Edited By ,Updated: 18 Feb, 2015 03:32 AM
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर एक जनमत संग्रह के रूप में वस्तुत: प्रस्तुत होते हुए आर.एस.एस./ भाजपा ने दिल्ली चुनावों में अपनी प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष दोनों ने ही ...
(सीताराम येचुरी) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर एक जनमत संग्रह के रूप में वस्तुत: प्रस्तुत होते हुए आर.एस.एस./ भाजपा ने दिल्ली चुनावों में अपनी प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष दोनों ने ही रात-दिन एक कर दिया। मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सुश्री किरण बेदी को पेश करना, पहले तो नुक्सान भरपाई की रणनीति दिखाई दी-यानी कि विजय का सेहरा प्रधानमंत्री मोदी के सिर और हार का ठीकरा किरण बेदी के सिर। हालांकि अभियान के अंतिम चरण के दौरान प्रधानमंत्री के साथ-साथ भाजपा के 120 से अधिक सांसदों, 20 से अधिक कैबिनेट मंत्रियों ने 4 दिनों में 3 रैलियों को संबोधित किया। इस तरह की चुनावी आक्रामकता के बावजूद आप ने 70 में से 67 सीटें जीतकर भाजपा के पास मात्र 3 सीटें छोड़ीं, यहां तक कि भाजपा के ‘‘लीडर ऑफ अपोजिशन ’’ के दावे को भी पूर्णतया खत्म कर दिया।
संसदीय चुनावों के बाद भाजपा के प्रदर्शन में लगातार गिरावट ही देखी गई। इससे पहले उत्तर प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में 50 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. ने 35 के मुकाबले मात्र 18 सीटें ही जीतीं, जहां इसे संसदीय चुनावों में भारी बढ़त मिली थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में इसे सात सीटें ही मिलीं, जबकि यहां इसने बड़ी जीत दर्ज की थी। भाजपा ने लोकसभा में केवल 31 प्रतिशत मतदान के साथ बहुमत हासिल किया। महाराष्ट्र में जहां इसने केवल 29 फीसदी मतदान के जरिए 123 सीटें जीतीं, वहीं हरियाणा में 33 प्रतिशत मतदान के साथ जीत दर्ज की।
झारखंड में भाजपा ने संसदीय मतदान का 10 प्रतिशत हिस्सा खो दिया। मौजूदा गैर भाजपा राज्य सरकार के खिलाफ मजबूत सत्ता विरोधी परिस्थितियों और बहुध्रुवीय मुकाबलों के तहत भाजपा ने अल्पसंख्यक वोट का बड़ा हिस्सा हासिल किया लेकिन ये दोनों ही बातें दिल्ली में दिखाई नहीं दीं। दिल्ली 2014 के आम चुनावों से पहले तक केन्द्रीय शासन के अधीन रहा है। बावजूद इसके यहां एक मजबूत मोदी विरोधी लहर साफ देखी जा सकती थी।
‘मोदी मैजिक’ भी तेजी से गायब होता जा रहा है। समृद्धि भ्रम पैदा करने वाले नारे और जमीनी स्तर पर कट्टर साम्प्रदायिक विभाजन के अनुकरण ने उन्हें चुनावी विजय दिलाई। विकास का भ्रम भी तेजी से छट रहा है और घर वापसी, लव जेहाद, इतिहास का पुनर्लेखन, पौराणिक कथाओं को इतिहास के रूप मेंं प्रस्तुत करना आदि ने उनके वास्तविक एजैंडे को उजागर किया है। यहां तक कि दिल्ली चुनावों के बाद और नतीजों की गणना से पहले एक भाजपा सांसद ने घोषणा की कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के रूप मेंं चित्रित करना गलत है, जो गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे को राष्ट्र का हीरो बनाने के आर.एस.एस. के अभियान पर मोहर लगाता है। आर.एस.एस. प्रमुख ने एक बार फिर दोहराया कि भारत हमेशा से ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ रहा है।
ऐसे अभियानों का ताॢकक परिणाम एक सरकारी विज्ञापन में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द के बिना भारतीय संविधान की मूल प्र्रस्तावना के प्रकाशन के संबंध में नवीनतम विवाद है। भाजपा ने यह कहते हुए कि आंतरिक आपातकाल (1975-77) के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी ने यह शब्द जोड़कर संविधान में संशोधन किया था, ‘‘धर्मनिरपेक्षता’’ शब्द पर बहस का बुलावा देकर पुख्ता संदेह पैदा कर दिया है। इस विवाद को खत्म करने के लिए भाजपा अध्यक्ष द्वारा की गई हाल ही की साफ टिप्पणियों के बावजूद ऐसी बहस का बुलावा देना व्यापक रूप से अशुभ संकेत है। ‘‘ बहस’’ का यह बुलावा दिसम्बर 1992 की भाजपा रथयात्रा की याद ताजा करता है जिसके कारण बाबरी मस्जिद का विध्वंस और साम्प्रदायिक नरसंहार हुआ।
मोदी सरकार ने इसी संविधान की शपथ के तहत कार्यालय संभाला जिसमें धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल है। अब इसी को हटाने की मांग इस शपथ का निषेध है। अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण अडवानी दोनों ही उस वक्त उस केन्द्रीय मंत्रालय के सदस्य थे जिसने इंदिरा गांधी द्वारा स्थापित ‘आपातकालीन तानाशाही तंत्र’ को ध्वस्त किया था। इस अभ्यास में एकमात्र अपवाद प्रस्तावना में संशोधन था जिसे उस वक्त की जनता पार्टी सरकार ने हमारे संविधान के स्वरूप और इसकी भावना की पुनरावृत्ति को सही ढंग से देखा।
हमारे मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) सभी नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता देते हैं। अनुच्छेद 25 भारतीय गणतंत्र की धार्मिक आत्मा को थामे हुए है जो ‘‘सिद्धांतों की आजादी और उन्मुक्त पेशे, धर्म का अभ्यास और प्रचार’’ की आजादी देता है। संशोधित प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द इसे केवल सुदृढ़ बनाता है। हालांकि भाजपा अब इस शब्द का इस्तेमाल साम्प्रदायिक भावनाएं उत्तेजित करने के एक अन्य अवसर के रूप में कर रही है। जब चर्चों को तोड़ा जा रहा था तो प्रधानमंत्री मोदी ने पश्चाताप या निंदा का एक शब्द भी बोलने से इंकार कर दिया और वे दिल्ली की चुनावी रैलियों को संबोधित करते रहे।
जहां तक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का संबंध है धर्मनिरपेक्षता का मसला निश्चय ही सुलझा लिया गया है। इसलिए आर. एस.एस./भाजपा का धर्मनिरपेक्षता पर बहस का बुलावा इसके वास्तविक एजैंडे का हिस्सा है और इसे धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारतीय गणतंत्र को असहिष्णु तानाशाह ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ में परिवर्तित करने के लिए डिजाइन किया गया है। ‘‘इंडिया, यानी कि भारत’’ के हित इस बात की मांग करते हैं कि ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।