राजनीति और गवर्नैंस के मोर्चे पर सत्तारूढ़ नेतृत्व कटघरे में

Edited By ,Updated: 15 Mar, 2015 03:52 AM

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पंजाब की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर गई। घटनाओं पर करीबी दृष्टि से यह संकेत मिलता है कि मानकों में हर प्रकार से गिरावट आई है।

(बी.के. चम): पंजाब की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर गई। घटनाओं पर करीबी दृष्टि से यह संकेत मिलता है कि मानकों में हर प्रकार से गिरावट आई है। यदि वर्तमान रुझान चालू रहता है तो स्थिति गड़बड़ाने में अधिक देर नहीं लगेगी। अपनी अंतर्कलह और एक-दूसरे दल से चलते टकराव के कारण मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को कड़ी परीक्षा में से गुजरना पड़ रहा है।

 
इस सूची में सबसे प्रमुख स्थान पर अकाली और इसकी गठबंधन सहयोगी भाजपा है। कांग्रेस कुछ ही दूरी पर चलते हुए उन्हीं का अनुसरण कर रही है। सत्तारूढ़ नेतृत्व राजनीतिक और गवर्नैंस दोनों ही मोर्चों पर स्वयं को कटघरे में खड़ा पा रहा है। इसे और इसके गठबंधन सहयोगियों को जिन विवादों की मार झेलनी पड़ रही है, उनमें से क्या वे सही-सलामत बच निकलने में सफल होंगे? इस प्रश्र का उत्तर देने का प्रयास कुछ ऐसी समस्याओं पर चिंतन-मनन से किया जा सकता है जिनकी गंभीरता को देखते ऐसा लगता है कि इन पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती।
 
वर्तमान में जो विवाद अकाली नेतृत्व की नींद हराम कर रहे हैं, उनमें से एक है उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के साला साहिब राजस्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया के नशीले पदार्थों के तस्करों के साथ कथित संबंध और दूसरा अकाली दल और भाजपा के बीच बिगड़ रहे संबंध।
 
मीडिया रिपोर्टों का कहना है कि 6000 करोड़ रुपए के जगदीश भोला ड्रग रैकेट की जांच कर रहे प्रवर्तन निदेशालय ने ड्रग्स मामले के आरोपियों में से एक जगजीत चाहल के इस कथित ‘इकबालिया बयान’ कि उसने मजीठिया को चुनावी फंड के रूप में 35 लाख रुपए दिए थे, पटियाला अदालत में उसके विरुद्ध आरोप पत्र दायर किया है। हालांकि मजीठिया ने यह कहते हुए इन आरोपों से इंकार किया है कि उनके विरोधियों एवं प्रवर्तन निदेशालय के कुछ ‘‘निहित स्वार्थों’’ ने चुनिदा जानकारियों को लीक करके उन्हें बदनाम करने के अभियान हेतु विवाद की साजिश गढ़ी है।
 
इस मामले ने तब गंभीर मोड़ हासिल कर लिया जब कांग्रेस विधायक दल के नेता सुनील जाखड़ ने मजीठिया पर आरोप लगाया कि ‘उन्होंने गत विधानसभा सत्र में यह कह कर सदन को गुमराह किया था कि प्रवर्तन निदेशालय ने तो उन्हें गवाह के रूप में तलब किया था न कि आरोपी के रूप में।’ हालांकि एक समय पर मजीठिया के मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग करती रही भाजपा ने इस मुद्दे पर अब ‘हवा का रुख’ देखने की मुद्रा अपना ली है।
 
आने वाले दिनों में मजीठिया मामला क्या रुख धारण करेगा? यही बात हो सकता है पंजाब की ज्वलनशील राजनीति को नया आयाम दे। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बनाए रखने हेतु मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को चाहिए कि वह मजीठिया को नैतिक आधार पर त्यागपत्र देने को कहें। यदि ड्रग घोटाला मामले में वह आरोपों से बरी हो जाते हैं तो बादल उन्हें दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल कर सकते हैं।
 
मजीठिया विवाद मुझे एक विद्वान की उस उक्ति की याद दिलाता है कि ‘‘राजनीतिज्ञ और शिशुओं के पोतड़े अक्सर बदलते रहना चाहिए क्योंकि दोनों का कोई पता नहीं कब गंदे हो जाएं।’’
 
दूसरा विवाद है अकाली दल और भाजपा के बीच मधुर संबंध वास्तविक अर्थों में समाप्त होने के बारे में। हालांकि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल इन्हें ‘आजीवन सहयोगी’ करार देते हैं। हाल ही में हुए स्थानक निकाय चुनावों में दोनों सहयोगियों के बीच तथा आंतरिक स्तर पर कई स्थानों पर हिंसक टकराव हुआ। इन टकरावों में दोनों पार्टियों केे कुछ मंत्री भी संलिप्त थे। दोनों गठबंधन सहयोगियों के बीच मतभेदों की खाई उस समय और भी चौड़ी हो गई जब चालू विधानसभा सत्र हेतु रणनीति गढऩे के लिए बुलाई गई संयुक्त बैठक में शामिल होने से ही भाजपा ने परहेज किया। इस पार्टी को शिकायत थी कि वरिष्ठ सहयोगी ने कई मौकों पर इसे नीचे दिखाया है।
 
आपसी तू-तू, मैं-मैं के बावजूद भी दोनों सत्तारूढ़ सहयोगियों को जिस बात से कुछ राहत मिल सकती है वह है कांग्रेस की अंतर्कलह और गुटबंदी से पैदा हुई इसकी दयनीय स्थिति। अब ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि पार्टी के केंद्रीय व प्रदेश स्तरीय संगठनात्मक ढांचे में नई जान फूंकने के लिए पार्टी हाईकमान अप्रैल में होने वाले सत्र में कठोर कदम उठाएगा। यदि यह पंजाब में आपस में उलझ रहे गुटों के बीच एकता स्थापित करने में सफल रहता है तो 2017 में होने वाले चुनावों में पार्टी हो सकता है सत्तारूढ़ गठबंधन को गंभीर चुनौती देने में सफल रहे।
 
इस स्थिति को गवर्नैंस के मामले में अकाली-भाजपा सरकार की भारी-भरकम त्रुटियों से पैदा हुई एंटी इंकम्बैंसी की भावनाओं की रोशनी में आंके जाने की जरूरत है।
 
सत्तारूढ़ गठबंधन की आपसी छीछालेदर और दोनों सहयोगी दलों की अंतर्कलह से भी बढ़कर सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व को जो बात परेशान कर रही है, वह है मोदी-नीत सरकार का पंजाब को दरपेश समस्याओं (खासतौर पर वित्तीय मोर्चे पर) के प्रति उदासीन रवैया। पार्टी नेतृत्व ने उम्मीद लगाई हुई थी कि राज्य सरकार को प्रचंड वित्तीय संकट में से उबारने के लिए केंद्र विशेष वित्तीय पैकेज प्रदान करेगा। पैकेज तो क्या प्रदान करना था, उलटा केंद्र ने यू.पी.ए. सरकार द्वारा प्रदत्त ग्रांटों के मुद्दे पर राज्य सरकार पर जवाबदेही का दबाव बनाया हुआ है।
 
पंजाब सरकार के लिए यह शर्त पूरी करना टेढ़ी खीर बना हुआ है क्योंकि ढेर सारी ग्रांटें विशिष्ट स्कीम की बजाय या तो किसी अन्य ही उद्देश्य के लिए प्रयुक्त की गई हैं या राज्य सरकार अपना बराबर का हिस्सा अदा न कर पाने के कारण इनका पूरी तरह उपयोग ही नहीं कर पाई, जबकि केंद्रीय मानदंड के प्रयुक्त करने के लिए यही पूर्व शर्त थी।
 
विडम्बना यह है कि पंजाब को दरपेश गंभीर समस्याओं में से निजात दिलाने में मोदी-नीत राजग सरकार की असफलता के बावजूद सत्तारूढ़ अकाली नेतृत्व अक्सर ही इसका स्तुतिगान करता रहा है। यह मनमोहन सिंह नीत यू.पी.ए. सरकार के विरुद्ध पंजाब को वित्तीय व अन्य समस्याओं के लिए सहायता प्रदान के मामले में कथित रूप में ‘भेदभाव’ करने के अकाली दल के हमले से एकदम विपरीत तरह की प्रतिक्रिया है।
 
पंजाब सरकार की बदतर हो चुकी वित्तीय चिंताओं से अधिक जो बात बढ़ती एंटी-इंकम्बैंसी की भावनाओं को हवा दे रही है वह है त्रुटिपूर्ण गवर्नैंस अथवा जैसा कि आलोचक कहते हैं सत्तारूढ़ गठबंधन की गवर्नैंसहीनता। स्थिति की थाह इसी तथ्य से पाई जा सकती है कि जनता के विभिन्न वर्ग चुनावी वायदे पूरे करने में सरकार की विफलता के विरुद्ध रोष प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं। वेतन भुगतान में विलम्ब के विरुद्ध भी कर्मचारी काफी मामलों में प्रदर्शन करते हैं। राज्य के स्कूली व स्वास्थ्य क्षेत्र का आधारभूत ढांचा टूटी-फूटी स्थिति में है और कर्मचारियों की कमी से जूझ रहा है। प्रभावशाली नेताओं के चुनाव क्षेत्रों को छोड़ अधिकतर सरकारी डिस्पैंसरियों के पास न तो पर्याप्त दवाइयां हैं और न ही पर्याप्त स्वास्थ्य कर्मी।
 
जैसा कि अपराधों-खासतौर पर बलात्कारों, छीना-झपटियों व लूटपाट की वारदातों में बढ़ौतरी से संकेत मिलता है-अमन-कानून की स्थिति भी बिगड़ चुकी है। एक्सिस बैंक में 1.34 करोड़ रुपए की डकैती इसका ताजा उदाहरण है। पुलिस हर प्रकार से अकाली नेताओं का राजनीतिक हथटोका बनकर रह गई है।
 
यदि सत्तारूढ़ गठबंधन गवर्नैंस की स्थिति सुधारने में विफल रहता है तो इसको 2017 के चुनाव में इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा और तब लोग दार्शनिक की इस उक्ति पर अमल करेंगे कि ‘‘राजनीतिज्ञों व शिशुओं के पोतड़ों को अक्सर बदलते रहना चाहिए।’’
 

 

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