और कितनी ‘निर्भया’ बनेंगी दुष्कर्म का शिकार

Edited By Pardeep,Updated: 06 Jul, 2018 03:51 AM

and how fearless will become victim of rape

केवल 6 वर्ष ही तो बीते हैं जब निर्भया कांड से पूरा देश गुस्से में था। अब गुस्से का कारण मंदसौर कांड बन गया है। मंदसौर की आग बुझती उससे ठीक 4 दिन बाद मध्य प्रदेश के ही सतना के परसमनिया गांव में दुष्कर्म की शिकार 4 साल की बालिका गम्भीर हालत में मिली,...

केवल 6 वर्ष ही तो बीते हैं जब निर्भया कांड से पूरा देश गुस्से में था। अब गुस्से का कारण मंदसौर कांड बन गया है। मंदसौर की आग बुझती उससे ठीक 4 दिन बाद मध्य प्रदेश के ही सतना के परसमनिया गांव में दुष्कर्म की शिकार 4 साल की बालिका गम्भीर हालत में मिली, जिसे एयरलिफ्ट कर 3 जुलाई को एम्स दिल्ली में भर्ती कराया गया। दोनों मामलों में पीड़िताएं सूनी जगहों पर मरणासन्न हालत में मिलीं। 

दोनों घटनाओं के तीनों आरोपी 20 से 25 साल के आवारा तथा नशे की लत के शिकार नौजवान हैं। यकीनन ये समाज से अलग-थलग होंगे, इस कारण भी भय मुक्त होंगे। सोशल थैरेपी की कमी भी डिप्रैशन या कुंठित मानसिकता के शिकार ऐसे अपराधियों को बढ़ावा देती है जिससे गंभीरता को समझते और जानते हुए भी कई बार लचर कानून और सजा का भय न होना भी ऐसी घटनाओं के कारण बनते हैं। अगर आंकड़ों को देखें तो बेहद चौंकाते हैं। 2017 में ही 19000 से ज्यादा रेप के मामले हुए जबकि बीते 5 वर्षों में बच्चों से दुष्कर्म के मामलों में 151 फीसदी बढ़ौतरी हुई है यानी हर दिन करीब 55 बच्चे दुष्कर्म के शिकार होते हैं। यह वह हकीकत है जो पुलिस तक पहुंचती है परन्तु ऐसे मामलों का कोई हिसाब नहीं है, जिनमें मासूमों ने छेड़छाड़ तथा बलात्कार से जुड़ी मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा को सहा और मजबूरन उन्हें चुप रहना पड़ा या डराकर नहीं तो पैसों के बल पर चुप करवा दिया गया। 

राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश के नौनिहालों की सुरक्षा की हालत बेहद खस्ता है। 2010 में दर्ज 5,484 बलात्कार के मामलों की संख्या बढ़कर 2014 में 13,766 हो गई थी। संसद में पेश आंकड़े बेहद चौंकाते हैं। अक्तूबर 2014 तक पोक्सो के तहत दर्ज 6,816 एफ.आई.आर. में से केवल 166 को ही सजा हो सकी है, जबकि 389 मामलों में लोग बरी कर दिए गए, जो 2.4 प्रतिशत से भी कम है। इसी तरह 2014 तक 5 साल से दर्ज मामलों में 83 फीसदी लंबित थे, जिनमें से 95 फीसदी पोक्सो के और 88 फीसदी बच्चियों के ‘‘लाज भंग’’ यानी बलात्कार के थे। भारतीय दंड संहिता की धारा 354 के तहत महिला की ‘‘लाज भंग’’ के इरादे से किए गए हमले के 11,335 मामले दर्ज किए गए। 

यदि कानून की कमी को दोष दें तो धीमी न्याय प्रक्रिया और सबूतों की मजबूती के तर्क पर कई बार बच जाने वाले जघन्य अपराधों के दोषियों की हरकतें भी नए अपराधों में छिपी होती हैं लेकिन सवाल फिर वही कि इससे निपटा कैसे जाए? कौन इसके लिए पहल करेगा, किस तरह से तैयारी करनी होगी और तैयारी के बाद अमल में कैसे लाया जाए? लेकिन आज हकीकत ठीक उसके उलट है। घटना घटने के बाद गुस्सा स्वाभाविक है लेकिन राजनीतिक रोटी का सेंका जाना जरूर सवालिया है। 

देखा भी गया है कि ऐसी घटनाओं में राजनीतिकरण के आवरण में असली दर्द छिप जाता है और मरहम की बजाय मातमपुरसी का दौर चल पड़ता है। हालांकि केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने इसी 21 अप्रैल को 12 साल से कम उम्र के बच्चों से दुष्कर्म के दोषियों को अदालतों द्वारा मौत की सजा देने संबंधी एक अध्यादेश को मंजूरी दे दी लेकिन फिर भी घटनाएं हैं कि थम नहीं रही हैं। निर्भया कांड के बाद 2013-14 में निर्भया फंड बनाया गया। सरकार ने 1000 करोड़ रुपए से शुरूआत की। 2014-15 में इसमें फिर 1000 करोड़ और डाले। 2015-16 में कुछ नहीं दिया जबकि 2016-17 में रकम घटाकर 550 करोड़ कर दी गई। केवल 2016 में महज 191 करोड़ रुपए खर्चे गए जबकि 2017-18 में इसमें 550 करोड़ रुपए और इस साल 500 करोड़ और डाले गए। 

इस तरह कुल मिलाकर यह फंड 3409 करोड़ रुपए का हो गया जिसका कोई इस्तेमाल नहीं किया गया जबकि इससे पूरे देश में 660 ‘‘उज्ज्वला वन स्टाप सैंटर’’ बनने थे, जिनमें पीड़ितों का इलाज भी हो, चप्पे-चप्पे पर सी.सी.टी.वी. लगें, उन्हें कानूनी और आर्थिक मदद मिले और पहचान भी छुपी रहे। लेकिन हकीकत उलट है। आम लोगों को इस बारे में पता तक नहीं कि कितने सैंटर कहां-कहां हैं! सुप्रीम कोर्ट भी इस पर केन्द्र व सभी राज्यों से पूछ चुका है कि निर्भया फंड का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा है? नोडल अथॉरिटी के रूप में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय महिला उत्थान व सुरक्षा के लिए खर्च की छूट के बावजूद केवल 600 करोड़ खर्चने और 2400 करोड़ बचे रहने का ठोस जवाब नहीं दे पाया। 

चाहे दिल्ली, मंदसौर, सतना सहित न जाने कितनी अनाम निर्भया हों या मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग हो जो सहकर्मी की यौन प्रताडऩा से बचने की खातिर उसके गुस्से का ऐसा शिकार हुई कि 23 नवम्बर, 1973 को कोमा में पहुंचने के बाद 19 मई, 2015 को मौत होने तक लगातार 42 साल रोज मरकर भी जिन्दा रही। ऐसे अपराधों को रोकने के लिए फंड तो है लेकिन बेहद कठोर कानून, फास्ट ट्रैक अदालतें उससे भी जरूरी हैं ताकि यौन तथा बाल अपराधियों पर लगाम लग सके, अपराधियों में खौफ  पैदा हो वरना यह सवाल बना ही रहेगा कि और कितनी निर्भया?-ऋतुपर्ण दवे

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