एमनेस्टी : अंधेरे में एक ‘उजाले’ की तरह

Edited By ,Updated: 11 Oct, 2020 01:44 AM

amnesty like a  light  in the dark

क्या आप उस गौरव को याद करना चाहेंगे जिसके बारे में प्रधानमंत्री निरंतर ही भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने इन शब्दों का बार-बार उपयोग किया। विशेषण का कोई भी व्यक्ति खंडन नहीं कर सकता। निॢववाद रूप से यह...

क्या आप उस गौरव को याद करना चाहेंगे जिसके बारे में प्रधानमंत्री निरंतर ही भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं। प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने इन शब्दों का बार-बार उपयोग किया। विशेषण का कोई भी व्यक्ति खंडन नहीं कर सकता। निॢववाद रूप से यह सही है। हालांकि संज्ञा के बारे में सवाल किए जा सकते हैं। भारत में लगातार चुनाव आयोजित होते हैं तथा बार-बार सरकारें भी बदलती हैं। हमारा मानना है कि देश में एक स्वतंत्र न्यायपालिका है तथा यहां पर प्रैस स्वतंत्र तथा निडर है। मगर यह सब लोकतंत्र का बाहरी तामझाम है। दिल से इसे मानवाधिकारों के लिए सम्मान है। 

पिछले 6 वर्षों के दौरान बहुत कुछ घट चुका है जिसके बारे में इस लोकतांत्रिक सत्य के लिए सरकारी आदर हेतु सवाल किए गए हैं। एमनेस्टी इंटरनैशनल ने अक्सर ही ऊंचे स्वर में आवाज उठाई है। यह न केवल जम्मू-कश्मीर में कार्रवाई के बारे में या फिर दिल्ली के फरवरी के दंगों को पुलिस द्वारा निपटाए जाने के बारे में भी है। एमनेस्टी ने सुरक्षाबलों  की ज्यादतियों के बारे में भी आवाज उठाई है। मतभेद की आवाज को दबाने के लिए आतंक विरोधी तथा मानहानि कानून का इस्तेमाल किया गया। आर्म्ड फोर्सज, स्पैशल पावर फोर्सिज एक्ट, 1984 के सिख कत्लेआम पर भी आवाज उठाई गई है। सरकारी पक्ष में यह एक कांटे की तरह देखी गई। मगर यह भारत के लोगों की चैम्पियन भी मानी गई तथा यही कारण है कि इसने हमारा आभार जीता। 

अब मैं एमनेस्टी इंटरनैशनल के खिलाफ लगाए गए आरोपों की सच्चाई के ऊपर टिप्पणी नहीं करूंगा। इस पर आरोप है कि इसने भारत के कानून को बिगाड़ा तथा अस्पष्ट वजहों के अंतर्गत धन को प्राप्त किया। एमनेस्टी ने बड़ी कर्मठता से इस आरोप को नकार दिया। मोदी सरकार का कहना है कि उनकी पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार को एमनेस्टी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया गया। यह बात प्रमाणित करती है कि यह पक्षपात  या फिर राजनीति नहीं थी। एमनेस्टी पर आरोप है कि उसने जानबूझ कर भारतीय कानूनों की अवज्ञा की मगर उसका कहना है कि यह सब प्रतिशोध की भावना के चलते किया गया। सरकार एमनेस्टी के अनावरण से आग बबूला हो गई तथा इससे छुटकारा पाना चाहती है। 

अब मेरे पास एक साधारण-सा तर्क है। यदि हम एक तर्क के तौर पर यह मान लें कि एमनेस्टी इंटरनैशनल गलत है तो एक बुद्धिमान लोकतंत्र गौर से यह बात सोचेगा कि इसको कौन से कदम उठाने चाहिएं और क्यों? एमनेस्टी को चेताए जाने की जरूरत है मगर अमूल्य के तौर पर सजा देने के लिए द्वारों को बंद नहीं करना चाहिए। भारत के लिए यह अच्छा नहीं कि एमनेस्टी ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र से अपने आपको पीछे हटाने का निर्णय किया। इससे भारत उन अस्पष्ट देशों की कम्पनी में आ जाएगा जहां पर एमनेस्टी इंटरनैशनल पाकिस्तान और चीन की तरह कार्य नहीं कर सकती। अब हम उन से बेहतर दिखाई नहीं देते। 

अब मैं फिर से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की बात पर वापस आता हूं। हम में से बहुत से लोग जल्दबाजी में धोखा खाकर यह मान लेते हैं। बाकी के विश्व को हम यह जताना चाहते हैं कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। मगर क्या विश्व इस बात को मानेगा कि हमने एमनेस्टी के साथ निष्पक्ष तथा उचित ढंग से व्यवहार किया है? या फिर क्या वे लोग मानेंगे कि एमनेस्टी को इसलिए सजा दी गई है कि इसने भारतीय लोकतंत्र के बढ़ते खोखलेपन को निरंतर ही उजागर किया है। 

मानवाधिकारों के मुद्दे पर एमनेस्टी भारत सरकार से ऊपर होकर खड़ी है। मैं केवल मोदी सरकार का उल्लेख नहीं कर रहा बल्कि मैं तो इसके पूर्ववर्तियों की बात भी कर रहा हूं और विशेषकर भारत की पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बारे में। मैं मानता हूं कि एमनेस्टी में कुछ खामियां होंगी। इसके संस्थापक पीटर बैनन्सन ने संगठन से इस्तीफा दे दिया था और यह दावा किया गया था कि इसने ब्रिटिश विदेश कार्यालय तथा एम.आई.-6 में घुसपैठ की थी। इस बात में कुछ ही विश्वास करते हैं। 1977 में एमनेस्टी ने नोबेल शांति पुरस्कार जीता। इसे ‘अंधेरे में एक उजाला’ कहा गया है। 

अब वह उजाला हमारे जीवन में से दूर जा रहा है। ऐसा पहली बार 1948 में हुआ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या ने नव-निर्मित भारत से उसकी चेतना से वंचित कर दिया। एमनेस्टी के प्रस्थान का यह मतलब होगा कि  वह आवाज जो हमें निरंतर ही हमारे मूल्यों के घटने के बारे में बताती थी, शांत हो जाएगी। कई बार यह क्रुद्ध करने वाली आवाज थी मगर इसकी हमेशा जरूरत भी थी। तथ्य यह है कि इसका सुना जाना हमारे लोकतंत्र का आश्वस्त प्रमाण था। यदि हम और ज्यादा इसकी आवाज नहीं सुनेंगे तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने के सवाल पर हम चुप हो जाएंगे।-करण थापर
 

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