कार्पोरेटपरस्त व मेहनतकश विरोधी नीतियों से और ‘गहराएगा संकट’

Edited By ,Updated: 19 Oct, 2019 01:43 AM

anti corporate and pro working policies will deepen the crisis

साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के विपरीत, हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद में अर्थशास्त्र की कोई समझ निहित नहीं है। इसकी वजह बहुत आसान है। साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के केंद्र में औपनिवेशिक शोषण की एक समझ थी, जो उसकी अपनी खासियत थी। इसीलिए साम्राज्यवाद...

साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के विपरीत, हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद में अर्थशास्त्र की कोई समझ निहित नहीं है। इसकी वजह बहुत आसान है। साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के केंद्र में औपनिवेशिक शोषण की एक समझ थी, जो उसकी अपनी खासियत थी। इसीलिए साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शासकों और उनसे पहले के सभी शासकों में अंतर करता था।

वह इसे समझता था कि पहले के  सारे शासक भी किसानों का अतिरिक्त उत्पाद हड़पते थे और उसको घरेलू दायरे में ही खर्च करते थे और इसके जरिए रोजगार पैदा करते थे। इसके विपरीत, उपनिवेशवाद किसानों से अतिरिक्त उत्पाद हड़पता था और उसे विदेश भेज देता था, जो घरेलू रोजगार को नष्ट करता था। हिन्दुत्व इस बुनियादी अंतर को ही मिटाता और मुगलों व अंग्रेजों को एक ही पलड़े में तोलता है क्योंकि उसके साथ अर्थशास्त्र की कोई समझ ही नहीं जुड़ी है।

हिन्दुत्व में अर्थशास्त्र की समझ
विडम्बना यह है कि हिन्दुत्व में अर्थशास्त्र की समझ निहित न होना ही उसकी ताकत है। आज के दौर में, जब नवउदारवादी पूंजीवाद बेदम हो गया है, कार्पोरेट-वित्तीय कुलीनतंत्र, जो अब तक उस विचारधारात्मक सहारे का उपयोग करता आ रहा था, को उससे अलग यानी जी.डी.पी. में वृद्धि की ऊंची दर तथा उसके संभावित रूप से सर्वजन हितकारी प्रभाव के वायदे से अलग, कोई और विचारधारात्मक सहारा चाहिए। जी.डी.पी. वृद्धि दर के धीमे पडऩे के साथ, पहले वाला विचारधारात्मक सहारा नाकाफी हो जाता है। इन हालात में, शासन की नीति को इस कुलीनतंत्र के पक्ष में मोडऩे और इसके बावजूद, उसके खिलाफ वंचितों के बीच से कोई विद्रोह न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए विमर्श-बदलाव की जरूरत है। हिन्दुत्व यही विमर्श-बदलाव मुहैया कराता है। यही उस कार्पोरेट-हिन्दुत्व गठजोड़ के बनने का आधार है, जो इस समय हमारे देश में राज कर रहा है। 

अगर हिन्दुत्व के साथ अर्थव्यवस्था की कहीं ज्यादा समझ जुड़ी होती और अगर वह संकट पर काबू पाने के लिए आर्थिक निजाम के साथ वाकई कोई छेड़छाड़ करने जा रहा होता, तो कार्पोरेटों के लिए उसकी उपयोगिता सीमित ही होती। याद रहे कि यह संकट बुनियादी तौर पर नव-उदारवाद के अपने अंतर्विरोधों से ही पैदा हुआ है, हालांकि हिन्दुत्ववादी सरकार की नोटबंदी और जी.एस.टी. जैसी महाभूलों ने इस संकट को बहुत बढ़ा दिया है। कार्पोरेटों के लिए हिन्दुत्व की सीमित उपयोगिता के चलते, दोनों के गठजोड़ में दरार पड़ गई होती लेकिन आॢथक मामलों में हिन्दुत्व का अज्ञान कार्पोरेटों के साथ गठजोड़ के मामले में हिन्दुत्व के लिए काफी काम का साबित हुआ है और दोनों का गठजोड़ बदस्तूर कायम है। यह विमर्श-बदलाव, उपनिवेशवाद- विरोधी संघर्ष की विरासत में मिले विमर्श का बदलना था, जहां पहले वाले विमर्श में विभिन्न राजनीतिक पार्टियां, जनता के लिए राहत के अपने वायदों के आधार पर एक-दूसरे से होड़ करती थीं, अब उसकी जगह अति-राष्ट्रवाद ने ले ली है, जिसका उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद से कोई मेल ही नहीं है। 

विपक्ष बेदम हुआ
यह अति-राष्ट्रवाद बहुत हद तक जीवन की भौतिक जीवन दशाओं को परे खिसका कर ही चलता है। इस तरह का विमर्श-बदलाव, भारतीय राजनीति में इससे पहले कभी नहीं हुआ था। इसीलिए, विपक्ष उसके सामने बेदम हो गया है। वामपंथ, जो पुराने विमर्श के लिए प्रतिबद्ध है, सन्न रह गया है और अभी बस हरकत में आना शुरू कर रहा है। 

कांग्रेस यह तय ही नहीं कर पा रही है कि पुराने विमर्श को ही पकड़े रहे या ठिठक-ठिठक कर ही सही, हिन्दुत्व के अति-राष्ट्रवाद के नए विमर्श के पीछे चल पड़े। इस विमर्श-बदलाव का महत्व हाल के लोकसभा चुनाव में स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ था। चुनाव से पहले भाजपा की जमीन खिसक गई थी और एक प्रबल आंदोलन रूप ले रहा था, जिससे उसके सत्ता में बने रहने के लिए ही खतरा पैदा हो गया था, मगर बालाकोट के प्रहार ने अति-राष्ट्रवादी आख्यान को पुख्ता करते हुए उसे एक नया जीवनदान दे दिया। जिन किसानों ने चुनाव से ऐन पहले सरकार के खिलाफ दिल्ली तक मार्च किया था, बाद में उसी सरकार के जारी रहने के लिए वोट डाल आए। इस विमर्श-बदलाव की कार्पोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र के लिए उपादेयता ताजा घटनाक्रम से स्वत:स्पष्ट हो जाती है।

अनुच्छेद-370 और 35ए के व्यावहारिक मायनों में खत्म कर दिए जाने की ओट में, जो एक प्रकार से जम्मू-कश्मीर को बलात् कब्जाए जाने जैसा है और जिसने हिन्दुत्ववादी अति-राष्ट्रवाद की आग को भड़काया है, इस सरकार ने अर्थव्यवस्था के संकट पर काबू पाने के नाम पर, कार्पोरेटों को 1.45 लाख करोड़ रुपए की कर रियायतें पकड़ा दी हैं।

सार्वजनिक धन के इस तरह मुफ्त में कार्पोरेटों की जेब में डाले जाने के इस कदम से जिस तरह के विरोध की सामान्यत: उम्मीद की जा सकती थी, उसे भी कश्मीर में ‘जीत’ के हिन्दुत्ववादी अति-राष्ट्रवाद के शोर में दबा दिया गया है। यह सच्चाई, स्वत: स्पष्ट होने के बावजूद, प्राय: सामने आ ही नहीं पाई है कि इन कर रियायतों का अर्थव्यवस्था में गतिविधि के स्तर पर और इसलिए रोजगार और उत्पादक, दोनों पर नकारात्मक असर ही पडऩे जा रहा है। चूंकि इन कर रियायतों के लिए वित्त, राजकोषीय घाटे में बढ़ौतरी से नहीं आने वाला है क्योंकि ऐसा करने से तो विकृत वित्तीय पूंजी खफा हो जाएगी, जो सरकार को हरगिज मंजूर नहीं है, इसके लिए मेहनतकशों को ही और निचोड़ा जाएगा। 

देश के समक्ष दोहरा खतरा
बहरहाल, जब तक सरकार हिन्दुत्ववादी अति-राष्ट्रवाद को जिंदा रखने में कामयाब रहती है, वह अपनी आर्थिक गलतियों की ओर से लोगों का ध्यान बंटाती रह सकती है, किंतु इसमें देश के लिए दोहरा खतरा छुपा है। हिन्दुत्ववादी अति-राष्ट्रवाद की  ‘स्तब्ध और अभिभूत’ करने वाली महा-परियोजनाओं जैसे ‘एक देश, एक भाषा’ का अभियान या पूरे देश के लिए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर या नागरिकता संशोधन विधेयक से एक धर्मनिरपेक्ष-जनतांत्रिक समाज और राजनीतिक व्यवस्था के रूप में हमारे अस्तित्व के लिए ही बुनियादी खतरा पैदा हो जाने वाला है।

इसके साथ ही कार्पोरेटपरस्त और मेहनतकश विरोधी आर्थिक नीतियां, अर्थव्यवस्था को और गहरे संकट में घसीट ले जाएंगी। और चूंकि इस तरह की आर्थिक नीतियां ‘स्तब्ध और अभिभूत’ करने वाली परियोजनाओं को ही उत्प्रेरित करने जा रही हैं, हमारा देश तब तक उनकी भयानक द्वंद्वात्मकता में ही फंसा रहने जा रहा है, जब तक कि ज्वार ही नहीं पलट जाता है।-पी.पटनायक

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