‘अहंकार से जन्मा क्रोध जीवन के सभी रसों का नाश कर देता है’

Edited By ,Updated: 13 Mar, 2021 03:19 AM

anger born of ego destroys all the juices of life

जहां एक आेर शरीर पंच तत्वों से बना है वहां हमारा मन और हृदय अनेक भावों के वशीभूत होकर संचालित होता है। बुद्धि और विवेक से जुड़े ये भाव हमसे अपने स्वरूप के अनुसार निर्णय कराते हैं और शरीर को उनके अच्छे या बुरे परिणाम झेलने पड़ते हैं ये सभी...

जहां एक आेर शरीर पंच तत्वों से बना है वहां हमारा मन और हृदय अनेक भावों के वशीभूत होकर संचालित होता है। बुद्धि और विवेक से जुड़े ये भाव हमसे अपने स्वरूप के अनुसार निर्णय कराते हैं और शरीर को उनके अच्छे या बुरे परिणाम झेलने पड़ते हैं।
ये सभी भाव विभिन्न रसों के रूप में हमारे मस्तिष्क, विचार और व्यवहार को नियंत्रित करते हैं और प्रेरक भी बनते हैं। हमारे शास्त्रों में इनका वर्णन शृंगार, करूणा, हास्य, वीर, अद्भुत, रौद्र, भय, वीभत्स और शांत के रूप में किया गया है। जिस प्रकार रक्त का प्रवाह मनुष्य को जीवित रखता है, उसी प्रकार इन रसों का संचरण हमारे चित्त को प्रसन्न, सुखी या दुखमय बनाता है। 

जीवन के रस और रंग : हमारा जीवन जब तक अनेक रसों से सराबोर रहता है तब तक हमें उनका आनंद मिलता है। सबसे श्रेष्ठ कहे गए रस शृंगार में सुंदरता की झलक तन और मन को प्रफुल्लित बनाए रखती है लेकिन जब इसका अभिमान हो जाए तो नतीजा कुरुपता में भी निकल सकता है। जीवन में जब तक अपने और दूसरों के प्रति करूणा का भाव रहता है तब तक मन में सेवा का भाव बना रहता है लेकिन जैसे ही दया का भाव उसमें मिल जाता है, उससे उत्पन्न घमंड सभी किए कराए पर पानी फेर देता है।

हास्य रस अर्थात स्वयं को हंसी खुशी रखने और दूसरों को अपनी उपस्थिति से आनंद का अनुभव कराने का नाम है। लेकिन जब इसका स्वरूप किसी की पीड़ा पर मुस्कुराने और मजा लेने का हो जाए तो इसका असर दूसरों का अपने प्रति नफरत का हो जाता है। जो व्यक्ति हंसता नहीं, वह हीन भावना का शिकार होकर अपने आप को ही दंड देता रहता है और उसकी हालत इतनी खराब हो जाती है कि उसके इलाज के लिए किसी मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ सकती है। 

वीरता अपने आप में श्रेष्ठ और सम्मान योग्य है और कहा भी गया है कि वीर ही पृथ्वी के सभी सुखों का उपभोग करते हैं। लेकिन यही वीरता जब किसी कमजोर को दबाने में इस्तेमाल की जाती है तो इसका स्वरूप आततायी का हो जाता है। एेसे व्यक्ति अपने लिए केवल घृणा का ही वातावरण छोड़ जाते हैं और कोई भी उन्हें आदरपूर्वक याद नहीं करता। संसार में बहुत-सी अदभुत वस्तुएं हैं और बहुत-सी चीजों के अस्तित्व की प्रक्रिया तक समझ नहीं आती। इन्हें कुदरत का करिश्मा कहकर संतोष कर लेते हैं। 

मनुष्य का स्वभाव इनसे छेड़छाड़ करने का हो तो इनका प्रकोप किसी विनाश लीला से कम नहीं होता। पर्वत, वन, नदी जल प्रवाह और इनसे निर्मित अनेक आश्चर्य हमारा मन मुग्ध करने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन जैसे ही मानव अपने स्वभाव के अनुसार इन पर अपना नियंत्रण करने की कोशिश करता है तो विनाश को ही जन्म देता है। इसी प्रकार रौद्र रस है जो क्रोध में बदल जाए तो सब कुछ भस्म करने के लिए पर्याप्त है। भय का संचार जहां संसार में निर्भय होकर जीने का संकेत देता है, वहां इसका विकृत रूप आतंक का पर्याय बन जाता है।

सबसे अंत में शांत रस आता है जो अगर मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाता है। मनुष्य को जीवन का अर्थ और इसका मूल्य समझ में आ जाता है। अपने से किसी का अहित न हो और कोई मेरा नुक्सान न कर सके, यह जब समझ में आने लगता है तब ही व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और संसार जीवंत हो पाता है, जीने लायक बन पाता है। अहंकार के स्थान पर गर्व की अनुभूति होती है तथा वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का जन्म होता है। मार्च का महीना वसंत ऋतु के आने का प्रतीक है जिसे ऋतुराज भी कहा जाता है। यह मनुष्य की कोमल भावनाआें का प्रतीक है। प्रकृति भी इन दिनों करवट लेती है और हरियाली तथा खुशहाली अपनी निराली छटा बिखेरती है जिससे मन और शरीर को सुकून और आराम का एहसास होता है। इसी कारण वर्ष में इस माह का सबसे अधिक महत्व माना गया है। 

हमारे जीवन में सभी रस तरह तरह के रंग भरते हैं और हम उनसे सराबोर होकर अपनी दिनचर्या तय करते हैं। जिंदगी जीने लायक बनती है और अकेले अपनी राह चलते हुए भी अकेलेपन का एहसास नहीं होता। लगता है कि आप भीड़ में अकेले नहीं हैं बल्कि सबके साथ चल रहे हैं। 

जीव और जीवन के शत्रु : जब अहंकार की यह भावना घर कर जाए कि मैं चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, किसी भी रूप में सर्वश्रेष्ठ, सर्वगुण संपन्न, शक्तिशाली और कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हूं तब जो सात गुण जीवन की डोर थामने के लिए बनाए गए हैं उनका अस्तित्व समाप्त होने लगता है। पवित्रता, शांति, स्नेह, प्रसन्नता, ज्ञान, शक्ति और गंभीरता के रूप में कहे गए ये सभी गुण समाप्त हो जाते हैं और अहंकार से जन्मा क्रोध जंगल की आग की भांति सब कुछ नष्ट करने हेतु अपने विकराल रूप में दिखाई देता है। क्रोध की आयु पानी में खींची गई एक लकीर से अधिक नहीं होती लेकिन इससे उत्पन्न हठ या जिद इतनी ताकतवर होती है कि एक क्षण में हमसे हिंसा, हत्या, आत्महत्या जैसे भयानक अपराधों से लेकर वह सब कुछ करा देती है जिसका परिणाम जीवन भर भुगतना पड़ सकता है। 

अचानक जैसे आंधी तूफान जैसा कुछ हो जाए, सब कुछ बिखरता हुआ सा लगे तो समझ लेना चाहिए कि केवल एक तत्व अहंकार और उससे जन्मा क्रोध तांडव कर रहा है  यह  एक पल में वह सब नष्ट करने की शक्ति रखता है जिसे हमने वर्षों की मेहनत से संजो कर रखा था और अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था। इसका स्वरूप इतना भयंकर हो सकता है कि जैसे मानो व्यक्ति, परिवार, समाज और देश तक नष्ट होने जा रहा हो। एेसा लगता है कि मन के पांच विकार काम, क्रोध, मद मोह, लोभ और अहंकार मनुष्य को अपनी चपेट में लेते जा रहे हैं और उसकी हालत अजगर की कुंडली की गिरफ्त में होने जैसी होती जा रही है जिससे बाहर निकलने की कोशिश का परिणाम अक्सर अपने अंत के रूप में ही निकलता है।-पूरन चंद सरीन
 

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