‘राजस्व’ बढ़ाने हेतु सरकार तलाश करे नए रास्ते

Edited By ,Updated: 16 Mar, 2015 01:47 AM

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क्या चुनाव जीतने का अर्थ यह है कि सत्तासीन पार्टी को इस बात का लाइसैंस मिल जाता है कि वह जनता के धन का मनचाहा इस्तेमाल करे?

(संजीव शुक्ल): क्या चुनाव जीतने का अर्थ यह है कि सत्तासीन पार्टी को इस बात का लाइसैंस मिल जाता है कि वह जनता के धन का मनचाहा इस्तेमाल करे? इस सवाल का जवाब हर शख्स नहीं में ही देना चाहेगा लेकिन इसके बावजूद सरकार में बैठे लोग अपने फायदे के लिए सरकारी धन का दुरुपयोग करते रहते हैं। जहां तक सरकारी खर्च पर निगाह रखने का सवाल है उसके लिए तो नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सी.ए.जी.) है लेकिन जरूरत इस बात की है कि सी.ए.जी. की सिफारिशों के आधार पर कार्रवाई के लिए कोई स्वतंत्र संस्था बनाई जाए जो सरकार से जवाब तलब कर सके। अभी तो स्थिति यह है कि सी.ए.जी. की रिपोर्टें हर साल विधानसभा में पेश होती हैं जिसके बाद में उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है। विपक्षी सदस्य भी उसमें बताई गई खामियों पर सरकार की खिचाई करना पसन्द नहीं करते।

विधानसभा के इसी सत्र में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने सदन को बताया कि 31 दिसम्बर, 2014 को राज्य के सरकारी विभागों पर बिजली के बिलों के रूप में 546.24 करोड़ रुपयों की बकाएदारी थी। अब देखने वाली बात यह है कि सरकारी विभाग करोड़ों रुपए दबाए बैठे हैं, परन्तु कोई पूछने वाला नहीं है, लेकिन साधारण आदमी अगर 100 रुपए का बिल भी अदा करने में चूक जाए तो अगले महीने ही कनैक्शन काट दिया जाएगा। होना तो यह चाहिए कि सरकारी विभागों के मामले में ‘जीरो टॉलरैंस’ की नीति अपनाई जाए ताकि जनता में संदेश अच्छा जाए। 
 
सत्तासीन लोगों की जवाबदेही तय करने संबंधी जिस मुद्दे को ऊपर उठाया गया है बिजली बिल की बात भी उससे सीधी जुड़ी हुई है। बिलों का भुगतान सिर्फ इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि उसके लिए निर्धारित धन कहीं और खर्च किया जा चुका होता है। क्या ऐसे मामलों में जिम्मेदार अधिकारी को आड़े हाथों नहीं लिया जाना चाहिए? सदन में बताया गया कि इस हालत का कारण यह है कि विभागों के बजटों में प्रावधान कम रखा गया था। यह तो और भी गंभीर बात है क्योंकि बजट प्रावधान करना भी सरकार का ही काम है। अब जाहिर है कि सरकार की इस गलती का खमियाजा देर-सवेर बिजली उपभोक्ताओं को ही भुगतना होगा। बिजली कम्पनियों को जो घाटा हुआ उसकी भरपाई के लिए बिजली के दाम बढ़ा कर जनता पर बोझ डाला ही जाएगा।
 
अभी हाल में श्वेतपत्र के जरिए पिछले 10 वर्षों यानी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार के 2 कार्यकालों का जो लेखा-जोखा पेश किया गया यदि वह असली तस्वीर है तो उससे साफ है कि सरकार में बैठे लोग किस बेरहमी से जनता के पैसे को उड़ाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि हुड्डा के सत्ता संभालते समय राज्य करों के रूप में 89.5 प्रतिशत राजस्व अपने संसाधनों से जुटा रहा था, लेकिन पिछले वित्त वर्ष के अन्त में यह घट कर 80.4 प्रतिशत रह गया जिसका अर्थ है कि 10 वर्षों के दौरान करों के रूप में लगभग 20 हजार करोड़ रुपए के राजस्व की कमी। राज्य पर कर्ज निरन्तर बढ़ता रहा। 
 
वर्ष 2004-05 तक 4474 करोड़ रुपए का कर्ज लिया गया था जबकि 2013-14  में 17,773 करोड़ रुपए का कर्ज लिया गया। वर्ष 2004-05 में कर्ज की देनदारी 23,320 करोड़़ रुपए थी जो वर्ष 2013-14 में बढ़ कर 71,305 करोड़ रुपए हो गई, यानी 3  गुणा से भी ज्यादा। इसके परिणामस्वरूप ब्याज की अदायगी की मात्रा में और इसकी कुल राजस्व खर्च की प्रतिशतता दोनों में ही बढ़ौतरी हुई। ब्याज की अदायगी राशि में 260 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ौतरी हुई जोकि 2004-05 में 2235 करोड़ रुपए से बढ़ कर वर्ष 2013-14 में 5850 करोड़ रुपए हो गई। इस वित्त वर्ष की समाप्ति तक राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़ कर लगभग 81 हजार करोड़ रुपए हो जाने का अनुमान लगाया गया है। कांग्रेस के लोगों की दलील है कि कर्जा लेना प्रगति और विकास का सूचक है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या लिए गए कर्ज के अनुपात में, दो-एक जिलों को छोड़ कर, बाकी प्रदेश में विकास दिखाई देता है?
 
हुड्डा ने जब बागडोर संभाली तब राज्य की आकस्मिक देनदारियां 4209 करोड़ थीं, जो 10 साल में बढ़ कर 27,306 करोड़ रुपए हो गईं। यानी 650 प्रतिशत की वृद्धि। ये देनदारियां एक बड़ी चिंता का विषय हैं क्योंकि इनसे वित्तीय स्थिति प्रभावित होती है। हालात खराब होते जाने के कारण ही पिछली सरकार ने वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए सार्वजनिक ऋण लेने का रास्ता अपनाया। यहां तक की पुराने कर्जों के भुगतान के लिए भी कर्ज लिए गए।
 
हरियाणा एक कृषि (प्राथमिक क्षेत्र) प्रदेश माना जाता है और इसी क्षेत्र का हाल यह हुआ कि इसमें नकारात्मक वृद्धि हुई तथा औद्योगिक (द्वितीयक) क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई। इन 2 महत्वपूर्ण क्षेत्रों को प्राथमिकता तथा निवेश की दृष्टि से नजरअंदाज किया गया। सिंचाई के लिए योजनागत आबंटन वर्ष 2004-05 के 13.3 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2013-14 में 5.4 प्रतिशत ही रह गया। वर्ष 2013-14 में सकल राज्य घरेलू उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र का योगदान केवल 15.3 प्रतिशत रहा, जबकि यह क्षेत्र 51.3 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता है। 
 
इसी प्रकार तमाम और भी बिन्दू हैं जिन्हें नजरअंदाज किया गया। अब जरूरत इस बात की है कि नई सरकार लोक-लुभावन घोषणाओं से बचते हुए आधारभूत संरचना के विकास पर ध्यान दे ताकि राजस्व के और नए रास्ते खोजे जा सकें। इसके अलावा जरूरत इस बात की भी है कि उपयुक्त नीति के माध्यम से प्राथमिक क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाई जाए। इसी तरह औद्योगिक विकास के लिए भी नए क्षेत्रों की खोज किया जाना जरूरी है। किफायत भी एक काफी बड़ा जरिया है जिससे खर्चों को कम किया जा सकता है।       
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