देश के विकास हेतु महिलाओं को ‘आगे आना होगा’

Edited By ,Updated: 26 Jan, 2015 01:20 AM

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सारा देश गणतंत्र दिवस समारोह के उत्साह से ओतप्रोत है। देशवासियों पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा का जादू भी चला है। नेतागण खुश हैं

(पूनम आई कौशिश): सारा देश गणतंत्र दिवस समारोह के उत्साह से ओतप्रोत है। देशवासियों पर अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा का जादू भी चला है। नेतागण खुश हैं और कम्पनियों के सी.ई.ओ. उत्साह से भरे हुए हैं तथा उन्हें 21वीं सदी की सांझीदारी से बहुत उम्मीदें हैं। किन्तु प्रधानमंत्री मोदी की साफगोई ने भारत के विरोधाभास का खुलासा किया है। उन्होंने कहा, ‘‘भारतीय सोच अभी भी 18वीं सदी की बालक-बालिका के बीच असमानता की मानसिक बीमारी में जकड़ी हुई है।’’  

प्रधानमंत्री मोदी ने इस  लैंगिक असंतुलन और बालिकाओं के साथ भेदभाव के मुद्दे पर बल देते हुए पिछले सप्ताह हरियाणा के पानीपत में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान शुरू किया। उन्होंने ऐसे राज्यों में इस अभियान की शुरूआत की जो लिंग अनुपात में गिरावट के लिए कुख्यात हैं जहां पर 1000  लड़कों पर 775 लड़कियां हैं और बालिका भ्रूण हत्या के मामले में भी यह राज्य सबसे आगे है। 

प्रधानमंत्री की यह चिंता समझी जा सकती है क्योंकि हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विश्व जनसंख्या निधि का एक चिंताजनक विश्लेषण सामने आया है जिसमें कहा गया है कि भारत में लैंंगिक असंतुलन सबसे अधिक है। यह अनुपात 1000 पुरुषों पर 914 महिलाओं तक पहुंच गया है और यहां प्रतिदिन 2000 बालिकाओं की हत्या की जाती है। देश में 70 गांव पहले ही ऐसे हैं जिनमें एक भी लड़की नहीं है जबकि कुछ गांवों में लैंगिक अनुपात 1000 पुरुषों पर 500 महिलाओं तक है। जनसंख्याविदों का कहना है कि किशोर लिंग अनुपात में गिरावट के कारण अगले20 वर्षों में लोगों को दुल्हन ढूंढना मुश्किल हो जाएगा। 

इसके अलावा देश में प्रति वर्ष जन्म लेने वाली 1.2 करोड़ लड़कियों में से 10 लाख लड़कियां अपना पहला जन्म दिन भी नहीं मना पाती हैं। यदि किसी लड़की को जिंदा रहने भी दिया जाता है तो उन्हें भी जिंदगी के अस्तित्व के भय और संकट से जूझना पड़ता है। इसके अलावा देश में प्रति वर्ष 3 करोड़ गर्भवती महिलाओं में से 136000 गर्भवती महिलाओं कीप्रसव के दौरान मृत्यु हो जाती है। बार-बार गर्भपात केकारण 10 में से 9 महिलाएं कुपोषण और रक्ताल्पता की शिकार हैं। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि लड़कियों को पराया धन और बोझा क्यों माना जाता है। 

गरीब परिवारों द्वारा पैसे के लिए किशोरियों को क्यों बेचा जाता है और उन्हें सैक्स की वस्तु क्यों माना जाता है? उन्हें पुरुषों के उन्माद और अहंकार को तुष्ट करने का साधन क्यों माना जाता है? क्या हमने पुरातनपंथी निर्ममता के समक्ष समर्पण करने का निर्णय कर लिया है? क्या हमने अपनी महिलाओं की इज्जत की रक्षा करने को गुड बाय कह दिया है? यही नहीं समाचारपत्रों में प्रतिदिन महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले सामने आते हैं  जिसमें 2, 4, 8 वर्ष तक की लड़कियों के साथ बलात्कार किया जाता है, चलती गाड़ी में किशोरियों के साथ बलात्कार किया जाता है। किशोरियों को गलियोंं से और कामकाजी महिलाओं को सड़कों से खींचकर कारों और टैक्सियों में उनके साथ बलात्कार किया जाता है। हाल ही में 150 सुरक्षित शहरों के बारे में कराए गए सर्वेक्षण में दिल्ली का स्थान 139 और मुम्बई का स्थान 126है। 

किसी भी गली, मोहल्ले, शहर या राज्य में चले जाओ आपको यही स्थिति देखने को मिलेगी। महिलाओं के साथ उत्पीड़ऩ, छेड़छाड़ और बलात्कार किया जाता है। ऐसा लगता है कि हमारे यहां यौवन राज चल रहा है और फिर भी हम अपने को सभ्य समाज कहते हैं। शायद इसका संबंध हमारे पितृ सत्तात्मक समाज से है। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा था कि लड़कियों को जींस और  भड़काऊ कपड़े नहीं पहनने चाहिएं अपितु उन्हें सलवार-कमीज पहनना चाहिए। उन्हें 2 बजे रात में घूमना नहीं चाहिए। इसी तरह कर्नाटक में श्रीराम सेना के प्रमुख के विरुद्ध पिंक चड्डी अभियान चलाना पड़ा जिनके  कार्यकत्र्ताओं ने 2009  में बेंगलूर के एक पब में लड़कियों पर इसलिए हमला किया कि वे परम्परागत भारतीय मानदंडों का उल्लंघन कर रही थीं तथा जो स्त्रियां इन बातों का विरोध करती हैं पुरुष नेता उन्हें डायन और चुड़ैल कहते हैं। 

स्पष्टत: हमारा समाज पुरुष सत्तात्मक है तथा यहां पर महिलाओं को कार्यस्थलों पर भी यौन उत्पीड़ऩ का सामना करना पड़ता है और वे चुप इसलिए रह जाती हैं कि कहीं उनका और उत्पीड़ऩ न हो और वे सुर्खियों में न रहें। कुछ महिलाएं इसलिए भी चुप रह जाती हैं कि कहीं उन्हें चरित्रहीन न कहा जाए किन्तु महिलाओं को नुक्सान हो ही जाता है। हमारा देश मेरा भारत महान और ब्रांड इंडिया पर गर्व करता है किन्तु महिलाओं और युवतियों को आज भी असुरक्षित वातावरण में रहना पड़ रहा है जहां पर उन्हें सैक्स की वस्तु, पुरुषों की काम लालसा को तुष्ट करने की वस्तु माना जाता है। कुछ लोगों का यहां तक कहना है कि पेशेवर क्षेत्र में प्रगति के लिए उन्हें गॉड फादर की आवश्यकता होती है जो उनके पेशेवर जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। अर्थात उन्हें या तो अपने गॉड फादर की बातों से समझौता करना पड़ता है अन्यथा हर स्तर पर उन्हें संघर्ष करना पड़ता है।

आज सर्वाधिाक यौन उत्पीड़ऩ फिल्म उद्योग में है। अभिनेत्रियों की शिकायत होती है कि उन्हें निर्माता-निर्देशकों के साथ हमबिस्तर  होना पड़ता है अन्यथा उन्हें फिल्म मिलना मुश्किल होता है। अभिनेत्रियों को न केवल अंग प्रदर्शन करने के लिए कहा जाता है अपितु शूटिंग के बाद निर्माता-निर्देशक और अभिनेता के घर जाने के लिए भी कहा जाता है। विज्ञापन जगत में एक सहयोगी का कहना है कि महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने पड़ते हैं जिनमें वे सैक्सी लगें। 

राजनीति में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं और उसकी स्थिति बॉलीवुड से बेहतर  नहीं है। हमारे राजनीतिक ईडन गार्डन में अनेक देशी एडम्स और ईव्स मिल जाएंगे। हमारे राजनेता लैग और पैग में मस्त रहते हैं। हमारा शासक वर्ग पर्दे के पीछे, चोली के नीचे में विश्वास करता है और कई बार उन्हें नंगा पकड़ा गया है। पिछले वर्ष मलयालम अभिनेत्री श्वेता मेनन ने कांग्रेस सांसद पीतांबर कुरूप पर आरोप लगाया कि उन्होंने गलत इरादों से उन्हें जकड़ा था। एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफाम्र्स के निष्कर्षों के अनुसार 2 सांसद तथा उत्तर प्रदेश के 8 विधायक और पश्चिम बंगाल के 7 विधायकों के विरुद्ध बलात्कार के गंभीर आरोप हैं। कुल 307 विधायकों ने स्वीकार किया है कि उन पर महिलाओं का शील भंग करने का आरोप है। 

आज यही स्थिति व्याप्त है। यदि मोदी और उनका राजग महिलाओं के उत्थान के बारे में इतना ही गंभीर है तो फिर उन्होंने शीर्ष स्तर से बदलाव शुरू क्यों नहीं किया? उन्होंने संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओ के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक पेश क्यों नहीं किया? 2010 में सोनिया गांधी के कड़े रुख के कारण राज्यसभा में यह विधेयक पारित हो गया था किन्तु हमारे पुरुष उग्रवादियों ने यह सुनिश्चित किया कि यह विधेयक ठंडे बस्ते में पड़ा रहे।

देखना यह है कि क्या महिलाओं के उत्थान का मोदी का वायदा केवल सांकेतिक बनकर रह जाएगा? लिंग असमानता के मामले में 134 देशों में 114वें स्थान पर रहने वाले भारत के लिए यह आवश्यक है कि हम पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अवसर प्रदान करें। सुशासन लिंग आधारित नहीं है। अब बड़ी चुनौती यह है कि इस संबंध में कदम उठाए जाएं, महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि उन तक लाभ वास्तव में पहुंचे। क्या हम एक नए महिला दौर की आशा कर सकते हैं? और यदि हां तो कब तक?  

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