Edited By ,Updated: 11 Feb, 2015 01:34 AM
आपातकाल में लोगों को दबा कर रखने वाले अपने शासन के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक ही अच्छा काम किया कि उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में सैकुलरिज्म और समाजवाद शब्द शामिल ...
(कुलदीप नैयर) आपातकाल में लोगों को दबा कर रखने वाले अपने शासन के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक ही अच्छा काम किया कि उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में सैकुलरिज्म और समाजवाद शब्द शामिल कर दिए। उनकी जगह लेने वाले मोरारजी देसाई ने संविधान में उनकी ओर से किए गए सभी बदलाव हटा दिए थे लेकिन प्रस्तावना में किए गए संशोधन को बनाए रखा।
भाजपा के पहले का अवतार जनसंघ जिसका जनता पार्टी में विलय हो चुका था, ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। जनसंघ के दोनों दिग्गज नेता, एल.के. अडवानी और अटल बिहारी वाजपेयी जो जनता पार्टी में शामिल हो गए थे, उन उत्साही नेताओं में से थे जिन्होंने संविधान की प्रस्तावना में सैकुलरिज्म और समाजवाद को बरकरार रखा।
यह स्पष्ट है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के विज्ञापन में इन शब्दों को हटाने का मतलब यह नहीं निकालना चाहिए कि सरकार ने जानबूझ कर ऐसा किया। मंत्रालय ने अपनी गलती मान ली है। मामला वहीं और उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था।
लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने इस विवाद को बनाए रखने की परिस्थिति बना दी। उन्होंने एक प्रैस कांफ्रैंस में कहा कि पुरानी प्रस्तावना ही वास्तविक है। लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेतली ने कहा है कि जिस पर चर्चा चल रही है वह प्रस्तावना का नया रूप है जिसमें सैकुलरिज्म और समाजवाद शब्द का उल्लेख छोड़ा हुआ है।
कानून और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मामले को और उलझा दिया जिन्होंने यह कहा कि सैकुलरिज्म और समाजवाद का उल्लेख नहीं होने से इस पर फिर से पूरी बहस करने का मौका मिल गया है। यह दुख की बात है कि कानून मंत्री संविधान की पवित्रता को ध्यान में रखे बगैर ऐसी बात कहे। यह और भी निंदा के काबिल है जब उनके जैसा उदार व्यक्ति ऐसी बात कहे। इन शब्दों को शामिल करते वक्त पूरी बहस हुई थी।
इस कहानी से एक ही अर्थ निकाला जा सकता है कि पार्टी का मार्गदर्शन करने वाला आर.एस.एस. सैकुलरिज्म और समाजवाद शब्द को निकालना चाहता है। कम से कम सैकुलरिज्म शब्द से उसे नफरत है। देशभर में गुस्सा पैदा होने के कारण भाजपा ने मामले को आगे नहीं बढ़ाया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जो सार्वजनिक तौर पर खामोश रहे, ने शायद पार्टी को सलाह दी कि सैकुलरिज्म और समाजवाद शब्दों को बाहर कर देने के लिए देश अभी तक तैयार नहीं हो पाया है। आर.एस.एस. इसे अपनी पराजय नहीं मान रहा है। शायद वह उसे पीछे की ओर हटना मान रहा है और परिस्थितियों के अनुकूल होने पर फिर से इस एजैंडे पर आएगा।
सच है, कांग्रेस को जनता का समर्थन घटने से सैकुलरिज्म को नुक्सान हुआ है क्योंकि विचारधारा के लिहाज से वह सैकुलर है। लेकिन पार्टी और विचारधारा एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। वास्तव में सैकुलरिज्म को इसलिए नुक्सान हुआ है किव्यवहार में कांग्रेस इससे दूर हट गई। सत्ता हासिल करने की दौड़ में पार्टी ने आदर्शों को किनारे रख दिया।
इस विचारधारा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी की प्रतिबद्धता को लेकर कभी भी संदेह नहीं था। लेकिन राज्यों के कई नेता ऐसे हैं जो वोट के लिए संकीर्ण विचार अपनाने से नहीं हिचकते। कहा जाता है कि वह नाखुश हैं, लेकिन उन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने से डरती हैं कि उनके बाहर हो जाने से पार्टी को ऐसी चोट पहुंच सकती है जो इसके जिन्दा रहने पर ही खतरा न पैदा कर दे।
पार्टी के नेता आनन्द शर्मा के अनुसार कांग्रेस जमीनी स्तर से सूचना इकट्ठा करने में जुटी है और शायद मार्च में अपनी रिपोर्ट लेकर आए। लेकिन पार्टी यह नहीं समझ पा रही है कि कार्यकत्र्ताओं से इसका सम्पर्क टूट चुका है। किसी भी तरह सत्ता हासिल करने की कोशिश में कांग्रेस के सैकुलरिज्म और समाजवाद के विचारों से दूर हट जाने के कारण कार्यकर्त्ताओं का मोहभंग हो चुका है।
महात्मा गांधी अभी भी प्रेरणा के स्रोत हैं। लेकिन भाजपा ने उन तत्वों को जगह दी है जो गोली मारकर गांधी जी की हत्या करने वाले नाथू राम गोडसे का स्मारक बनाना चाहते हैं ताकि उसे श्रद्धांजलि दे सकें। हाल तक उसका नाम कहीं दिखाई नहीं देता था। लेकिन कुछ समय पहले राजस्थान में अलवर के नजदीक एक पुलिया का नाम गोडसे के नाम पर रखने की कोशिश की गई। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों समेत दूसरे सैकुलर संगठनों को अपने कामकाज और कार्यक्रमों को लागू करने के तरीके पर विचार करना चाहिए क्योंकि गोडसे एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है जिससे हिन्दुत्व की बू आती है जिसके खिलाफ महात्मा गांधी ने जी जान से लड़ाई लड़ी।
जवाहर लाल नेहरू के जीवन काल में ही ‘समाजवाद’ शब्द की जगह ‘समाजवादी तरीके’ ने ले ली थी क्योंकि उन्हें महसूस हुआ कि इस विचारधारा को व्यवहार में लाना कठिन है। यह विचारधारा इतनी कमजोर हो गई है कि पब्लिक सैक्टर कम्पनियां जिन्हें अर्थव्यवस्था में सबसे ऊपर जगह देने की बात सोची गई थी, अब पीछे भेज दी गई हैं। इतने सालों में प्राइवेट सैक्टर को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की ओर से बढ़ावा दिया गया क्योंकि उद्योगपति चुनाव के लिए पैसा देते हैं। इस गठजोड़ को तोड़ा नहीं जा सकता जब तक धन की भूमिका को कम करने के लिए चुनाव सुधार नहीं होते।
लोगों का कल्याण समाजवाद पर निर्भर नहीं होता लेकिन बराबरी इसी पर निर्भर होती है। अगर उद्योग और व्यापार फैलता है तो कम से कम सम्पदा तो बढ़ेगी। लेकिन राजनीतिज्ञों और नौकरशाही के बीच का गठजोड़ तेज विकास नहीं होने देता। लालफीताशाही को तो जाने दीजिए, हर स्तर पर भ्रष्टाचार उस ऊर्जा को ही निचोड़ लेता है जिसे समाज को आगे बढ़ाने में लगाया जा सकता था।
साम्प्रदायिकता वास्तविक समस्या है। राष्ट्र की मजबूत प्रतिक्रिया ने ‘घर वापसी’ आन्दोलन को तो रोक दिया, ईसाई अभी भी निशाने पर हैं। लेकिन उनकी संख्या कम है और चुनाव में उनकी ज्यादा गिनती नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो ईसाइयों के पर्व को सुशासन दिवस के रूप में घोषित करने की हिम्मत सरकार की नहीं होती। जैसा कि दिल्ली के आर्कबिशप ने कहा, यह कदम नफरत फैलाने के अभियान का हिस्सा है।
देश में मुसलमान 15 प्रतिशत हैं। उन्हें उनका वाजिब हक नहीं मिला है, खासकर नौकरियों में। लेकिन किनारे धकेल दिए जाने की लगातार कोशिशों को रोके रखने में वे कामयाब रहे हैं। उनका वोट उन्हें इसकी गुंजाइश देता है। अगर वे धर्म के नाम पर मुस्लिमों को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे अकबरुद्दीन ओवैसी जैसे लोगों के हथकंडे का शिकार नहीं होते तो लोग यह महसूस करने लगेंगे कि सैकुलरिज्म के अलावा कोई उपाय नहीं है।
लेकिन राष्ट्र को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि इसे साम्प्रदायिकता से समझौते के लिए मजबूर किया जा रहा है जो आजादी के आंदोलन के विचारों के विपरीत है। हम में से कितने लोगों को याद है कि मौलाना अबुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें सरहदी गांधी कहा जाता था, मुस्लिम लीग की बेहद लोकप्रियता के दिनों में भी उसके खिलाफ डट कर खड़े रहे? वे समय से आगे देख सकते थे और आज के नेताओंके विपरीत उन्होंने अनेक संस्कृतियों और अनेक धर्मवाले समाज (जो असल में भारत है) को वापस लाने का सपना देखा था।