डा.मुखर्जी का कारागृह कश्मीर से बाहर होता तो ‘तीर्थ’ बन जाता

Edited By ,Updated: 05 Mar, 2015 01:44 AM

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श्रीनगर निशात इलाके में जबरवन पहाडिय़ों में गोपीतीर्थ मंदिर के समीप एक अनाम स्थल यदि देश में किसी अन्य जगह पर होता तो भाजपा के लिए तीर्थ बन चुका होता। भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ के ...

(मुजफ्फर राणा) श्रीनगर निशात इलाके में जबरवन पहाडिय़ों में गोपीतीर्थ मंदिर के समीप एक अनाम स्थल यदि देश में किसी अन्य जगह पर होता तो भाजपा के लिए तीर्थ बन चुका होता। भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने 1953 में श्रीनगर के समीप कैद रखा था। यहीं डल झील के किनारे इस कारागृह में वह बीमार पड़े औरकुछ दिनों बाद अस्पताल में उनका देहावसान हो गया।

दिन भर खाक छानने के बाद जब मैं निशात इलाके के रहने वाले 80 वर्षीय बुजुर्ग गुलाम मोहम्मद शाह को मिला तो उन्होंने बताया कि जनसंघ के संस्थापक को यहीं एक छोटी सी इमारत में कैद रखा गया था लेकिन अब यह इमारत मौजूद नहीं है क्योंकि एक नया भवन बनाने के लिए इसे गिरा दिया गया था। यह इमारत बिल्कुल डल झील के किनारे स्थित है।

गुलाम मोहम्मद ने बताया : ‘‘मुझे अभी भी याद है कि मुखर्जी ने अपने आखिरी दिन यहां कैसे बिताए थे। मैं उनके लिए मकरंद (चैरी) लेकर आता था। कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई तो भारी हो-हल्ला मचने पर शेख साहिब को उनका पार्थिव शरीर लेकर स्वयं जम्मू जाना पड़ा।’’

फिर भी मुखर्जी के साथी रह चुके वरिष्ठ भाजपा नेता चमन लाल गुप्ता का दावा है कि जिस स्थान पर उनके नेता को कैद रखा गया था, वह अभी तक अक्षुण्ण है। उनका कहना है: ‘‘इस स्थान को मुखर्जी और भाजपा के प्रति चलती द्वेष भावना के कारण वह सम्मान नहीं मिल सका जिसका यह हकदार है। मैं कई बार इस स्थान पर गया हूं और उम्मीद करता हूं कि इसे संरक्षण मिलेगा।’’

आस-पड़ोस के दर्जनों लोगों से पूछताछ करने के बावजूद मैं उस मकान की तलाश नहीं कर सका, जहां मुखर्जी को कैद रखा गया था। यह भाजपा के संबंधित प्रतीकों के प्रति घाटी की बेरुखी का जीवंत प्रमाण है। मैं जम्मू-कश्मीर में कई दशक पूर्व शुरू हुए भाजपा के सफर का इतिहास खंगालने के लिए ऐन उस दिन इस राज्यमें पहुंचा था, जब भाजपा के भाग्य ने करवट बदलीथी।

धारा 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को जो विशेष दर्जा हासिल है, इसके लिए आंदोलन चलाने वाली ‘प्रजा परिषद’ के दौर में जनसंघ का प्रभाव पूरे जोरों पर था। मुखर्जी ने अपना पूरा राजनीतिक प्रभाव प्रजा परिषद के पक्ष में प्रयुक्त किया और इसी के फलस्वरूप कई वर्ष बाद इसने खुद का जनसंघ में विलय कर लिया।

मुखर्जी को 11 मई 1953 को पंजाब और जम्मू-कश्मीर को जोडऩे वाले माधोपुर पुल पर गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि उन्होंने बिना परमिट लिए राज्य में प्रवेश करने का प्रयास किया था जबकि अन्य राज्यों के सभी भारतीयों के लिए बिना परमिट के प्रवेश की मनाही थी। मुखर्जी ने इसी प्रतिबंध का विरोध करने का फैसला किया था। गिरफ्तार करके उन्हें श्रीनगर ले जाया गया और निशात इलाके में कैद कर लिया गया। छ: सप्ताह बाद कैद में ही उनकी मृत्यु हो गई।

मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे और उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री लिया गया था। लेकिन 1951 में उनके और नेहरू के रास्ते अलग हो गए। वह जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ सम्पूर्ण विलय चाहते थे। इसीलिए उन्होंने नारा दिया: ‘‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे।’’

शेख अब्दुल्ला के जीवनीकार मोहम्मद यूसुफ ताइंग का कहना है कि मुखर्जी की मौत ने घाटी के बाहर जोरदार आक्रोश को जन्म दिया और नैशनल कांफ्रैंस की सरकार को अपदस्थ किए जाने का यही मुख्य कारण था। ताइंग का कहना है, ‘‘कुछ लोग इसमौत के लिए शेख साहिब को दोषी ठहराने की हद तक चले गए, जबकि मुखर्जी की मौत बीमारी के कारण हुई थी।’’ ताइंग ने दावा किया कि मुखर्जी कश्मीर में नेहरू के उकसाने पर आए थे क्योंकि नेहरू राज्य सरकार को अस्थिर करना चाहते थे, ताकि उन्हें किसी तरह शेख अब्दुल्ला को सत्ता से हटाने का बहाना मिले और ‘‘बाद में अगस्त महीने में यही कुछहुआ।’’

जनसंघ और बाद में इसका नया अवतार भाजपा जम्मू में एक राजनीतिक शक्ति बनी रही है, बेशक कांग्रेस का पलड़ा भारी रहा। स्थिति में तब बदलाव आना शुरू हुआ जब 2008 के विधानसभा चुनाव में जम्मू क्षेत्र की 37 सीटों में से भाजपा 11 सीटें जीतने  में सफल हो गई थी। भाजपा को यह सफलता जम्मू मेंअमरनाथ यात्रा भूमि आंदोलन चलाने के कारण मिली थी।

अब की बार मोदी लहर ने जम्मू क्षेत्र में पार्टी की स्थिति बहुत मजबूत कर दी और इसे विधानसभा की 25 सीटें  हासिल हो गईं, लेकिन कश्मीर घाटी में यह अपना खाता नहीं खोल पाई। पी.डी.पी. के साथ इसका गठबंधन तभी बन पाया है, जब विचारधारा को इसने ठंडे बस्ते में डाल दिया। लेकिन चमन लाल गुप्ता इसे ‘सिद्धांतों पर समझौता’ कहने को तैयार नहीं। उनका कहना है, ‘‘सिद्धांतों की कोई बलि नहीं दी गई है। हम मुखर्जी का सपना साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। फिर भी हमारी उपलब्धि काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि मंत्री बनने वाले हमारे लोग कैसी कारगुजारी दिखाते हैं।’’ (टै.)

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