नेपाल का भूकम्प : मौत के मुंह से बचकर आ गए

Edited By ,Updated: 04 May, 2015 01:45 AM

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मैं एक कार्यशाला के संबंध में नेपाल में ही थी जब पहला भूकम्प आया। मैं होटल के गुसलखाने से बाहर निकल ही रही थी कि अचानक बत्तियां गुल हो गईं

(नेहा राठी): मैं एक कार्यशाला के संबंध में नेपाल में ही थी जब पहला भूकम्प आया। मैं होटल के गुसलखाने से बाहर निकल ही रही थी कि अचानक बत्तियां गुल हो गईं और धरती हिलने लगी। मैं भी इधर-उधर लुढ़कने लगी। गहरे अंधेरे में पटखनियां खाते हुए मैं किसी तरह वहां तक पहुंच गई जहां दूसरे लोगों के होने की उम्मीद थी। एक सहकर्मी दीवार से सटा खड़ा था। मैं भी उसका व एक अन्य का सहारा लेकर खड़ी हो गई। मुझे लग रहा था कि शायद आतंकियों ने हमला किया है लेकिन जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि यह भूकम्प था।
 
पत्थर और सीमैंट की सिल्लियां नीचे गिर रही थीं। उन कुछ पलों की मुझे पूरी तरह याद तो नहीं लेकिन मेरे सहकर्मियों ने मुझे बताया कि मेरी ‘भागो-भागो’ की चीखें सुनकर वे भी बचाव के लिए भाग पड़े थे। हम लॉन में पहुंचे और वहां पेट के बल लेट गए। भूकम्प के बाद एक बार फिर तेज झटके आए और अनेक मेहमान भाग कर कमरों से बाहर आ गए। तब हम इंटरनैट और फोनलाइनों से पूरी तरह से कट चुके थे। जल्दी ही हमें टैनिस की ग्राऊंडों में ले जाया गया। वहां हम 6 घंटे तक डेरा डाले रहे और जो भी भोजन या पानी उपलब्ध था, होटल के कर्मी हमें पेश करते रहे, हालांकि रसोई के स्टाफ को कई घाव लगे थे। 
 
भूकम्प के झटके अभी भी थम नहीं रहे थे। 6 बजे के करीब ठंड बढऩी शुरू हो गई। होटल के अन्दर पहुंच कर हमें पहली बार पता चला कि कितना नुक्सान हुआ। दीवारों और छतों में बड़ी-बड़ी दरारें आ चुकी थीं। धरती फटी हुई थी। टाइलें उखड़ चुकी थीं। जरूरी सामान, कम्बल, तकिए इत्यादि लेने के लिए हम अपने-अपने कमरे में पहुंचे। मैंने घर वालों से फोन पर बात करने के लिए पागलों की तरह प्रयास किए।
 
बस के सफर कारण हमारे सिर इतने चकराए हुए थे कि हमें लॉन में खुले में सोना काफी मुश्किल लग रहा था। एक बार फिर जोर-जोर के झटके शुरू हो गए। प्रत्येक झटके से पहले पक्षियों का शोर और कुत्तों का भौंकना बढ़ जाता था।
 
फिर बारिश शुरू हो गई और मजबूर होकर हमें अपने सामान सहित अन्दर जाना पड़ा। कभी-कभार 4-5 मिनट  के लिए इंटरनैट चल पड़ता था तो हम इधर-उधर संदेशे भेजने का प्रयास करते। जब भी 2-3 सैकेंड के लिए कोई जोरदार झटका आता, बच्चे रोना शुरू कर देते। हर झटके पर सोए हुए लोग जाग उठते और बाहर की ओर भाग लेते और तब तक झटका समाप्त हो जाता।
अगले दिन अपराह्न 12.30 बजे के करीब मैं 4 अन्य लोगों के साथ हवाई अड्डे के लिए चल दी। हवाई अड्डा भीड़ से भरा हुआ था और हर तरफ गड़बड़ी का आलम था। हम चैक-इन के लिए कतार में लगे हुए बहुत ही सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रहे थे जब दूसरा भूकम्प आया। एयरलाइन के कई कर्मी तो भाग ही गए।
 
इमारतें और लोग  हिचकोले खा रहे थे फिर भी हम अपना सामान पकड़े हुए शांत खड़े रहने का प्रयास कर रहे थे। कुछ ही पलों बाद बत्तियां गुल हो गईं। इस छोटे से हवाई अड्डे में भाग कर जाने के लिए कोई जगह नहीं थी। मैंने अपने फोन पर एक मैसेज छोड़ा, ‘‘मैं आप सबको प्यार करती हूं।’’ मुझे लग रहा था कि बस कुछ ही पलों की बात है, जीवन लीला समाप्त होने वाली है। लेकिन झटके धीरे-धीरे कम हो गए थे और मैं अपनी मां और बहन से फोन पर बात कर सकती थी। 
 
उन दोनों की आवाज रुंधी हुई थी। पास की कतार में खड़े एक यूरोपीय यात्री ने मुझे अपने चश्मे की आड़ में आंसू छिपाते हुए ताड़ लिया और मुझे मौन इशारा किया कि सब कुछ ठीकठाक हो जाएगा। मैंने भी सहमति में सिर हिलाया और उत्तर में मुस्कान बिखेरी। बिल्कुल अजनबी लोग इस तरह के संकेत एक-दूसरे को लगातार दे रहे थे और इसी चीज ने ही उस समय की स्थितियों को एक नया आयाम दिया। 
 
सभी जांचें निपट जाने के बाद हमें ऐसा लग रहा था जैसे सब उड़ानें निलंबित हो गई हैं। हजारों लोग लौंज में तथा रन-वे के आसपास खड़े थे। तभी भारतीय वायुसेना का एक विशालकाय विमान हवाई अड्डे पर उतरा। इस बात को लेकर अफरा-तफरी मची हुई थी कि इस विमान पर सवार होने की अनुमति किन लोगों को मिलेगी। 
 
अधिकारियों ने विश्वास दिलाया कि सभी को ले जाया जाएगा। 7 घंटे तक इंतजार करने के बाद सायं 7.30 बजे हम विमान पर सवार हुए। हम लगभग  325 लोग थे और विमान के फर्श पर ही बैठे थे। हमें कुछ आदेश दिए गए और मौत के मुंह से निकलकर डेढ़ घंटे बाद आखिर हम दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे।                     
 

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