, धारा के विरुद्ध चलने का साहस और लम्बी रेस का घोड़ा होने का भाव भी छिपा हुआ है।

यही नहीं, इस नारे ने लड़के कहने के समय और आयु को भी बदल दिया है। एक समय में लड़के का मतलब था, शिशु या किशोर। जबकि अखिलेश और राहुल दोनों ही चवालीस-पैंतालीस के हैं। पहले तो तीस वर्ष का होते ही आदमी को प्रौढ़ के खाते में डाल दिया जाता था और उम्र के मैदान में लुढ़कती हुई गेंद बताया जाता था। कई साल पहले जब राहुल गांधी शायद उन्तालीस वर्ष के थे, तब उनके चचेरे भाई वरुण गांधी ने उन्हें युवा कहे जाने पर आपत्ति करते हुए कहा था कि राहुल भइया युवा नेता कहां हैं? वरुण प्रकारांतर से उन्हें प्रौढ़ और बुढ़ापे की राह पर बढऩे वाला कहना चाहते रहे होंगे।

लेकिन अब तो युवा से भी पहले पुकारे जाने वाले लड़के की आवाज चारों तरफ  है। यह एक तरह से  लोगों की नजरों में उम्र को पछाडऩे का खेल है। और पैराडाइम शिफ्ट भी। समय के साथ युवा की परिभाषाएं भी किस तरह से बदलती हैं कि कास्मैटिक सर्जरी और  सौंदर्य संबंधी चिकित्सा पद्धति से जुड़े विशेषज्ञ कई सालों से कह रहे हैं कि अब कल का सत्तर आज का पचास है। आजकल पचहत्तर साल तक की औरतों को भी अपने चेहरे और हाथों की झुर्रियां परेशान करती हैं। इन्हें हटवाने के लिए वे कास्मेटोलोजिस्ट की सहायता लेती हैं।

इसमें यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य की औसत आयु बढ़ गई है। पहले जहां साठ के आसपास ही आदमी खुद को जीवन से बाहर मान लेता था,  अब सत्तर और अस्सी साल तक के लोग कोई न कोई काम करना चाहते हैं। वे बुढ़ापे की लाठी से हांककर खुद को जीवन की गति से आसानी से  बाहर नहीं करते। इसके अलावा कहां तो तीस साल तक की उम्र में मां बनने को देर से मां बनना कहा जाता था, लेकिन अब आई वी एफ की मदद से औरतें पचास साल में ही नहीं, साठ पार करके भी मां बन रही हैं। बच्चों को पाकर खुश हो रही हैं और उन्हें पालने की जिम्मेदारी किसी युवा मां की तरह ही निभा रही हैं।

फिर बहुत से विज्ञापनों ने भी उम्र को खदेड़ने में महती भूमिका निभाई है। कहा जाने लगा है कि उम्र एक नम्बर भर है। हेयर कलर के विज्ञापन कहते हैं कि सफेद बाल देखते ही यदि आपको कोई अंकल-आंटी पुकारता है तो उन बालों को काला कर लीजिए फिर देखिए कि कल तक जो आपको अंकल-आंटी कहते थे, वे ही दीदी, भइया कहते नजर आएंगे। ऐसे में राहुल और अखिलेश को युवा पुकारने में कोई अतिशयोक्ति भी प्रतीत नहीं होती। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मोदी के अच्छे दिन आने वाले हैं- के नारे की तरह यह नारा-यू.पी. के लड़के- भी लोगों की जुबान पर चढ़ गया है।  

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      क्षमा शर्मा

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