Edited By ,Updated: 20 Jan, 2015 05:45 AM
जेहादियों को छोड़ दो। अब तो राजनीतिक असहिष्णुता का मौसम चल रहा है जहां पर किसी भी फिल्म, किताब या कलाकृति में हमारे नेताओं की सोच का मजाक उड़ाया जाता है या जो ...
(पूनम आई. कौशिश) जेहादियों को छोड़ दो। अब तो राजनीतिक असहिष्णुता का मौसम चल रहा है जहां पर किसी भी फिल्म, किताब या कलाकृति में हमारे नेताओं की सोच का मजाक उड़ाया जाता है या जो उनकी सोच के अनुरूप नहीं होते हैं उन पर न केवल प्रतिबंध लगाया जाता है अपितु प्रतिबंध लगाने के लिए तोडफ़ोड़, आगजनी भी की जाती है और ऐसी प्रत्येक कृति को देशद्रोह की श्रेणी में रखा जाता है तथा ऐसे लेखक, फिल्म निर्माता या अधिकारियों को प्रतिबंधित किया जाता है क्योंकि हमारे नेता संवेदनशील हैं।
पिछले 3 माह में ऐसी 3 घटनाएं देखने को आई हैं। सबसे पहले केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की अध्यक्ष लीला सैमसन ने यकायक त्यागपत्र दिया और इसका कारण उन्होंने राजग सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा अनेक फिल्मों पर निर्णय में जोर-जबरदस्ती या हस्तक्षेप करना बताया। इसमें आग में घी का कार्य आमिर खान की भगवान विरोधी फिल्म ‘पीके’ को हरी झंडी दिखाना तथा डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह (भाजपा समर्थक) की फिल्म ‘मैसेेंजर ऑफ गॉड’ में स्वयं को भगवान के रूप में दिखाए जाने के कारण हरी झंडी न दिखाना ने किया। भगवा संघ के बजरंग दल ने ‘पीके’ दिखाने वाले अनेक फिल्म थिएटरों में तोडफ़ोड़ तक कर डाली।
दूसरा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है कि इंटरनैट स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाए और उसने दर्जनों अंतर्राष्ट्रीय वैबसाइटों से मांग की है कि वे आक्रामक अर्थात हिन्दू विरोधी सामग्री को अपनी वैबसाइट से हटाएं। वह चाहता है कि स्कूलों, कालेजों, सिनेमा आदि में भारतीय वेशभूषा और नैतिक मूल्यों का पालन किया जाए तथा टी.वी. और सिनेमा में हिन्दू मूल्यों को प्रदर्शित किया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है कि फ्लिपकार्ट और अमेजन जैसी ई-बिक्री फर्मों पर प्रतिबंध लगाया जाए। उसका उद्देश्य ऐसे भारत को आगे बढ़ाना है जो उसके हिन्दुत्व के विजन के अनुसार हो।
तीसरा, कांग्रेस उस प्रकाशक को स्पेन के उस लेखक की किताब वापस लेने की धमकी दे रही है जिसने सोनिया गांधी की नाटकीय आत्मकथा ‘द रैड साड़ी’ को प्रकाशित किया क्योंकि इसमें यह लिखा गया है कि सोनिया किस प्रकार आपातकाल के दौरान अपने बच्चों के साथ इटली लौटने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही थीं क्योंकि पार्टी नहीं चाहती कि उन्हें एक इटलीवासी के रूप में प्रस्तुत किया जाए क्योंकि उन्होंने करोड़ों भारतीयों पर राज किया है।
इन सब घटनाओं से एक बार पुन: संविधान के अनुच्छेद 19 (1) पर बहस छिड़ गई है जिसमें नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। इससे एक प्रश्न उठता है कि क्या भारत राजनीतिक असहिष्णुता के युग की ओर बढ़ रहा है और हम लोगों पर हिन्दू मूल्यों को थोपा जाएगा? क्या हमारे राजनेता सार्वजनिक जीवन में विचारों के टकराव से घबराते हैं? क्या यह मात्र एक संयोग है या एक प्रतिक्रियावादी देश का संकेत है जहां पर यदि कोई व्यक्ति राजनेताओं के विचारों के प्रतिकूल विचार व्यक्त करता है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है या दंड दिया जाता है। ऐसा ही लगता है। यह बताता है कि हमारी राजनीतिक चर्चा का वातावरण कितना संकीर्ण हो गया है जहां पर मीडिया, कला, सिनेमा और सांस्कृतिक स्वतंत्रता को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है और उसे हमारे नेताओं के संकीर्ण उद्देश्यों को पूरा करने, उनकी छवि चमकाने तथा उनके मूल्यों और विचारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए गलत ढंग से पेश किया जा सकता है।
आज देश स्वंयभू उग्र राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुरातनपंथ की जकड़ में है जिसमें सैलिब्रिटी और फिल्म इनके निशाने पर हैं। चर्चा और विवेकपूर्ण निर्णयों का स्थान प्रतिक्रिया ले रही है तथा कोई भी लेखक, विचारक, इतिहासकार, समाजशास्त्री अपने अनुसंधान को तटस्थता से नहीं कर पा रहा है। सांस्कृतिक कट्टरपन आज हमारी गंदी राजनीति का मुखौटा बनता जा रहा है और हमारे राजनेता अपने हाथ गंदे किए बिना अपने उद्देश्य को पूरा कर रहे हैं। हमारे नेता आज चुटकुले, व्यंग्य, हास-परिहास को बुरा मान रहे हैं और इसके कारण सार्वजनिक बहस की गुणवत्ता घट रही है तथा वह निष्प्रभावी हो रही है।
फलत: ऐसी स्थिति बन गई है कि हमारे शासक आज मैं, मुझे और मेरा के सिंड्रोम से ग्रस्त हो गए हैं और उनकी एकमात्र चाह यह है कि जहां तक संभव हो वे सुर्खियों में रहें। जहां तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सवाल है, उस बारे में वे कोई लापरवाही नहीं करते हैं। वे अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए नैतिकता का शोर करते हैं और आम आदमी में मतभेद पैदा कर अपने हितों को साधते हैं जिसके कारण ये राजनेता व्यक्तिगत रूप से धनी व शक्तिशाली बनते जा रहे हैं किंतु भारत के लोगों में घृणा और हिंसा बढ़ती जा रही है।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। देश में पहले भी अनेक फिल्मों, किताबों और यहां तक कि कार्टूनों पर प्रतिबंध लगाया गया। अनेक कलाकारों को उस देश को छोडऩे के लिए बाध्य किया गया जिसे अपनी जन्मभूमि कहने पर उन्हें गर्व होता था और जो गांधी, बुद्ध व महावीर की जन्मस्थली रही है। यदि कोई किसी फिल्म को पसंद नहीं करता है तो वह भीड़ इकट्ठा कर उस थिएटर को जला देता है जहां पर वह फिल्म दिखाई जा रही है। यदि कोई किसी उपन्यासकार के उपन्यास को पसंद नहीं करता है तो वह सरकार से उस पर प्रतिबंध लगवा देता है या लेखक के विरुद्ध फतवा जारी करवा देता है।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं। आपको याद होगा कि कोलकाता में ममता ने कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को देशद्रोह के आरोप में गिरप्तार करवाया था। इसी तरह प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर के अंबेदकर के बारे में कार्टूनों को एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तक से हटाया गया। तमिलनाडु में प्रसिद्ध अभिनेता और फिल्म निर्देशक कमल हासन की 100 करोड़ रुपए की बजट की ‘विश्वरूपम’ पर प्रतिबंध लगाया गया क्योंकि इसमें आतंकवाद के मुद्दे को उठाया गया था और इसके लिए यह बहाना बनाया गया कि यह फिल्म मुसलमानों की भावनाओं को आहत करती है और इससे कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। हालंाकि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देशद्रोह कानून को आपत्तिजनक बताया था।
राजस्थान सरकार ने प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी के विरुद्ध अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई। उन्होंने यह विवादास्पद बयान दिया था कि ‘‘यह सच है कि अधिकतर भ्रष्ट अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के हैं और अब अनुसूचित जनजातियों में भी इनकी संख्या बढऩे लगी है।’’ आशीष नंदी ने यह बात 2013 में जयपुर लिटरेरी फैस्टीवल में कही थी। बसपा की मायावती और लोजपा के रामविलास पासवान ने नंदी को उच्चतम न्यायालय में जाने के लिए बाध्य किया जिसने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाई थी।
क्या ऐसे वातावरण में हम अपने नेताओं पर विश्वास कर सकते हैं? हमें स्वयंभू अभिभावकों की आवश्यकता नहीं है जो हमें यह बताएं कि हम क्या पढं़े, कौन-सी फिल्म देखें, कैसे कपड़े पहनें, क्या खाएं और क्या पीएं। हमें अपनी मर्जी के अनुसार पूजा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। हमें यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि हम किस भगवान में आस्था रखते हैं और किससे और कैसे प्यार करते हैं, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब भारत भी सऊदी अरब या उत्तरी कोरिया की तरह बन जाएगा जहां पर फिल्म निर्माण पर पूर्णत: रोक है और उन लोगों को दंडित किया जाता है जो नेताओं का उपहास उड़ाते हैं।
भारत की राह क्या होगी? हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि संपूर्ण विश्व के नेता उनके बारे में लिखी या प्रदर्शित बातों के बारे में कितने सहिष्णु हैं। विशेषकर पिछले सप्ताह पैरिस में व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो पर हुए आतंकवादी हमले के प्रति प्रतिक्रिया यह बता देती है। इस हमले पर सभी फ्रांसवासी एकजुट हुए और उन्होंने कहा हम डरते नहीं हैं। चार्ली हेब्दो अपना कार्य जारी रखे। राजनीतिक स्वतंत्रता का एक अनूठा उदाहरण इटली के अरबपति और रंगीले प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लूस्कोनी हैं जिनके बारे में प्रिंट और ऑनलाइन मीडिया में अनेक व्यंग्य छपे। अमरीका और ब्रिटेन में भी प्रशासन शासकों के बारे में ऐसे हास्य व्यंग्यों पर उदारता दर्शाता है।
जिस गति से हमारे देश में सहिष्णुता कम हो रही है वह एक चिंता का विषय है। हम यह भूल रहे हैं कि यदि किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित किया गया तो समुदाय की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगेगा। हमारे नेताओं को ऐसी संकीर्ण सोच छोडऩी होगी। हमारे विचारकों, कलाकारों, फिल्म निर्माताओं और बुद्धिजीवियों के अधिकार की हर कीमत पर रक्षा की जानी चाहिए। यह संदेश स्पष्ट रूप से दिया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति, समूह या संगठन हिंसा की धमकी नहीं दे सकता है और यदि वे ऐसा करते हैं तो वे अपने सुनवाई के लोकतांत्रिक अधिकार को खो देंगे। भारत ऐसे नेताओं के बिना भी कार्य कर सकता है जो राजनीति में विकृति लाते हैं और इस विकृति के माध्यम से लोकतंत्र को नष्ट करते हैं। क्या ऐसे नेता इन बातों पर ध्यान देंगे?