Edited By ,Updated: 03 Feb, 2015 05:07 AM
दिल्ली विधानसभा का चुनाव बेहद दिलचस्प होता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भी चुनाव प्रचार मैदान में उतरने और केजरीवाल को सीधे चुनौती देने के बाद तो मुकाबला और ज्यादा कांटे का हो गया है। ...
(विजय विद्रोही) दिल्ली विधानसभा का चुनाव बेहद दिलचस्प होता जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भी चुनाव प्रचार मैदान में उतरने और केजरीवाल को सीधे चुनौती देने के बाद तो मुकाबला और ज्यादा कांटे का हो गया है। सवाल उठ रहे हैं कि यह चुनाव मोदी सरकार के 8 महीनों के कामकाज की भी परख करेंगे। केजरीवाल हारे तो आम आदमी पार्टी के खत्म होने की शुरूआत हो जाएगी। केजरीवाल जीते तो देश में राजनीति नए सिरे से उबलेगी। मोदी विरोधियों को मोदी से लडऩे की नई ताकत मिलेगी और मोदी सरकार को अपने आर्थिक सुधारों की दशा- दिशा में बदलाव करने ही पड़ेंगे।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर अरविन्द केजरीवाल के साथ दिल्ली की कौन-सी जनता है और वह जनता क्यों ‘प्रधान सेवक’ मोदी की बजाय आम आदमी केजरीवाल की तरफ खिंची हुई नजर आती है। आसान शब्दों में कहा जाए तो केजरीवाल अपने भाषणों में 4 बातों पर ही पूरा जोर देते हैं। वह सबसे पहले 49 दिनों के शासन के बाद इस्तीफा देने पर माफी मांगते हैं। वह कहते हैं कि गलती की है कोई गुनाह नहीं किया। आगे वह बिजली का बिल आधा करने का वायदा दोहराते हैं। पानी मुफ्त देने की बात करते हैं और याद दिलाते हैं कि किस तरह उन 49 दिनों में रिश्वतखोरी बंद हो गई थी।
ये बातें उस दिल्ली को प्रभावित करती हैं जो गरीब है, निचले तबके से आती है, झुग्गी-झोंपड़ी में रहती है और रोज कुआं खोदती और पानी पीती है। लेकिन केजरीवाल ये बातें यूं ही नहीं कह रहे। दरअसल उनके और अन्ना के आंदोलन के समय से ही दिल्ली का आम आदमी जुड़ा था जो भ्रष्टाचार से दुखी था, उसे सरकार से कोई उम्मीद नहीं बची थी, वह महंगाई से जूझ रहा था, बेरोजगारी से परेशान था, बच्चियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित था। आंदोलन खत्म हुआ, केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली लेकिन इस वर्ग को अपने से जोड़े रखा। उनकी सारी राजनीति भी इसी आम आदमी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई जो अब उसका वोट बैंक बन चुका था और 2013 के विधानसभा चुनाव में 28 सीटें भी दिलवा चुका था। केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवा चुका था।
साफ है कि केजरीवाल ने दिल्ली की जनसंख्या और उनकी आमदनी के आंकड़ों का गहन अध्ययन किया था। नैशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली के 1 करोड़ 30 लाख वोटरों में से 60 फीसदी जनसंख्या की आमदनी 15,000 रुपए से भी कम है। शर्मनाक है कि देश की राजधानी की 21 फीसदी आबादी की मासिक आमदनी 7,000 रुपए से कम है। इसी तरह 93 फीसदी आबादी महीने में 31,000 रुपए से कम कमाती है। अब इन आंकड़ों को अगर हम ए.बी.पी. न्यूज नील्सन के ताजातरीन त्वरित सर्वे से जोड़ कर देखें तो हमें पता चलता है कि क्यों केजरीवाल का घोषणापत्र गरीबों के प्रति समर्पित है और क्यों मोदी के रामलीला मैदान के भाषण में 20 बार से ज्यादा गरीब शब्द बोला गया था।
ए.बी.पी. न्यूज नील्सन का सर्वे बताता है कि दिल्ली में 5,000 रुपए महीना कमाने वाली जनता में से 53 प्रतिशत ‘आप’ को चाहते हैं, भाजपा के पक्ष में 40 फीसदी ही वोटर हैं। इसी तरह 5 से 15 हजार कमाने वालों में से 54 फीसदी की पहली पसंद ‘आप’ है। 15 से 30 हजार रुपए महीना कमाने वालों में से भी 47 फीसदी केजरीवाल के दल को वोट देने के इच्छुक हैं। अलबत्ता 50,000 रुपए महीने से ज्यादा कमाने वालों में से 51 फीसदी भाजपा के साथ हैं, यहां 44 फीसदी ही ‘आप’ को चाहते हैं।
अगर व्यक्तियों की बात की जाए तो 5,000 रुपए महीना कमाने वालों में से 55 प्रतिशत केजरीवाल को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं जबकि यहां किरण बेदी के पक्ष में सिर्फ 38 फीसदी ही हैं। अगर 5 से 15 हजार रुपए महीना कमाने वालों की बात की जाए तो यहां भी 55 फीसदी केजरीवाल को अपनी पहली पसंद बताते हैं। 15 से 30 हजार रुपए महीना कमाने वालों में से 48 प्रतिशत केजरीवाल तो 41 फीसदी किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। अलबत्ता 50,000 रुपए से ज्यादा कमाने वालों में से 51 फीसदी किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में चाहते है जबकि इस वर्ग के 44 फीसदी ही केजरीवाल को पहली पसंद बताते हैं।
कुल मिलाकर यह सर्वे बताता है कि कम आय वर्ग केजरीवाल के साथ है जबकि उच्च आय वर्ग भाजपा को चाहता है। पिछले विधानसभा चुनावों में दिल्ली की 66 फीसदी जनता ने वोट डाला था। अगर हम इस बार मान कर चलें कि 70 फीसदी लोग वोट का इस्तेमाल करेंगे तो कुल मिलाकर इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘आप’ को 47 और भाजपा को 44 फीसदी वोट मिल सकते हैं। 3 फीसदी वोटों का यह अंतर सीटों में कितना होता है यह देखना दिलचस्प होगा।
केजरीवाल जानते हैं कि पिछली बार जो उच्च मध्यम वर्ग उसके पास आया था वह अब मोदी के पास जाता दिख रहा है। कुल मिलाकर केजरीवाल की सारी उम्मीदें निचले दबके और मुस्लिम वोटों पर ही टिकी हैं। दिल्ली में करीब 10 ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम वोट 30 से लेकर 40 फीसदी या उससे ऊपर हैं। पिछली बार इन 10 में से ‘आप’ के हाथ 3 सीटें ही आई थीं। कहा जाता है कि उस समय मुस्लिमों को भरोसा नहीं था कि ‘आप’ के उम्मीदवार जीत भी सकते हैं लेकिन इस बार तस्वीर उलटी है। ‘आप’ उम्मीद कर रही है कि उसे 10 में से 8 तक सीटें मिल सकती हैं। हाल ही में सी.एस.डी.एस. के एक सर्वे में भी बताया गया था कि मुस्लिम बहुल सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम ‘आप’ को वोट देने के इच्छुक हैं। कुछ सीटों पर तो 70 फीसदी तक मुस्लिम केजरीवाल के साथ बताए जाते हैं।
‘आप’ अपने घोषणा पत्र में जहां झुग्गी वहीं मकान का वायदा कर रही है। ‘आप’ बिजली-पानी के अलावा कह रही है कि पुनर्वास कालोनी वालों को भी सिर्फ 10,000 रुपए में ही पट्टा दे दिया जाएगा। केजरीवाल जानते हैं कि दिल्ली में केन्द्र सरकार के साढ़े 3 लाख और दिल्ली सरकार के अढ़ाई लाख सरकारी कर्मचारी हैं। इसलिए वह कह रहे हैं कि रिटायरमैंट के बाद मकान देने की व्यवस्था करेंगे। रिटायरमैंट की उम्र 60 से घटाकर 58 वह नहीं करेंगे जैसा कि उनके अनुसार भाजपा करने जा रही है। केजरीवाल यहां तक कह रहे हैं कि मोदी सरकार 5 दिन की बजाय 6 दिन का सप्ताह करने जा रही है और वह उसका विरोध करते हैं। सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को ध्यान में रखते हुए उच्च शिक्षा के लिए कर्ज देने का वायदा कर रहे हैं।
केजरीवाल जानते हैं कि कांग्रेस का भी यही वोट बैंक है। लिहाजा कोशिश यही है कि इकतरफा वोट ‘आप’ को मिले। भाजपा भी जानती है कि इस वोट बैंक में या तो उसे तगड़ी सेंध लगानी होगी या फिर यह उम्मीद करनी होगी कि कांग्रेस का वोट बैंक कम न हो। यही वजह है कि भाजपा ने अपने चुनाव अभियान में बदलाव करते हुए गरीबों की बात करनी शुरू की है। दिल्ली को मुफ्त वाई-फाई देने की बजाय उसका भी जोर जहां झुग्गी वहीं मकान पर है।