Edited By ,Updated: 06 Mar, 2015 02:16 AM
जम्मू-कश्मीर में गत कुछ वर्षों में कई गठबंधन सरकारें बनीं, मगर मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में वर्तमान भाजपा-पी.डी.पी. सरकार निश्चित तौर पर ऐतिहासिक है। ऐसा पहली बार हुआ है कि ...
(कल्याणी शंकर) जम्मू-कश्मीर में गत कुछ वर्षों में कई गठबंधन सरकारें बनीं, मगर मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में वर्तमान भाजपा-पी.डी.पी. सरकार निश्चित तौर पर ऐतिहासिक है। ऐसा पहली बार हुआ है कि जम्मू तथा घाटी दोनों की अपेक्षाओं को राज्य सरकार में प्रतिनिधित्व मिला है। इन सबके साथ घाटी का राज्य पर प्रभुत्व बना रहा। यह अप्राकृतिक सांझेदारों का एक गठबंधन है, जो चुनावों में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ चुके हैं और सत्ता की भूख के सिवाय दोनों में कुछ भी एक जैसा नहीं है। इस सबके बावजूद यदि गठबंधन अगले 6 वर्षों तक अस्तित्व में रहता है तो यह दो बिल्कुल अलग सहयोगियों की एक उपलब्धि होगी।
मुफ्ती के लिए फिर से सत्ता संभालना तथा यह साबित करना कि वह किस्मत के धनी हैं, महत्वपूर्ण था जबकि भाजपा के लिए यह जश्न का पल था, जब पार्टी यह साबित कर सकती थी कि वह अपने हिन्दू राष्ट्रवादी विचारों के चलते एक मुस्लिम बहुल राज्य में शासन कर सकती है।
उत्तर तथा दक्षिण ध्रुवों जैसी दो पाॢटयों के एक साथ आने से शुरूआत जहां अच्छी थी, वहीं नई सरकार के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। आशा की जाती है कि चूंकि मुफ्ती मोहम्मद कहीं अधिक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। इसलिए वह बेहतर कार्य करेंगे। इसके लिए पी.डी.पी. तथा भाजपा के बीच नए बने गठजोड़ को समय की कसौटी पर खड़ा होना होगा। अतीत के अनुभव बताते हैं कि एक मुख्यमंत्री की क्षमता तथा अनुभव से परे भी कुछ कारक हैं, जो सरकार का भविष्य निर्धारित करते हैं।
मुफ्ती के लिए पहली चुनौती भाजपा के साथ जमीनी स्तर पर एक कार्यशील संबंध तलाशना है। किसी भी पक्ष द्वारा उठाए गए एक गलत कदम की परिणति विनाशकारी होगी। क्या मुफ्ती कैबिनेट के भीतर तथा बाहर और राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी साख को बनाए रख पाएंगे। स्थानीय भाजपा में पहले ही फुसफुसाहट शुरू हो गई है कि उन्हें कोई बड़ा मंत्रालय नहीं दिया गया है।
दूसरे, सत्ता संभालने के कुछ घंटों के भीतर ही, मुफ्ती द्वारा अपनी पहली प्रैस कांफ्रैंस में शांतिपूर्ण चुनावों के लिए अलगाववादियों तथा पाकिस्तान को श्रेय देने से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा नेताओं के चेहरे तमतमा गए। संसद में विपक्षी दल उनकी टिप्पणी को लेकर हो-हल्ला मचाए हुए हैं, यद्यपि मोदी तथा केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुफ्ती की विचारधारा से खुद को अलग कर लिया है। कुछ पी.डी.पी. विधायकों द्वारा अफजल गुरु के अवशेषों की मांग को लेकर भी भाजपा नेता शर्मनाक स्थिति में हैं। यह तो केवल शुरूआत है।
तीसरी तथा बड़ी चुनौती घाटी के लोगों को इस बात का विश्वास दिलाना है कि भाजपा के साथ गठबंधन केवल सत्ता के लिए नहीं किया गया। वह जानते हैं कि विशेष तौर पर घाटी के लोग पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन को लेकर उत्साहित नहीं हैं। दरअसल, पी.डी.पी. को जम्मू तथा घाटी, दोनों ओर से ऐसी चुनौती मिल रही है। जैसा कि उनके एक मंत्री ने बताया कि यह चुनौती प्रशासन तथा विकास से भी बड़ी है और संभवत: मुफ्ती के लंबे राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी है।
न्यूनतम सांझा कार्यक्रम इस बात का संकेत नहीं देता कि पी.डी.पी. अपने चुनावी वायदे निभाएगी। कोई भी इस संभावना से इंकार नहीं कर सकता कि धारा 370, अफस्पा, पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों जैसे मामले भविष्य में फिर उठ खड़े होंगे और गठबंधन को परेशानी में डालेंगे।
चौथा है प्रशासन। मुफ्ती उन चीजों पर केन्द्रित होकर बेहतर कारगुजारी दिखा सकते हैं, जो उनके नियंत्रण में है, जैसे कि प्रशासन के मोर्चे पर कारगुजारी दिखाना। राज्य को तीव्र विकास की जरूरत है और विशेषकर पी.डी.पी. द्वारा भाजपा के साथ जाने का यह स्पष्टीकरण देने के बाद कि राज्य की परियोजनाओं के लिए उदार केन्द्रीय फंड सुनिश्चित होंगे।
पांचवां यह कि मुफ्ती पाकिस्तान तथा हुर्रियत के साथ वार्ता की बात करते रहे हैं। वह सीमा पार व्यापार तथा बस सेवा जैसे विश्वास बढ़ाने वाले उपायों के श्रेय का भी दावा करते हैं, जिन्हें उन्हें अगले स्तर तक ले जाना होगा। भाजपा तथा प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के खिलाफ अपने कड़े रुख के लिए जाने जाते हैं और यहां तक कि मोदी सरकार ने कुछ समय पूर्व भारत तथा पाकिस्तान के बीच विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी थी, क्योंकि पाकिस्तान उच्चायुक्त ने दिल्ली में हुर्रियत नेताओं से मुलाकात की थी। ऐसे वातावरण में मुफ्ती नई दिल्ली तथा इस्लामाबाद को मेज पर लाने के अपने प्रयासों में कितना सफल होंगे, यह एक प्रश्र है।
जहां तक भाजपा की बात है, यदि दोनों पार्टियां जम्मू-कश्मीर सरकार को सफल बनाना चाहती हैं तो इसे एक संतुलन कायम करना होगा। नि:संदेह महत्वपूर्ण मुद्दों को ताक पर रख दिया गया है मगर कितने लंबे समय तक यह ऐसा करेगी, यह भी एक प्रश्र है क्योंकि पार्टी में कथित दरकिनार किए गए तत्व लंबे समय तक चुप नहीं रहेेंगे और किसी न किसी समय कर्कश आवाजें सुनाई देना लाजमी है।
भाजपा के लिए दूसरी चुनौती राज्य में पार्टी को खड़ा करना है और इसलिए अपने विस्तार हेतु शासन करने के अवसर का इस्तेमाल करने में इसे सक्षम होना चाहिए।
तीसरी चुनौती धर्म को लेकर है। खुड्डेलाइन लगाए गए तत्वों द्वारा किसी भी टिप्पणी को जम्मू-कश्मीर में प्रतिध्वनि मिलेगी, जो हिंसा में भी बदल सकती है। मोदी घर वापसी जैसे मुद्दों को कैसे स्पष्ट करेंगे? क्या मुफ्ती इस मुद्दे पर चुप रहेंगे?
चौथी यह कि मुफ्ती के विचारों पर चलते हुए मोदी पाकिस्तान के साथ वार्ता का कहां तक समर्थन करेंगे? पी.डी.पी. स्वै-शासन व पाक अधिकृत कश्मीर की बात करती है।
पांचवीं चुनौती है विस्थापित पंडितों का शीघ्र पुनर्वास। इसे भी बहुत तेजी से करना होगा।
नि:संदेह दोनों पार्टियों के पास लोगों के सामने अपने अच्छे इरादों को साबित करने का सुनहरा अवसर है। मगर करोड़ों का प्रश्र यह है कि क्या वे इसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करेंगे।