दिल्ली के नतीजे मोदी सरकार की ‘हनीमून अवधि’ समाप्त होने का संकेत

Edited By ,Updated: 15 Feb, 2015 04:13 AM

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दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का सफाया क्या क्षेत्रीय पार्टियों, खास तौर पर शिवसेना और अकाली दल के साथ इसके समीकरणों को बदल देगा? क्या भाजपा की सनसनीखेज पराजय मोदी सरकार की ...

(बी.के. चम) दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का सफाया क्या क्षेत्रीय पार्टियों, खास तौर पर शिवसेना और अकाली दल के साथ इसके समीकरणों को बदल देगा? क्या भाजपा की सनसनीखेज पराजय मोदी सरकार की ‘हनीमून अवधि’ की समाप्ति का संकेत है? दोनों ही प्रश्नों का उत्तर ‘हां’ है।

सहयोगियों के साथ भाजपा के बदल रहे समीकरणों का सर्वप्रथम संकेत महाराष्ट्र से मिला है। दिल्ली चुनाव के परिणामों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने व्यंग्यात्मक टिप्पणी की कि ‘‘दिल्ली की सुनामी मोदी लहर की तुलना में बहुत बड़ी है।’’ शिवसेना बहुत लंबे समय से भाजपा की गठबंधन सहयोगी है लेकिन स्पष्ट बहुमत हासिल करने में असफल रहने के बाद भाजपा ने मंत्रिमंडल गठन के दौरान जिस प्रकार सौदेबाजी की उससे दोनों दलों के रिश्तों में तनाव पैदा हो गया है।’’

‘मोदी लहर’ के बारे में ठाकरे की ताजातरीन टिप्पणी और महाराष्ट्र में सत्ता में कायम रहने हेतु भाजपा की शिवसेना पर निर्भरता वरिष्ठ सत्ता-सहयोगी की तुलना में शिवसेना की सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ा देगी। इससे दोनों सहयोगियों के बीच रिश्ते और भी तनावपूर्ण बन सकते हैं लेकिन राजनीतिक मजबूरियों के चलते कम से कम निकट भविष्य में शायद वे अपने रास्ते अलग करने की हद तक नहीं जाएंगे। सत्ता सुख का मजा ही कुछ ऐसा है कि मनमुटाव के बावजूद सहयोगी एकजुट हुए रहते हैं।

भाजपा और इसके दूसरे सबसे प्रमुख सहयोगी अकाली दल के बीच जटिल संबंध प्रत्येक चुनाव में दोनों पार्टियों की कारगुजारी के आधार पर बदलते आए हैं। 2007 के विधानसभा चुनाव में प्रकाश सिंह बादल-नीत अकाली दल बहुमत हासिल करने में असफल रहा और 16 विधायकों से अपनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि दर्ज करने वाली अपनी सहयोगी भाजपा के समर्थन से इसने सरकार बनाई, जिसमें भाजपा का सरकार के कामकाज में निर्णायक दखल था।

2012 के चुनाव में अकाली-भाजपा के गठबंधन ने अपेक्षा के विपरीत एक बार फिर बहुमत हासिल किया और सरकार गठित की। फिर भी भाजपा की विधायक संख्या का पूर्व चुनाव की तुलना में घट जाने के कारण वरिष्ठ सहयोगी के समक्ष इसकी सौदेबाजी की क्षमता कम हो गई। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में भाजपा सरकार के सत्तासीन होने के बाद पंजाब भाजपा ने दोबारा कड़े तेवर दिखाने शुरू कर दिए। कुछ प्रमुख भाजपा नेता तो उपमुख्यमंत्री व अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल की अधिनायकवादी कार्यशैली की आलोचना करते हुए यह आरोप लगाने लगे कि गृह मंत्री के रूप में उन्होंने पुलिस को अपनी पार्टी का एक राजनीतिक विंग बना कर रख दिया है।

प्रादेशिक सरकार में गठबंधन सहयोगियों की बदलती निर्णायक भूमिका के मद्देनजर उनके रिश्तों में तनाव पैदा हो गया है जिसके फलस्वरूप भाजपा नेताओं ने पार्टी पर अकाली दल से अलग होने का दबाव बनाना शुरू कर दिया।

मोदी नीत सरकार के व्यावहारिक रूप में दीवालिया हो चुके पंजाब को सहायता उपलब्ध करवाने में असफल रहने के कारण सत्तारूढ़ अकाली नेता निराश हो गए। उन्हें शिकायत है कि अरुण जेतली ने उन्हें ‘नोटों के ट्रक’ भरकर नहीं भेजे हैं जिनका उन्होंने अमृतसर लोकसभा सीट जीतने की स्थिति में वायदा किया था परन्तु जेतली यह सीट जीतने में सफल नहीं हो सके। दूसरी ओर मोदी सरकार राज्य सरकार पर यह दबाव बना रही है कि वह वित्तीय अनुशासन बनाए रखे। वित्तीय अनुशासन की कमी के चलते राज्य सरकार को दरपेश वित्तीय संकट और भी गहरा हो गया है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को जो चपत लगी है उसके फलस्वरूप पंजाब की गवर्नैंस में अकाली नेतृत्व का निश्चय ही एक बार फिर से पलड़ा भारी हो जाएगा। अपने-अपने हितों के टकराव के कारण पैदा हुए तनावों के बावजूद ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती कि प्रकाश सिंह बादल के जीते-जी सत्तारूढ़ गठबंधन सहयोगी अपने रास्ते अलग-अलग करेंगे। बादल ने तो यहां तक दावा किया है कि ‘‘दिल्ली विधानसभा चुनावों में मोदी की छवि को कोई आंच नहीं आई है।’’

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह अटल है। मोदी सरकार की हनीमून अवधि की समाप्ति के संकेत इसके सत्तारूढ़ होने के 3 माह के अंदर ही उभरने शुरू हो गए थे। ‘पंजाब केसरी’ में गत 29 अगस्त को प्रकाशित मेरे स्तंभ का एक अंश यहां प्रस्तुत करना किसी प्रकार भी अनुचित नहीं होगा : ‘‘इसे मोदी का दुर्भाग्य कहें या परिस्थितियों की साजिश, उनको मिले व्यापक जनसमर्थन से पैदा हुआ उन्माद उनके प्रधानमंत्री बनने के 3 माह के अंदर ही खास तौर पर उनकी तानाशाह कार्यशैली के चलते फीका पडऩा शुरू हो गया... न केवल सरकार को मिली ‘हनीमून अवधि’ समय से पूर्व ही समाप्त हो गई बल्कि मोदी का खुद का जलवा भी फीका पडऩा शुरू हो गया...।’’ कुछ राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्रों ने तो अब यह घोषणा कर दी है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव मोदी सरकार की ‘हनीमून अवधि’ की समाप्ति का प्रमाण हैं।

आम तौर पर भारत के चुनाव कभी-कभार ही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित करते हैं लेकिन दिल्ली चुनाव के परिणामों के मद्देनजर अनेक अंतर्राष्ट्रीय समाचार पत्रों में मोदी और भाजपा के विरुद्ध टिप्पणियां हुई हैं। ‘न्यूयार्क टाइम्ज’ ने अपने एक सम्पादकीय में लिखा है : ‘‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घरेलू राजनीति ने धरती पर ला पटका है। उनका और उनकी भारतीय जनता पार्टी का 70 सदस्सीय नई दिल्ली विधानसभा में मंगलवार के चुनाव में कचूमर ही निकल गया है। उनके खाते में केवल 3 सीटें आईं जबकि कुछ ही समय पूर्व अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी (आप) ने शेष सभी सीटों पर झाड़ू ही फेर दिया...।

गत वर्ष 3 दशकों की सबसे बड़ी राष्ट्रीय विजय दर्ज करते हुए सत्तासीन होने के दिन से मोदी और भाजपा जिस प्रकार प्रादेशिक चुनाव में भी शृंखलाबद्ध ढंग से जीत दर्ज करते आए हैं उससे उनकी छवि अजेय जैसी बन गई थी...। अभी तक वे कोई ठोस उपलब्धि नहीं दिखा पाए हैं और जैसा कि दिल्ली के चुनाव ने दिखा दिया है, लोगों की हताशा बढ़ती जा रही है।’’

व्यक्तिवादी राजनीति के मार्ग पर चलते हुए मोदी ने अपने वायदों के अनुसार सुधारों और विकास के एजैंडे को मूर्तिमान करने के कदम उठाने की बजाय अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि उभारने के लिए विदेशों की यात्रा करने को पहल दी। उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी भारत में आमंत्रित किया। लेकिन अपनी अमरीका यात्रा के दौरान उनकी कुछ कार्रवाइयों और ओबामा की भारत यात्रा ने मोदी और भारत की छवि धूमिल ही की है।

जिस चीज ने मोदी और भाजपा को अवश्य ही सदमा पहुंचाया होगा वह है उनके ‘मित्र’ ओबामा द्वारा भारत से रवाना होने से पूर्व भारत को धर्म के नाम पर विभाजित करने का प्रयास कर रही शक्तियों के विरुद्ध आगाह करना। दिल्ली के विशिष्ट नागरिकों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए ओबामा ने कहा, ‘‘भारत तब तक सफल और राष्ट्र के रूप में एकजुट रहेगा जब तक यह धर्म के आधार पर बंटाधार नहीं होता...। हमारे दोनों देशों में धर्म की स्वतंत्रता हमारी स्थापना के मूलभूत दस्तावेजों में दर्ज है...। हमारी अनेकता ही हमारी शक्ति है और हमें किसी भी ऐसे प्रयास के विरुद्ध सतर्क रहना होगा जो हमें साम्प्रदायिक या किसी अन्य आधार पर विभाजित करते हैं।’’

बेशक मोदी का वैचारिक चालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) ओबामा की नसीहत पर नाराज हुआ होगा लेकिन प्रधानमंत्री ने सामान्य की तरह मौन साधे रखा।

दिल्ली की चुनावी मीटिंगों के दौरान मोदी के कुछ बयानों ने न केवल उनकी छवि को आहत किया है बल्कि देश के उस सर्वोच्च पद की गरिमा को भी कम किया है जिस पर वे स्वयं सुशोभित हैं। उन्होंने ‘आप’ प्रमुख अरविन्द केजरीवाल के विरुद्ध अशोभनीय टिप्पणी करते हुए उन्हें नक्सलवादी और भगौड़ा करार दिया। उनके विपरीत केजरीवाल ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध बहुत मर्यादित  भाषा प्रयुक्त की। ‘‘अपनी गलतियां फटाफट मान लें और अक्सर मुस्कराते रहें’’ का परखा हुआ फार्मूला प्रयुक्त करते हुए केजरीवाल ने दिल्ली के मतदाताओं का दिल जीत लिया और दिल्ली विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीत कर कीर्तिमान स्थापित किया।

समय की कसौटी पर सच साबित हो चुकी इस उक्ति- कि विनम्रता से आपको प्यार और सम्मान मिलता है जबकि अहंकार आप के प्रति नफरत पैदा करता है तथा लोगों को आपसे दूर करता है- की परवाह न करने के कारण भाजपा नेतृत्व को उसी राष्ट्रीय राजधानी में धूल चाटनी पड़ी जिसको मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में भारत का प्रतीक बखान किया था। अब यही चुनाव परिणाम मोदी और भाजपा के लिए खतरे की घंटी का संकेत बन गए हैं।

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