‘राजधानी में अराजकता से किसानों की छवि खराब हुई’

Edited By ,Updated: 03 Feb, 2021 02:02 AM

anarchy in the capital tarnishes farmers image

हिंसा से कभी भी कोई भला नहीं होता है। देश की राजधानी में, वह भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर अभूतपूर्व अराजकता को देखकर यह बात दिमाग में आती है। एक आेर भारत राजपथ पर अपनी सेना के शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था तो दूसरी आेर किसानों की ट्रैक्टर रैली के कारण

हिंसा से कभी भी कोई भला नहीं होता है। देश की राजधानी में, वह भी गणतंत्र दिवस के अवसर पर अभूतपूर्व अराजकता को देखकर यह बात दिमाग में आती है। एक आेर भारत राजपथ पर अपनी सेना के शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था तो दूसरी आेर किसानों की ट्रैक्टर रैली के कारण दिल्ली की सड़कोंं पर उत्पात देखने को मिल रहा था। किसानों की ट्रैक्टर रैली अपने निर्धारित मार्ग से भटक गई। पुलिस ने इसे रोकने का प्रयास किया जिससे ङ्क्षहसा फैल गई तथा सुरक्षा बलों के साथ प्रदर्शनकारियों की हिंसक झड़पें हुईं, उन्होंने बसों में तोड़-फोड़ की, पुलिस की गाडिय़ों तथा सरकारी संपत्ति को नष्ट किया, लाल किले पर चढ़ाई की और लाल किले पर सिखों के धार्मिक झंडे निशान साहिब को लहराया। एक झटके में किसान हुड़दंगी बन गया और इससे सारा देश आहत और शर्मसार है। 

यह सच है कि 40 किसान संघों ने स्वयं को इस हिंसा तथा हिंसा करने वालों से दूर किया है किंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन घटनाआें से अब तक शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन की छवि खराब हुई है। देश के अन्नदाता पिछले दो माह से शांतिपूर्ण ढंग से दिल्ली की सीमाआें पर आंदोलन कर रहे हैं किंतु आज लगता है जनता की सहानुभूति उनके साथ नहीं रह गई है। आम आदमी का कहना है कि तीन विवादास्पद कृषि विधेयकों को लेकर उनकी आपत्तियां सही हो सकती हैं किंतु कानून को अपने हाथ में लेने, तलवार लहराने या लाल किले पर चढ़ाई करने, जिसे कि भारतीय संप्रभुता का प्रतीक माना जाता है, को कतई उचित नहीं माना जा सकता है। 

शायद किसानों को अपने आंदोलन को मिल रहे जन समर्थन से यह लगने लगा कि जनता उनके साथ है और उन्होंने सरकार पर अपनी मांगों को मनवाने के लिए अत्यधिक दबाव डाला किंतु वे अपने कार्यकत्र्ताआें पर अंकुश लगाने में विफल रहे। इस आंदोलन में शामिल 40 किसान संघों की पृष्ठभूमि अलग-अलग और विचारधारा भी अलग-अलग है। जनता की बड़ी भीड़ एकत्र करने से अव्यवस्था पैदा होने का खतरा रहता है और एेसे तत्वों को उत्पात मचाने की छूट दे दी गई। विधेयकों का विरोध करने और वार्ता द्वारा इस मुद्दे का समाधान करने से इंकार करने के चलते किसानों में हताशा पैदा हुई जिसके चलते यह उत्पात हुआ। 

पुलिस को भी यह समझना होगा कि उससे कहां गलती हुई है। पहले तो उसने टै्रक्टर रैली की अनुमति ही क्यों दी? क्या उसे किसानों की रैली का अंदाजा नहीं था? क्या उसे टै्रक्टर रैली में आने वाले किसानों की संख्या का अंदाजा नहीं था? खुफिया सूत्रों से पहले ही खबर मिल रही थी कि किसानों के बीच उत्पात करने वाले तत्व घुस गए हैं और वे हिंसा फैला सकते हैं। पुलिस ने पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए और किसानों को रोकने की तैयारी क्यों नहीं की तथा राजनीतिक आकाआें को चेतावनी क्यों नहीं दी? या पुलिस ने किसानों को खुश करने के लिए जानबूझकर अपने राजनीतिक आकाआें की बात को स्वीकार किया। 

नि:संदेह सरकार ने पहले किसान आंदोलन को नजरअंदाज किया फिर उनकी मांगों को नजरअंदाज कर कठोर रुख दिखाने का प्रयास किया तथा उन्हें देशद्रोही तथा खालिस्तानी कहा। फिर धैर्य दिखाया और किसानों की अनेक मांगों को स्वीकार करने की इच्छा जताई तथा इन कानूनों में संशोधन की पेशकश की और किसानों को यह समझाने का भी प्रयास किया कि इन सुधारों से वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। सरकार द्वारा 18 माह तक इन कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगने की पेशकश करने और इस मुद्दे के परस्पर सहमत समाधान की दिशा में कार्य करने की पेशकश के बावजूद यह मुद्दा सरकार की पेशकश और किसानों द्वारा इन कानूनों को रद्द करने की मांग के बीच फंसा रहा। दोनों में अविश्वास बना रहा। 

गणतंत्र दिवस के दिन किसानों के उत्पात के कारण किसान बैकफुट पर आ गए थे और अब सरकार को उन पर आरोप लगाने के बजाय बड़ा दिल दिखाना चाहिए था और उनके साथ नरमी से व्यवहार करना चाहिए था। उसे किसानों के पास जाकर उनका विश्वास जीतना चाहिए था साथ ही उसे संसद के वर्तमान बजट सत्र का उपयोग विपक्ष के साथ गतिरोध को समाप्त करने तथा इन कानूनों पर गहन चर्चा के लिए करना चाहिए था ताकि आगे बढ़ सके। 

कृषि सुधार संपूर्ण देश से संबंधित है। वे भाजपा या किसी और विशेष पार्टी से संबंधित नहीं हैं। विभिन्न पार्टियां और उनके नेता जैसे राहुल गांधी, पवार, ममता, अखिलेश आदि ने किसानों के कंधे पर सवार होने का असफल प्रयास किया। उन्हें भी यह समझना होगा कि किसानों ने उन्हें भी अस्वीकार कर दिया है क्योंकि वे नहीं चाहते कि राजनेताआें द्वारा किसानों का उपयोग किया जाए या राजनेताआें को उनका एजैंडा चलाने में मदद करे। या मोदी सरकार के साथ हिसाब करने के लिए उनके आंदोलन का उपयोग किया जाए। 

नि:संदेह विरोध प्रदर्शन एक मौलिक अधिकार है। यह एक तरह से सरकार को यह चेतावनी देना है कि जनता को क्या स्वीकार्य है और क्या स्वीकार्य नहीं है। किंतु अपने रुख पर ही अड़े रहना अनुचित है क्योंकि कोई भी विधानमंडल या संसद की कानून बनाने की शक्ति नहीं छीन सकता है। इससे भविष्य के लिए गलत पूर्वोद्दाहरण स्थापित होंगे। किसानों को भी लचीला रुख दिखाना चाहिए तथा सत्तारूढ़ दल को भी यह समझना होगा कि उसकी सरकार के विरुद्ध किसी भी विरोध प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन करने वालों को देश विरोधी नहीं कहा जा सकता है। कोई भी आंदोलन सफल नहीं हो सकता यदि वह भारतीय राज्य के साथ टकराव पर उतारू हो जाए। इस मुद्दे के सही समाधान का दायित्व दोनों पक्षों पर है।-पूनम आई. कौशिश     
 

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