कई संकेत देता है मोदी के ‘रवैये में आया बदलाव’

Edited By ,Updated: 22 Feb, 2015 04:18 AM

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मजहबी सहिष्णुता पर प्रधानमंत्री की गत सप्ताह की टिप्पणियां क्या अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति उनके व उनकी पार्टी के रवैये में बदलाव की सूचक हैं?

(बी.के. चम) मजहबी सहिष्णुता पर प्रधानमंत्री की गत सप्ताह की टिप्पणियां क्या अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति उनके व उनकी पार्टी के रवैये में बदलाव की सूचक हैं? एवं क्या ये मजहब को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रयुक्त करने के मुद्दे पर भी बदलाव की सूचक हैं? इससे जुड़ा हुआ ही एक अन्य सवाल है: क्या वे मोदी नीत सरकार के 8 माह के शासन दौरान अपने भड़काऊ कृत्यों व वक्तव्यों से सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले हिंदू कट्टरपंथियों पर दृढ़ता से लगाम लगाने के योग्य होंगी? 

यदि 2002 गुजरात के नरसंहार की राज्य का मुख्यमंत्री होते हुए भी निंदा करने से इंकार करने के प्रधानमंत्री के पुराने रिकार्ड को ध्यान में रखा जाए तो संघ परिवार के कुछ नेताओं के घृणा-भाषणों व सांप्रदायिक रूप में भड़काऊ वक्तव्यों तथा संघ प्रमुख  मोहन भागवत की भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ करार देने की घोषणा पर मोदी द्वारा धारण किया गया मौन पहले सवाल का बहुत बड़ा नकारात्मक उत्तर है। 

राजनीति में सत्ता में बैठे लोगों को अपना अस्तित्व बनाए रखने की भावना बहुत बदल देती है। धार्मिक सहिष्णुता पर ताजा-तरीन बयान इस बात का सूचक है कि उन्होंने एक प्रकार से यह वास्तविकता स्वीकार कर ली है कि भारत एक बहुलतावादी, बहु-सांस्कृतिक और सैकुलर देश है इसलिए उनकी सरकार नीतियों को गढ़ने एवं प्रशासन के कार्य में इन तथ्यों की अनदेखी नहीं करेगी। इससे पहले कि हम मोदी के दृष्टिकोण में बदलाव लाने वाले इन तथ्यों का विश्लेषण करें, प्रधानमंत्री द्वारा इसी सप्ताह नई दिल्ली में ईसाई मजहब के कार्यक्रम में दिए गए बयान का संज्ञान लेना होगा। 

उन्होंने कहा, ‘‘मेरी सरकार किसी भी मजहबी को, चाहे वह अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित हो या बहुसंख्यक से, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दूसरों के विरुद्ध घृणा भड़काने की अनुमति नहीं देगी। मेरी सरकार एक ऐसी सरकार होगी जो सभी मजहबों को बराबर का सम्मान देगी और प्रत्येक व्यक्ति के अपनी मर्जी के मजहब को अपनाने या उस मजहब में रहने के अधिकार की रक्षा करेगी।’’ 

ये टिप्पणियां स्वागत योग्य हैं और भारत के साम्प्रदायिक वातावरण को दूषित कर रहे हिंदू कट्टरपंथियों की गतिविधियों पर मोदी द्वारा अपनाए गए मौन के मद्देनजर बहुत महत्वपूर्ण हैं। मोदी के रवैये में यह बदलाव तीन कारणों से आया लगता है। प्रथम है, अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा अपनी 3 दिवसीय भारत यात्रा के अंतिम दिन नई दिल्ली में एक बैठक को संबोधित करते हुए यह आगाह करना कि ‘‘भारत तब तक सफल रहेगा और एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहेगा जब तक यह सांप्रदायिक आधार पर बंटता नहीं। हमारी (अमरीका और भारत की) अनेकता ही हमारी शक्ति है और हमें उन लोगों के विरुद्ध चौकस रहना होगा जो मतों-पंथों या किसी अन्य आधार पर हमें बांटने का प्रयास करते हैं।’’ 

दूसरा कारण यह है कि मोदी ने स्पष्ट तौर पर यह महसूस कर लिया है कि देश में साम्प्रदायिक असहिष्णुता के बढ़ते मामले उनकी उस ग्लोबल छवि को आहत करेंगे जो उन्होंने कई देशों की यात्रा करके बहुत प्रयासों से सृजित की है। वह निश्चय ही कुछ अग्रणी विदेशी दैनिक समाचारपत्रों में छपी कटु संपादकीय टिप्पणियों से ङ्क्षचतित महसूस कर रहे होंगे। 

न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा: ‘‘घरेलू राजनीति ने प्रधानमंत्री मोदी को जमीन पर ला पटका है। उनका और उनकी भारतीय जनता पार्टी का 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा के चुनाव में कचूमर ही निकल गया और उन्हें केवल 3 सीटें हाथ लगीं जबकि नवोदित आम आदमी पार्टी (आप) ने बाकी 67 पर झाड़ू फेर दिया...। गत वर्ष के लोकसभा चुनाव में सफाया करते हुए उन्होंने गत 3 दशकों की सबसे बड़ी जीत दर्ज की थी और इसके बाद अन्य राज्यों में एक के बाद एक जीत दर्ज करते हुए मोदी व भाजपा ने अपने अजेय होने का आभामंडल सृजित कर लिया था...। अभी तक वह ठोस रूप में कोई खास उपलब्धि नहीं कर पाए हैं और जैसा कि दिल्ली के चुनावों से संकेत मिलता है, लोगों की हताशा बढ़ती जा रही है।’’ 

तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारक जो उनके और भाजपा के रवैये में बदलाव का काम कर रहा है, वह है दिल्ली विधानसभा के चुनाव में पार्टी की शर्मनाक हार के फलस्वरूप 70 में से केवल 3 सीटें प्राप्त होना। यहां भाजपा की जितनी बुरी तरह पिटाई हुई है उससे मोदी के अजेय होने का भ्रम टूट गया है। 

एक अन्य घटनाक्रम जिसकी ओर अभी तक अपेक्षित ध्यान नहीं दिया गया, वह है ‘‘गैर-राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन’’ होने का दावा करने वाले आर.एस.एस. की सक्रिय भूमिका। इसने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में राजनीतिक खेल खेलना शुरू कर दिया है। गत कुछ दिनों के घटनाक्रम संकेत देते हैं कि आर.एस.एस. भाजपा के रोजमर्रा के काम में हस्तक्षेप कर रहा है। 

संघ को अक्सर भाजपा का वैचारिक मार्गदर्शक कहा जाता है इसलिए यदि इसके कर्णधार भाजपा को दरपेश महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं तो किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जब यह संगठन गठबंधन सहयोगियों एवं चुनाव के प्रत्याशियों के चयन तथा गठबंधन की शर्तों का निर्णय करने जैसी बातों पर भी सवाल उठाता है और पार्टी की कारगुजारी पर किन्तु-परन्तु करता है तो यह पार्टी  के रोजमर्रा के राजनीतिक कार्य में नंगे-चिट्टे हस्तक्षेप के अलावा और कुछ नहीं। 

उदाहरण के तौर पर आर.एस.एस. के पाक्षिक समाचार पत्र ‘पाञ्चजन्य’ ने अपने एक अंक में भाजपा द्वारा दिल्ली चुनाव में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में चुने जाने तथा पार्टी कार्यकत्र्ताओं की अनदेखी किए जाने पर ऐतराज उठाया है। 

भारत की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अपने-अपने फ्रंट संगठन हैं जिनका नेतृत्व आम तौर पर उनके वफादारों के हाथ में होता है। उनके मुद्दों के लिए संघर्ष करके पार्टियों अपने राजनीतिक आंदोलनों तथा चुनाव लडऩे के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाने का प्रयास करती हैं। भाजपा के भी अपने फ्रंट संगठन हैं जिनके माध्यम से वह अपने राजनीतिक और चुनाव उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए लोकप्रिय जनसमर्थन जुटाती है। लेकिन पार्टी के कामकाज में पार्टी का हस्तक्षेप करना और साथ ही हिंदु राष्ट्र की वकालत करना देर-सवेर पार्टी के फ्रंट संगठनों के अनुयायियों के मन में आशंकाओं को जन्म देगा। 

ऊपर वर्णित घटनाक्रम जहां विपक्षी दलों को हिन्दू संगठनों के विरुद्ध मोर्चा खोलने का मौका प्रस्तुत करते हैं, वहीं ये हिन्दू संगठनों को यह चेताते हैं कि वे आत्ममंथन करें और भारत को बहुमुखी तथा मजहबी अनेकता से भरा हुआ देश समझ कर अपनी नीतियां गढें।

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