ए.एम.यू. परिसर में जिन्ना की तस्वीर होना कोई अचरज की बात नहीं

Edited By Pardeep,Updated: 16 May, 2018 03:12 AM

amu it is not surprising that jinnahs picture in the premises

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए.एम.यू.) महज एक शिक्षा का केन्द्र नहीं है। यह पाकिस्तान की मांग के आंदोलन में आगे की पंक्ति में रहा है और अभी भी इसका झुकाव उसी तरफ है, जो मिल्लत के लिए फायदेमंद समझा जाता है। ए.एम.यू. परिसर के सबसे प्रतिष्ठित कैनेडी...

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए.एम.यू.) महज एक शिक्षा का केन्द्र नहीं है। यह पाकिस्तान की मांग के आंदोलन में आगे की पंक्ति में रहा है और अभी भी इसका झुकाव उसी तरफ है, जो मिल्लत के लिए फायदेमंद समझा जाता है।

ए.एम.यू. परिसर के सबसे प्रतिष्ठित कैनेडी हॉल में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर होना कोई अचरज की बात नहीं है। यह देश के बंटवारे से पहले भी वहीं थी और इतने सालों के दौरान भी वहीं रही है। मेरे लिए अचरज की बात है कि यह 1 मई को गायब हो गई और 3 मई को फिर से आ गई। 

सच है कि यह भाजपा सदस्य की करतूत थी लेकिन यह असामान्य लगता है कि वह 2 दिनों के भीतर अपना कदम वापस ले लेता है और तस्वीर को फिर से वहीं रख देता है जहां वह बंटवारे के पहले से लटकी थी। शायद उसे भाजपा हाईकमान की ओर से डांट पड़ी, जो कर्नाटक विधानसभा चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने का प्रयास कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में विभिन्न रैलियों को संबोधित करते समय चुनावों को ध्यान में रखते हैं। कभी-कभार वह इस तरह की टिप्पणी भी कर देते हैं कि श्मशान में कब्रिस्तान की तरह बिजली क्यों नहीं दी गई है ताकि हिंदू मतदाताओं को आश्वस्त कर दिया जाए कि पार्टी हिंदू राष्ट्र के अपने दर्शन से अलग नहीं हुई है। 

बेशक हिंदुओं, जो भारत में 80 प्रतिशत हैं, का बहुमत उस ओर झुका है जिसे हिंदुत्व कहा जाता है लेकिन मैं नहीं सोचता कि यह लंबे समय तक टिकने वाली चीज है। हिंदू और मुसलमान सदियों से साथ रहते आए हैं। वे अभी बह रही हिंदुत्व की गर्म हवा के बावजूद इसी तरह साथ रहेंगे। अपने मिजाज से ही भारत एक विविधता वाला समाज है। यह ऐसा ही बना रहेगा, भले ही कभी-कभी वह हिंदुत्व की राह पर जाता दिखे। लेकिन हर समय खेल बिगाडऩे वाला समूह रहता है जो हर मायने रखने वाली बात के खिलाफ सिर्फ इसलिए रहता है कि उसे विरोध के लिए विरोध करना है। भारत-पाकिस्तान के संबंधों का ही उदाहरण लें। ऐसे तत्व हैं जो मेल-मिलाप के हर प्रयास को नकारने और दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों में मदद करने वाले कदमों को रोकने पर आमादा हैं। कुछ साल पहले, खुद पाकिस्तानियों ने लाहौर के शादमान चौक का नाम बदलने की पहल की और उनके इस व्यवहार की भारत में काफी सराहना हुई। वास्तव में चौक का नाम बदलने से इस विचार का जन्म हुआ कि बंटवारे से पहले के नायकों का सम्मान किया जाए। 

मुझे याद है कि कुछ साल पहले, मार्च में भगत सिंह का जन्मदिवस मनाने के बाद पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल अप्रैल में अमृतसर में जलियांवाला बाग की दुखद घटना, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शहीद हुए थे, को याद करने के एक कार्यक्रम में शरीक होने के लिए आया। इतना जोश पैदा हुआ कि उन सैनिकों को सलाम करने के लिए कार्यक्रम बनने लगा जो आजाद हिंद फौज और 1946 के नौसैनिकों के विद्रोह का हिस्सा थे। उस समय जब हिंदू और मुसलमान आपस में विभाजित थे, अंग्रेजों को दी गई इन दो चुनौतियों से यही पता चलता है कि जब तीसरे पक्ष की बात आती है, तो उसे रोकने के लिए दोनों साथ हो जाने को तैयार रहते हैं। 

पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना ने कमोबेश यही कहा था, जब वह लाहौर के गवर्नमैंट लॉ कालेज आए थे और मैं वहां एक छात्र था। मेरे इस सवाल के जवाब में कि अगर कोई तीसरी ताकत भारत पर हमला करे तो इस पर पाकिस्तान का क्या रवैया होगा, उन्होंने कहा था कि दुश्मन को पराजित करने के लिए पाकिस्तान के सैनिक भारत के सैनिकों की तरफ से लड़ेंगे। यह अलग बात है कि सैनिक तानाशाह जनरल मोहम्मद अयूब खान ने भारत को कोई मदद नहीं भेजी, जब 1962 में चीन की ओर से इस पर हमला हुआ। 

भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे, जब वह अंग्रेज शासकों से लड़ते हुए फांसी के तख्ते पर पहुंच गए थे। अपने प्राणों की आहुति देने और भारत को बंधन से मुक्त कराने की राजनीति के अलावा उनकी कोई राजनीति नहीं थी। मुझे इस बात पर बहुत अचरज हुआ कि शादमान चौक का नाम बदलने के खिलाफ 14 आवेदन दिए गए थे। यह वही गोल चक्कर था, जहां भगत सिंह तथा उनके 2 साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी देने के लिए तख्ते खड़़े किए गए थे। जिन्ना का नाम बंटवारे के साथ जोड़ा जाता है। क्या बंटवारे के लिए वह अकेले जिम्मेदार थे? मैंने जब 1990 के दशक की शुरूआत में अंतिम वायसराय लार्ड माऊंटबैटन से लंदन में उनके निवास पर बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली चाहते थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ सांझा रहे।

माऊंटबैटन ने इसकी कोशिश की लेकिन जिन्ना ने कहा कि वह भारतीय नेताओं पर भरोसा नहीं करते। उन्होंने कैबिनेट मिशन प्लान स्वीकार कर लिया था, जिसमें एक कमजोर केन्द्र की परिकल्पना की गई थी लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि सब कुछ संविधान सभा के फैसले पर निर्भर करता है जिसकी बैठक पहले से ही नई दिल्ली में चल रही है। वक्त गुजरने के साथ, दोनों पक्षों के बीच मतभेद बढ़ गए। मुस्लिम लीग ने 1940 में जब पाकिस्तान की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया तो यह दिखाई देने लगा था कि बंटवारे को टाला नहीं जा सकता। दोनों पक्ष वास्तविकता का सामना नहीं कर रहे थे, जब उन्होंने आबादी के हस्तांतरण के विचार को खारिज कर दिया। लोगों ने इसे खुद कर लिया, हिंदुओं और सिखों ने इस तरफ आकर और मुसलमानों ने दूसरी तरफ जाकर। बाकी इतिहास है। 

जिन्ना पाकिस्तान में उतने ही आदरणीय हैं जितने भारत में महात्मा गांधी। यह वक्त हिंदुओं को यह समझने का है कि बंटवारा मुसलमानों की मुक्ति के लिए था। यह 1947 की बात है। आज मुसलमानों की आबादी करीब 17 करोड़ है और वे भारत के मामलों में कोई मायने नहीं रखते। सच है कि उन्हें मतदान का अधिकार है और देश संविधान से चलता है जो एक व्यक्ति को एक वोट का अधिकार देता है। फैसला करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। बंटवारे से पहले मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जो कहा था, वह सच हो गया। उन्होंने चेताया था कि संख्या में कम होने से शायद वे असुरक्षित महसूस करें लेकिन वे गर्व से कह सकेंगे कि भारत उतना ही उनका है जितना हिंदुओं का। एक बार पाकिस्तान बन गया तो मुसलमानों से हिंदू कहेंगे कि उन्होंने अपना हिस्सा ले लिया है और उन्हें पाकिस्तान जाना चाहिए। 

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल बंटवारे के बाद देश को विविधता वाला बनाए रखने में सक्षम थे। लेकिन आज मजहब के आधार पर खींची गई रेखा की याद लोगों का पीछा कर रही है। भाजपा का महत्व बढ़ रहा है क्योंकि विविधतावाद कमजोर हो गया है। सैकुलरिज्म को मजबूत करने की जरूरत है ताकि देश में हर समुदाय और हर क्षेत्र महसूस करे कि देश के मामलों में वह बराबर है।-कुलदीप नैय्यर

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