‘नरम अलगाववाद’ से मुफ्ती ने खुद को प्रासंगिक बनाए रखा

Edited By ,Updated: 12 Mar, 2015 03:37 AM

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पहलगाम के रमणीक इलाके में से कल-कल बहती लिद्दड़ नदी के दाहिने किनारे पर बसे अन्य कई गांवों की तरह लिवेर...

(मुजफ्फर रैणा): पहलगाम के रमणीक इलाके में से कल-कल बहती लिद्दड़ नदी के दाहिने किनारे पर बसे अन्य कई गांवों की तरह लिवेर भी 1989 में उग्रवाद शुरू होने के समय से लेकर लगभग एक दशक तक भारत समर्थक राजनीतिज्ञों के लिए वर्जित क्षेत्र ही बना रहा था। 

इस इलाके में उग्रवादी बनाम सुरक्षा बल झड़पें उतनी ही आम थीं, जितने कि नाकाबंदी और तलाशी अभियान। इन अभियानों पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगता रहा है। 
 
उस अनिश्चित दौर में महबूबा मुफ्ती और उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद को इस इलाके में अपना राजनीतिक भाग्य आजमाने का सुनहरी मौका मिला। श्रीनगर और वादी के अन्य प्रमुख क्षेत्रों से 70 कि.मी. दूर इस इलाके में उन्होंने अपनी किस्मत खूब चमकाई। 
 
1996 तक महबूबा कांग्रेस की टिकट पर समीपवर्ती बिजबिहाड़ा क्षेत्र से विधायक बन चुकी थीं जबकि कांग्रेस में पहले ही प्रमुख नेता रह चुके मुफ्ती सईद 1989-90 दौरान वी.पी. सिंह सरकार में गृह मंत्री रह चुके थे। फिर भी अपनी सभी राष्ट्रीय उपलब्धियों के बावजूद वह 1990 के दशक के मध्य तक शेख अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस की तुलना में एक बौने से अधिक हैसियत हासिल नहीं कर पाए थे। 
 
मुफ्ती कांग्रेस द्वारा छद्म रूप में चलाई जा रही डैमोक्रेटिक नैशनल कांफ्रैंस में 1950 के दशक  में ही शामिल हो गए थे। नैशनल कांफ्रैंस से टूटकर अलग हुए इस गुट ने ही शेख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली थी, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के लिए 22 वर्ष लंबा आंदोलन शुरू करना पड़ा। डैमोक्रेटिक नैशनल कांफ्रैंस ने बाद में कांग्रेस में विलय कर लिया। 1967 में मुफ्ती सईद उपमुख्यमंत्री बने और 1975 में 40 वर्ष की आयु में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष। तब उन्होंने मुख्यमंत्री बनने का सपना देखना शुरू कर दिया। 
 
लेकिन जब लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला अक्सर सलाखों के पीछे बंद रहते थे, तो किसी भी राज्य सरकार की लोगों की नजरों में स्वीकार्यता कोई खास नहीं थी। 1975 में शेख अब्दुल्ला मुख्य धारा की राजनीति में लौट आए और आते ही मुफ्ती और उनकी पार्टी को केतु छाया की तरह ढक लिया। मुफ्ती को आज तक राजनीति के अंधेरे में खो जाने का वह दौर भूला नहीं है। 
 
अगले दो दशकों तक कश्मीर में मुफ्ती सईद कोई खास उपलब्धि दर्ज नहीं कर पाए। हालांकि राष्ट्रीय राजनीति में उनकी खूब पैठ बनी रही। 90 के दशक के मध्य तक जब उग्रवाद अपने चरम पर था, तो उनकी स्थानीय महत्वाकांक्षाओं को लगभग ग्रहण लगा हुआ था। जिस खेमे से वह संबंध रखते थे, उसने कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को काफी कमजोर कर दिया था। सईद उस सरकार का हिस्सा थे, जिसने जम्मू-कश्मीर के वजीरे-आजम (प्रधानमंत्री) और सदर (राष्ट्रपति) के पद समाप्त कर दिए थे। 
 
1983 में मुफ्ती ने सत्तारूढ़ नैशनल कांफ्रैंस में विभाजन करवा दिया और फारूक अब्दुल्ला के बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह कांग्रेस के समर्थन से सत्तारूढ़हुए। 
 
1989 में शक्तिशाली बनते ही उग्रवादियों ने जो काम सबसे पहले अंजाम दिए, उन्हीं में से एक था मुफ्ती की बेटी रुबेइया का अपहरण। प्रमुख उग्रवादी नेताओं को छुड़ाने के लिए इस अपहरण के माध्यमसे सौदेबाजी हुई और इससे उत्साहित होकर उग्रवादियों ने एक के बाद एक अपहरण सफलता से अंजाम दिए। कुछ माह बाद 1990 में गृह मंत्री के रूप में मुफ्ती ने जगमोहन को गवर्नर के पद पर तैनात करवाया और राज्य में रक्षा बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) लागू करवाया। इन्हीं दो घटनाक्रमों को आज तक राज्य में मानवाधिकार उल्लंघन की स्थिति बदतर बनाने के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। 
 
ऐसे में 1996 में कश्मीर घाटी में फिर से राजनीतिक गतिविधियां शुरू करना मुफ्ती सईद के लिए किसी प्रकार भी आसान नहीं था लेकिन वे भाग्यशाली थे कि उनकी बेटी महबूबा ने हर समय उनका साथ दिया। इसके अलावा राज्य सरकार के शीर्ष पर फारूक अब्दुल्ला की मौजूदगी भी उनके लिए भाग्यशाली रही। 
 
गत 6 वर्षों से जारी राष्ट्रपति शासन के दौरान पुलिस का उग्रवाद विरोधी स्पैशल आप्रेशन ग्रुप सृजित किया गया था, जो मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में काफी बदनाम हुआ था। 1996 में फारूक अब्दुल्ला बेशक चुनावों में हेरा-फेरी की बदौलत भारी बहुमत से दोबारा सत्ता में आए थे, लेकिन उन्होंने ऐसे बलों पर नकेल लगाने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया। 
 
ऐसे मौके पर परम्परागत तौर पर भारत समर्थक रहे मुफ्ती सईद के परिवार ने अचानक ही खुद को राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बना लिया। उन्होंने ‘नरम अलगाववाद’ का पैंतरा अपना लिया और स्वशासन तथा राज्य में पाकिस्तानी करंसी को प्रचलित किए जाने की मांग उठाई। उन्होंने सुरक्षाबलों के शिकार हुए उग्रवादियों और ‘आजादी’ के कारकुनों के घरों में जाकर सांत्वना प्रकट करनी शुरू कर दी थी। नैशनल कांफ्रैंस की विरोधी जमायत- ए-इस्लामी तथा अलगाववादियों के जनाधार वाले लिवेर क्षेत्र में महबूबा ने अक्सर दौरे करने शुरू कर दिए। ऐसे ही एक दौरे के दौरान 1997 में वह हिज्ब के आप्रेशन कमांडर आमिर खान के घर गई, जिसका किशोरवय बेटा अब्दुल हमीद कथित तौर पर सुरक्षा बलों की हिरासत में मार दिया गया  था। 
 
आमिर के बाप गुलाम रसूल खान ने बताया, ‘‘हां वह आई थी, मगर उन दिनों मैं घर पर नहीं था। अन्य गांव वासियों ने मुझे बताया था कि महबूबा ने सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के विरुद्ध रोष प्रदर्शन किया था।’’
 
ऐसी कार्रवाइयों से पिता और बेटी को जन समर्थन हासिल करने में सहायता मिली और उन्होंने 1999 में पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी.) की शुरूआत की। केवल तीन ही वर्ष में यह पार्टी सत्ता में आ गई। लेकिन सईद की पार्टी लोगों के लिए अभी भी एक विरोधाभास बनी हुई है। जहां पी.डी.पी. के विरोधी इसे नैशनल कांफ्रैंस द्वारा प्रतिपादित कश्मीरी उपराष्ट्रवाद की भावनाओं को असफल बनाने के  लिए भारतीय गुप्तचर एजैंसियों का मोहरा करार देते हैं, वहीं इसे कश्मीरी आजादी के अनेक पक्षधरों और खास तौर पर जमायत-ए-इस्लामी से समर्थन मिल रहा है।
 
पी.डी.पी. के अस्तित्व में आने के 15 वर्ष बाद समर्थक अब इसे धारा 370 को रद्द करवाने पर कटिबद्ध भाजपा के साथ गठजोड़ में सत्तासीन देख रहे हैं।   
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