भूमि अधिग्रहण कानून मोदी सरकार के लिए ‘खतरे की घंटी’

Edited By ,Updated: 25 Feb, 2015 01:27 AM

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भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके लाया गया अध्यादेश मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी बनता जा रहा है। इस अध्यादेश का खुद संघ परिवार से जुड़े भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण ...

(विजय विद्रोही) भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके लाया गया अध्यादेश मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी बनता जा रहा है। इस अध्यादेश का खुद संघ परिवार से जुड़े भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठन भी विरोध कर रहे हैं। किसान संघ के प्रभाकर केलकर तो कह चुके हैं कि मोदी सरकार निजी क्षेत्र के लिए महंगे स्कूल, अस्पताल खोलने के लिए जमीन दिलवा कर क्या उनके लिए दलाल का काम करेगी।

कभी मोदी को भला आदमी बताने वाले अन्ना हजारे भी मैदान में कूद गए हैं। कह रहे हैं कि अगले 3-4 महीनों तक देश भर में मोदी सरकार के खिलाफ जनजागरण करेंगे और फिर रामलीला मैदान से जेल भरो आंदोलन शुरू किया जाएगा। कांग्रेस ने भी देशभर में सरकारी अध्यादेश को किसान विरोधी बताते हुए इसे मुख्य मुद्दा बनाने का फैसला किया है।  उधर सरकार कह रही है कि कांग्रेस के समय जो कानून बना था वह इतना जटिल और अव्यावहारिक था कि कानून के अमल में आने के बाद एक भी इंच जमीन नहीं बिकी है। यहां तक कि बहुत-सी राज्य सरकारों ने भी केन्द्र सरकार से कानून में बदलाव के लिए सिफारिशें की थीं और केन्द्र सरकार उन्हीं सिफारिशों के आधार पर अध्यादेश लाई है। अब यह राज्य सरकारों पर है कि वे अध्यादेश की शर्तों को किस हद तक मानने को तैयार होती हैं?

सवाल उठता है कि आखिर मोदी सरकार ने 2013 में पारित भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्वास कानून में ऐसे क्या बदलाव कर दिए हैं कि सारे देश के किसानों में गुस्सा फूटने लगा है। भारतीय किसान संघ तक को ताव आ रहा है, संघ तक ने सरकार से किसानों के हित सुनने की बात कही है, अन्ना हजारे को फिर से ताल ठोकनी पड़ रही है और कांग्रेस को अध्यादेश के बहाने सक्रिय राजनीति में घुसने की गुंजाइश दिख रही है।

यहां तक कि संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू को सोनिया गांधी का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है और प्रधानमंत्री मोदी को अध्यादेश पर बहस के दौरान कुछ समावेशी बदलाव के संकेत देने पड़ रहे हैं। बदलावों पर नजर डालने से पहले बता दें कि भारत में अंग्रेजों के जमाने से यानी 1894 से लागू कानून ही चल रहा था। उसमें कुछ छोटे-मोटे संशोधन पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के समय जरूर हुए थे लेकिन मूल रूप से कानून सरकार के पक्ष में था, सरकार किसी की भी जमीन राष्ट्र हित के नाम पर छीन सकती थी। किसानों को मुआवजा भी जमीन की सरकारी दर पर मिलता था जबकि उसी जमीन की बाजार दर कई गुना ज्यादा हुआ करती थी। नए कानून के लिए संसद के दोनों सदनों में 100 घंटों से ज्यादा की बहस हुई, कई कमेटियों के हाथों से यह बिल गुजरा और भाजपा समेत सभी विपक्षी दलों के साथ गहन चर्चा करने के बाद ही यह कानून दोनों सदनों में भारी बहुमत से पारित हुआ था।

अब बात की जाए मोदी सरकार की तरफ से लाए गए अध्यादेश में किए गए बदलावों की जिनके कारण इस कानून को उद्योगपतियों के हक में बताया जा रहा है। बदलाव नम्बर एक-यू.पी.ए. सरकार की तरफ से पारित कानून में कहा गया था कि अगर कोई उद्योगपति निजी काम के लिए जमीन खरीदना चाहता है तो उसे 80 प्रतिशत किसानों की मंजूरी लेनी होगी। इसमें किसानों के साथ-साथ वे लोग भी शामिल होंगे जिनकी आजीविका उस जमीन पर निर्भर है। यानी खेतिहर मजदूर या ऐसे लोग जो खेती के काम से परोक्ष रूप से जुड़े हैं। इसके अलावा कानून कहता है कि अगर सरकार निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी यानी पी.पी.पी. की परियोजना के लिए जमीन खरीदती है तो 70 प्रतिशत किसानों और उस पर निर्भर लोगों की मंजूरी जरूरी होगी।

लेकिन मोदी सरकार ने इसमें बदलाव किए हैं। नए अध्यादेश में मंजूरी की जरूरत को पूरी तरह से हटा लिया गया है। यानी निजी काम हो या पी.पी.पी., अब किसी से सहमति लेने की जरूरत नहीं है। विरोधियों का कहना है कि अब उद्योगपति या बिल्डर या सरकार डरा-धमका कर जमीन हासिल कर लेंगे और किसान को अपने पुरखों की जमीन से हाथ धोना पड़ेगा।

यहां सवाल मुआवजे का नहीं होकर किसान की रजामंदी का है। सरकार का कहना है कि 70 या 80 प्रतिशत की सहमति के कारण जमीन का अधिग्रहण लगभग असंभव हो गया था। देश में 18 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं अटकी पड़ी हैं जिसमें से 60 प्रतिशत पी.पी.पी. मोड के तहत आती हैं। सरकार का यह भी कहना है कि मंजूरी की प्रक्रिया इतनी धीमी है कि एक बस अड्डे के लिए पी.पी.पी. के तहत जमीन लेने में ही औसतन 59 महीने यानी करीब पांच साल लग जाते हैं।

बदलाव दो-यू.पी.ए. सरकार के कानून में कहा गया था कि मंजूरी के साथ-साथ अधिगृहित की जाने वाली जमीन पर लगने वाली परियोजना का स्थानीय जनता पर क्या आर्थिक-सामाजिक असर होगा, इसका आकलन 6 महीनों के भीतर किया जाना जरूरी होगा। चूंकि यह बिल सिर्फ मुआवजे की बात नहीं करता, यह पुनर्वास की भी बात करता है। लिहाजा ऐसा आकलन करने से वे खेतिहर मजदूर भी इसी दायरे में आते हैं जिनके पुनर्वास की व्यवस्था सरकार को करनी पड़ती लेकिन मोदी सरकार के अध्यादेश में सामाजिक असर के आकलन को हटा दिया गया है। यानी सीधे-सीधे कहा जाए तो अब जमीन का अधिग्रहण होने की सूरत में खेतिहर मजदूरों या परोक्ष रूप से उस जमीन के सहारे अपनी आजीविका अर्जन करने वालों को पूरी तरह से हाशिए पर डाल दिया जाएगा। 

बदलाव नम्बर तीन-यू.पी.ए. के भूमि अधिग्रहण के कानून में कहा गया था कि अधिगृहित की गई जमीन का इस्तेमाल पांच साल में नहीं हुआ तो जमीन किसानों को वापस मिलेगी। इसके साथ ही जमीन उसी काम के लिए इस्तेमाल की जानी जरूरी थी जिसके लिए वह हासिल की गई  हो। ऐसा प्रावधान इसलिए किया गया क्योंकि देखा गया है कि सरकार जमीन तो अधिगृहित कर लेती है लेकिन फिर वह सालों तक बेकार पड़ी रहती है। यह भी देखा गया कि कई बार जमीन अधिगृहित करने के बाद उसका भूमि प्रयोजन बदल दिया जाता है।

बदलाव नम्बर चार-यू.पी.ए. का कानून कहता था कि जमीन अधिगृहित करने की पहली शर्त यही होगी कि  बंजर जमीन ही ली जाए। अगर ऐसी जमीन एक साथ नहीं मिलती है तो ऐसी खेतिहर जमीन ली जाए जहां सिंचाई की सीधी व्यवस्था नहीं हो यानी जहां पानी दूर से लाना पड़ता हो। अगर ऐसी जमीन भी नहीं मिलती है तो ऐसी जमीन का ही अधिग्रहण किया जाए जिसमें साल में एक ही फसल पैदा होती है।

साफ था कि बहुफसली जमीन का बेहद जरूरी होने पर ही अधिग्रहण करने की बात की गई थी। तब इसका भी विरोध कुछ दलों ने किया था। उनका कहना था कि इस समय केन्द्र सरकार के बहुत से उपक्रमों, राज्य सरकारों और रेलवे के पास लाखों एकड़ जमीन बेकार पड़ी है। पहले यह जमीन परियोजनाओं के लिए दी जानी चाहिए। उसके बाद ही किसानों की जमीन पर सरकार को नजर डालनी चाहिए। बहुफसली जमीन को तो बिल्कुल छुआ तक नहीं जाना चाहिए लेकिन मोदी सरकार का अध्यादेश तो बहुफसली जमीन के अधिग्रहण की भी खुलकर इजाजत देता है। यह कहता है कि राष्ट्रीय हित को देखते हुए ऐसी जमीन का अधिग्रहण भी किया जा सकता है। अब यह राष्ट्रीय हित कितना जरूरी है, यह साफ नहीं किया गया है।

बदलाव पांच-यू.पी.ए. सरकार के कानून में कहा गया था कि भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई के समय अगर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी किसी तरह की गड़बड़ी करते हैं तो सीधे-सीधे उन पर धोखाधड़ी या अन्य संबंधित धारा के तहत मुकद्दमा चलाया जा सकता है। ऐसा प्रावधान इसलिए किया गया क्योंकि जमीन के गोरखधंधे में लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं और सीधे मुकद्दमे की बात कह कर इस पर लगाम कसने की कोशिश की जा सकती है लेकिन मोदी सरकार के अध्यादेश में मुकद्दमा चलाने से पहले सरकार से अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया गया है। यह उस सरकार का अध्यादेश है जिसका मुखिया कहता है कि न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा।

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