नेपाल त्रासदी : आपदा प्रबंधन के ‘ठोस उपाय’ जरूरी

Edited By ,Updated: 04 May, 2015 10:19 PM

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पिछले सप्ताह नेपाल में एक बड़ी मानवीय त्रासदी हुई जिसमें जन-धन की भारी क्षति हुई। इस त्रासदी में अब तक लगभग 7000 लोग मारे जा चुके हैं

(पूनम आई. कौशिश): पिछले सप्ताह नेपाल में एक बड़ी मानवीय त्रासदी हुई जिसमें जन-धन की भारी क्षति हुई। इस त्रासदी में अब तक लगभग 7000 लोग मारे जा चुके हैं और मृतकों की संख्या कही अधिक हो सकती है क्योंकि मलबे में से अभी भी निरंतर कई शव निकल रहे हैं। हजारों लोग घायल हुए हैं और जो लोग जीवित हैं उनके समक्ष जीवन का संकट पैदा हो गया है। इस त्रासदी ने आदमी को असहाय साबित कर दिया है और वह सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ रहा है। नेपाल में आए भयंकर भूकंप से एक बार पुन: भारत में ऐसी ही आपदाओं से निपटने के लिए उपाय करने की आवश्यकता को उजागर किया है। हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी को भुज भूकम्प का अनुभव था। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान 2001 में भुज में भयंकर भूकम्प आया था और हाल ही में कश्मीर में बड़ी त्रासदी देखने को मिली। इसीलिए उन्होंने नेपाल त्रासदी पर तुरंत कदम उठाए। 

किन्तु यह पर्याप्त नहीं है। भारत में 1974 से अब तक 9 बड़े भूकम्प आ चुके हैं। 25 अप्रैल को अंडेमान निकोबार में भी भूकम्प आया और उसमें हमें देखने को मिला कि ऐसी आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारियां पर्याप्त नहीं हैं। हमारे देश का 85 प्रतिशत भू-भाग भूकम्प, बाढ़, सूखा, चक्रवात, तूफान, भूस्खलन, आदि प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त रहता है। इसलिए हमें इन आपदाओं से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार रहना होगा। 
 
गत 25 वर्षों में हमारे देश में भूकम्प में 25,000 से अधिक  लोग मारे गए हैं और उनमें से 85 प्रतिशत से अधिक लोग मकानों के गिरने से मरे हैं क्योंकि हमारे शहरों में 85 प्रतिशत मकान प्राधिकारियों से उचित मंजूरियों के बिना बनाए जाते हैं। इन आपदाओं में 5 करोड़ से अधिक लोग प्रति वर्ष प्रभावित होते हैं। ये तथ्य राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने उजागर किए हैं। इसका एक मुख्य कारण यह है कि देश में आपदा प्रबंधन को सुशासन का अपरिहार्य अंग और विकास नियोजन का हिस्सा नहीं माना जाता है। इस इंटरनैशनल सैंटर फॉर इंटेग्रेटिड माऊंटेन डिवैल्पमैंट के विशेषज्ञों के अनुसार हमारे देश में दीर्घकालीन उपाय नहीं किए गए हैं क्योंकि यहां माना जाता है कि पैसा मंजूर कर प्राधिकारियों का कार्य पूरा हो गया किन्तु आपदाओं की स्थिति में नुक्सान के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा? 
 
हैरानी की बात यह है कि यद्यपि 2005 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना की गई और उसे संसाधनों के आबंटन और आपदा प्रबंधन के पर्यवेक्षण की शक्ति दी गई है, साथ ही उसे राहत और बचाव के लिए आपदा अनुक्रिया बल तैनात करने की शक्ति भी दी गई किन्तु यह कुछ राज्यों में केवल कागजों तक ही सीमित है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना को अभी प्रधानमंत्री कार्यालय की स्वीकृति नहीं मिली है। साथ ही इस कागजी शेर को देश में भूकम्प प्रवण क्षेत्रों में अध्ययन करने का अधिकार नहीं है। यह केवल ऐसे दिशा-निर्देश जारी कर सकता है कि भारत को आपदा से निपटने के लिए क्या  उपाय करने चाहिएं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अलावा 3 अन्य एजैंसियां आपदा प्रबंधन संस्थान, मौसम विभाग और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय एक-दूसरे से स्वतंत्र होकर कार्य करते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान का कार्य नीति-नियोजन और जागरूकता पैदा करना है, जबकि मौसम विभाग और मंत्रालय 30 शहरों का सर्वेक्षण करता है। 
 
इनमें से किसी को भी जोखिम प्रबंधन की तैयारियों की स्थिति, स्थानीय स्तर पर जोखिम के आकलन, मानकों और विनियमनों के प्रवर्तन, पूर्व चेतावनी, देश के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जोखिम कम करने के उपायों आदि के बारे में जानकारी नहीं है। हालांकि प्रत्येक राज्य यह दावा करता है कि उसके यहां आपदा प्रबंधन विभाग हैं और राहत और पुनर्वास का ढांचा है। इसका एक उदाहारण देखिए। भारत को 5 भूकम्प जोनों में बांटा गया है। दिल्ली जोन 4 में है किन्तु दिल्ली में झुग्गी-झोंपड़ी, अनधिकृत बस्तियां, अवैध निर्माण, विशेषकर पुरानी दिल्ली और यमुना पार के क्षेत्रों में बाहर तक निकली हुई बड़ी-बड़ी बालकनियां, यमुना के खादर क्षेत्र में निर्माण आदि से यदि यहां कोई बड़ा भूकम्प आया तो बड़ी त्रासदी हो सकती है। आई.आई.टी. रुड़की के अनुसार यदि यहां कोई बड़ा भूकम्प आया तो यहां के मकान ताश के पत्तों के ढेर की तरह गिरेंगे। साथ ही संकरी गलियों के कारण यहां तलाशी और बचाव कार्य लगभग असंभव हो जाएगा। 
 
आपदा प्रबंधन योजना 2013 के अनुसार यदि शिमला में 7.5 से अधिक क्षमता का भूकम्प आता है तो वहां 98  प्रतिशत भवन या तो गिर जाएंगे या उन्हें भारी नुक्सान पहुंचेगा और इस स्थिति को नौकरशाही की उदासीनता तथा राजनीतिक निष्क्रियता ने और भी बढ़ा दिया है क्योंकि इनके चलते देश के किसी भी शहर में 90 प्रतिशत से अधिक भवन बिना आवश्यक मंजूरियों के बनाए जाते हैं। अक्सर कहा जाता है कि इन आपदाओं से निपटने में भारत की तैयारियों के अभाव का कारण संसाधनों की कमी है। यहां पर आपदा प्रचालन केन्द्र नहीं हैं, न ही तलाशी और बचाव के लिए प्रशिक्षित जनशक्ति है तथा इसका कारण पैसे की कमी नहीं है क्योंकि 2010 से लेकर आज तक केन्द्र सरकार ने आपदा प्रबंधन के लिए 5 बिलियन डालर आबंटित किए हैं जिसमें केन्द्र का हिस्सा 75 प्रतिशत है।
 
किन्तु इसका मुख्य कारण नीति निर्माताओं, नीति को कार्यान्वित करने वालों और सरकार का जोखिम प्रबंधन प्रणालियों के विभिन्न स्तरों पर जनोन्मुखी तैयारियां करने के लिए निवेश करने के प्रति दृष्टिकोण है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने न जाने क्यों सैंसर परियोजना को बंद कर दिया है। नियंत्रक महालेखा परीक्षक की 2010 की रिपोर्ट में आपदा प्रबंधन में देश की तैयारियों की कमी पर खिन्नता व्यक्त की गई है तथा देश में आसन्न आपदाओं के प्रति चेतावनी दी गई है। जिनमें पारिस्थितिकी को नुक्सान भी शामिल है। जिनका मुख्य कारण वनों की कटाई, पहाडिय़ों की ढलानों में भूक्षरण, नदी तटों पर भूक्षरण तथा नदी तटों पर अनियंत्रित भवन निर्माण है। 
 
नेपाल में इस भूकम्प में मरने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि इस बात को दर्शाती है कि हमें अपनी यह उदासीनता दूर करनी होगी और आपदा प्रवण क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित कर वहां राहत, बचाव और पुनर्वास के समुचित उपाय करने होंगे। सबसे पहले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन नीति में संशोधन करना होगा और इसमें निवारण, उपशमन, तैयारी, आपदा पूर्व उपाय, अतिरिक्त वित्तीय आबंटन आदि पर ध्यान देना होगा ताकि आपदा पश्चात राहत और पुनर्वास को भी आपदा प्रबंधन में शामिल करना होगा। इसके अलावा नीति-निर्माताओं, प्रशासकों, भवन निर्माताओं, इंजीनियरों और वित्तीय संस्थानों में आपदा के प्रभाव को कम करने के बारे में जागरूकता पैदा करनी होगी। समुचित विनियमन कानून और नियम बनाने होंगे। भवन विनियमों और उपनियमों में सुधार करना होगा एवं विभिन्न स्तरों पर प्रवर्तन तंत्र को सुदृढ़ करना होगा। 
 
आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार को अनुसंधान, नीति निर्माण और पर्यावरण के क्षेत्र के विशेषज्ञों को शामिल करना होगा जो पारिस्थितिकी समस्याओं का मूल्यांकन करेंगे तथा संदर्भ के अनुसार अध्ययन करेंगे और उन्हें निर्णय लेने तथा नीति निर्माण की प्रक्रिया में शामिल करना होगा। इस कार्य में बढ़ती जनसंख्या के  कारण उत्पन्न समस्याओं और स्थानीय पारिस्थितिकीय पर इसके प्रभाव, भवनों के अनियंत्रित निर्माण, पर्यावरण प्रदूषण आदि पर ध्यान देना होगा। इसके लिए हमें देश को छोटे-छोटे जोनों में बांटकर सर्वेक्षण करना होगा, भवनों को भूकम्प रोधी बनाना होगा, लोगों को जागरूक करना होगा कि भूकम्प,  बाढ़, तूफान जैसी स्थिति मेंं क्या कदम उठाएं? एक प्रभावी संचार तंत्र स्थापित करना होगा और राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरों पर एक संस्थागत तंत्र स्थापित कर उसे राहत कार्यों में सलाह और सहायता करने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाओं में संशोधन करना होगा व प्रत्येक जीवन के मूल्य को समझना होगा अन्यथा हमें ऐसी आपदाओं में जान-माल की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। 
 
आई.आई.टी. दिल्ली के एक भूकम्प विशेषज्ञ के अनुसार, ‘‘भारत निरंतर उत्तर में तिब्बत की ओर बढ़ रहा है। इसलिए 2020 तक अफगानिस्तान से लेकर अरुणाचल और अंडेमान तक विशेषकर सघन जनसंख्या वाले गंगा-यमुना बेसिन में भारी विनाश हो सकता है। हम यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि इस क्षेत्र में भूकम्प आएगा और उसकी तीव्रता क्या होगी किंतु हम यह नहीं बता सकते हैं कि यह कब आएगा?’’ अत: स्पष्ट है कि नेपाल भूकम्प धरती माता की ओर से दिया गया एक स्पष्ट संकेत है कि ऐसे और बड़े भूकम्प आ सकते हैं। क्या भारत टैक्टोनिक प्लेटों के खिसकने के प्रभाव को झेल पाएगा? क्या यह जीवन चक्र इससे उत्पन्न त्रासदी को झेल पाएगा या हमें भी मौत का सामना करना पड़ेगा?   
 
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