बेटियों को आपके उपकार या समाज के ‘संरक्षण की जरूरत नहीं’

Edited By ,Updated: 02 Feb, 2015 04:13 AM

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अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन और दिल्ली के विधानसभा चुनाव की चर्चाओं के बीच जो एक बात बहुतों को छू गई, वह थी गणतंत्र दिवस की एक झांकी में लिखा संदेश ‘बधाई हो, बेटी हुई है।’

(तरुण विजय) अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन और दिल्ली के विधानसभा चुनाव की चर्चाओं के बीच जो एक बात बहुतों को छू गई, वह थी गणतंत्र दिवस की एक झांकी में लिखा संदेश ‘बधाई हो, बेटी हुई है।’ वैसे तो इसमें कुछ भी असामान्य या असाधारण महसूस नहीं होना चाहिए लेकिन इस एक पंक्ति ने चौंकाया क्यों? क्योंकि हमारे मानस में, अंत:स्थल में बहुत गहराई से एक बात पैठी हुई है कि बधाई की बात तो बेटे के जन्म लेने पर ही होती है, बेटी जन्मे तो चेहरा ठीक करते हुए कह दिया जाएगा कि चलो कोई बात नहीं, लक्ष्मी आई है। ईश्वर चाहेगा तो अगली बार बेटा होगा।

फिल्मों, नाटकों या आम मुहावरों की भाषा में कहीं भी बेटी के जन्मने पर बधाई की बात उत्साह और उमंग के साथ कहने का रिवाज ही नहीं है। ऐसी पंक्ति कानों ने शायद ही सुनी हो। जैसे पानी के लिए सरोवर, चढ़ाई के लिए पहाड़, यात्रा के लिए वाहन और आखिरी सांस के वक्त गंगाजल सुनने में आना सहज बात है, हमारे लिए स्वाभाविक शब्द हैं, वैसे ही बेटे के जन्म पर बधाई सुनना और कहना रूढ़ हो गया है। बेटी के जन्म पर यदि आप बधाई कहेंगे तो सुनने वाले मुंह बिचका कर हंस लेंगे या टिप्पणी करेंगे कि शायद किसी टैलीविजन विज्ञापन के लिए बोला जा रहा है। आम बोलचाल की भाषा में तो हमारे कान यही सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं कि ‘बेटी हुई, कोई बात नहीं है, बेटियां तो बेटों की तरह ही आगे बढ़ती हैं।’

दिक्कत यह है कि हमारी जिंदगी में राजनीतिक और मसालेदार खबरों का इतना प्रभुत्व हो गया है कि किसी बराक ओबामा या घरेलू नेताओं की एक-दूसरे के खिलाफ की गई घटिया बयानबाजी ही पहले पन्ने से लेकर संपादकीय पन्ने तक जगह घेरे रहती है। गणतंत्र दिवस पर भारत के जिस वीर कर्नल को अलंकृत किया गया, उसी वीर की अगले ही दिन शहादत कितने संपादकीय पन्नों पर नमन और श्रद्धांजलि का विषय बनी? कितने महारथी संपादकों ने कश्मीर की स्थिति और एक शहीद सैनिक की जीवन-यात्रा पर संवेदना के साथ कुछ लिखा? लिखा गया कि ओबामा ने शाहरुख की पंक्तियां बोलीं, भारतीय समाज के बारे में कुछ अच्छी बातें कीं, मिशेल ने क्या पोशाक पहनी और वह पोशाक किसने डिजाइन की थी।

क्या किसी ने कश्मीर में कर्नल की पत्नी का जिक्र किया? अगर इतना ही ओबामा-ओबामा करना था तो ओबामा और उनकी सरकार से अपने सैनिकों का सम्मान करना भी सीखना चाहिए। दुनिया में शहीद सैनिकों के सम्मान में जो राष्ट्रपति ओबामा का व्यवहार और आंसू भीगे शब्द होते हैं वे कृत्रिमता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय नेताओं के हृदय की भावना व्यक्त करते हैं। हाल ही में अमरीकी रक्षा मंत्री चक हेगल सेवानिवृत्त हुए तो उनके शब्द थे- ‘जीवन में यदि सबसे बड़ा कोई काम मुझसे हुआ तो वह था- अमरीकी सैनिक के रूप में बिताए गए वर्ष’। हम अपने देश में सैनिक के सम्मान के लिए प्रचंड पाखंड व्यक्त करते हैं- गीत में, संगीत और फिल्मों में लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और होती है, ठीक वैसे ही हम बेटियों के बारे में व्यवहार करते हैं।

‘बेटियां महान हैं।’ ‘हम धन के लिए लक्ष्मी, विद्या के लिए सरस्वती, शक्ति के लिए दुर्गा की उपासना करते हैं।’ ‘हमारे यहां कहा गया है कि- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता:।’ ‘हम तो मातृसत्तात्मक समाज हैं, मातृभूमि की वंदना करते हैं।’ ये सब अलंकारिक भाषा ओढ़े हुए जो भाषण देते हैं वही बेटियों को समाज में महत्वहीन बनाते हैं। अगर बेटियों के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में इतने ही महान विचार व्यक्त हुए हैं तो फिर सदियों तक बेटियों पर अत्याचार किसने किए? किसने कन्या भ्रूण हत्या को देश में बड़ा ‘मैडीकल बिजनैस’ बनाया? किसने बेटी के जन्म पर मायूस होने की परम्परा डाली?

बेटियों के बिना घर-परिवार बेरौनक होता है। परिवार की जो देखभाल और आत्मीय संबंध बेटियां कायम करती हैं बेटे नहीं, इस पर गणतंत्र दिवस में नारी शक्ति की मुख्य थीम पर भारत की बेटियों को गर्वोन्नत भाव से परेड का नेतृत्व करते देख हृदय गौरव से भर उठे थे।

यह ठीक है कि समाज में बेटियों के बारे में दृष्टि बदल रही है, शादी-ब्याह की पूजा से लेकर विमान चालन और सत्ता संचालन तक महिलाएं कर रही हैं लेकिन क्षमा करें, यह इसलिए नहीं हो रहा है कि समाज ने उनको बहुत बड़ा अवसर दिया, बल्कि इसलिए हो रहा है कि समाज की तमाम बाधाओं और उपेक्षाओं के बावजूद तमाम कंटकों को पार करते हुए बेटियों ने पुरुष प्रधान प्रभुता की दीवार तोडऩे का साहस दिखाया है। बेटियों ने अपने दम-खम, अपनी कुशलता व कुशाग्रता, अपनी निपुणता और बहादुरी के बल पर अपना नेतृत्व कायम किया और तब इस पुरुष अहंकारिता को लज्जित किया कि वह उनको अपने समकक्ष माने।

हमारे यहां ऐसे विद्वानों की कमी नहीं है जो पुराने शास्त्र और पुराणों की कथाओं का अंबार लगाते हुए गार्गी, मैत्रेयी और कडूडग़ी आदि का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि देखिए हम तो सदा इन सबका सम्मान ही करते आए हैं लेकिन वे कभी यह नहीं बता पाए कि हर बार क्यों जानकी को ही अकेले अपना दर्द भीतर समेटे हुए पृथ्वी के गर्भ में समा जाना होता है। ऐसे लोगों की संरक्षणवादी बातों को महत्वहीन ही मानना चाहिए।

बेटियों को उपकार या इन बड़े घमंडी समाजों के संरक्षण की आवश्यकता नहीं है। वे आगे बढऩे के लिए अवसर मांगने की मोहताज नहीं बनना चाहती हैं, बल्कि वे अपनी ताकत के बल पर अपना हक मांगती हैं, उनके बारे में कभी भी बात करते समय यह कहना छोड़ दीजिए कि हम उन्हें आगे बढऩे का अवसर दे रहे हैं या उनको भी हमारे बराबर आना चाहिए, यह कहने का हक किसने दिया आपको? बेटियां तो बेटियां ही रहें, वे अपने सोपान बनें, अपने क्षेत्र में अग्रता के नए शिखर बनाएं और ऐसा समाज रचें कि बेटों से कहा जाने लगे कि भाई तुम भी कुछ ऐसा करो कि बेटियों के बराबर चल सको। बेटा पैदा हो तो यह कहा जाने लगे कि कोई बात नहीं, भगवान ने चाहा तो अगली बार बेटी ही होगी। हमारे मुहावरे, छंद और गीत बेटी के पक्ष में उभरें तो नए भारत की तकदीर रची जा सकेगी।

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