जिला अदालतों के ‘वित्तीय क्षेत्राधिकार’ में वृद्धि जरूरी

Edited By ,Updated: 23 May, 2015 01:30 AM

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मई के प्रथम सप्ताह में दिल्ली उच्च न्यायालय (संशोधन) बिल 2015 राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया। इस संशोधन कानून में मुख्य परिवर्तन दिल्ली की अदालतों के वित्तीय क्षेत्राधिकार को लेकर किया गया है।

(विमल वधावन): मई के प्रथम सप्ताह में दिल्ली उच्च न्यायालय (संशोधन) बिल 2015 राज्यसभा द्वारा पारित कर दिया गया। इस संशोधन कानून में मुख्य परिवर्तन दिल्ली की अदालतों के वित्तीय क्षेत्राधिकार को लेकर किया गया है। अब तक 20 लाख रुपए से कम राशि के मुकद्दमे जिला अदालतों में प्रस्तुत किए जाते हैं और 20 लाख रुपए से अधिक राशि के मुकद्दमे सीधा पहली बार में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं। यदि यह संशोधन कानून लोकसभा के द्वारा भी पारित कर दिया जाता है तो  राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद 2 करोड़ रुपए की राशि तक के मुकद्दमे दिल्ली के जिला न्यायालयों में प्रस्तुत किए जा सकेंगे। दिल्ली उच्च न्यायालय केवल 2 करोड़ से अधिक राशि के मुकद्दमे सुनेगी। 
 
इस विषय को अदालतों का वित्तीय क्षेत्राधिकार कहा जाता है क्योंकि राशि के अनुसार यह निर्धारित होता है कि मुकद्दमा दिल्ली की जिला अदालत में जाएगा या दिल्ली उच्च न्यायालय में। पंजाब के विभाजन के बाद 1966 में दिल्ली उच्च न्यायालय का गठन किया गया था। दिल्ली की जिला अदालतें दिल्ली उच्च न्यायालय के अधीन आ गईं। जिला अदालतों तथा दिल्ली उच्च न्यायालय में वित्तीय क्षेत्राधिकार समय-समय पर संशोधित होता रहा है। 
 
1966 में 25 हजार रुपए की कीमत तक के मुकद्दमे जिला अदालतों में प्रस्तुत होते थे। जबकि 25 हजार रुपए से अधिक राशि के मुकद्दमों की सुनवाई दिल्ली उच्च न्यायालय करता था। 1970 में यह वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा बढ़ाकर 50 हजार रुपए कर दी गई। 1980 में यह सीमा एक लाख रुपए, 1992 में 5 लाख रुपए तथा 2003 में 20 लाख रुपए कर दी गई।
 
दिल्ली के जिला न्यायालयों का विभाजन भी अब 6 जिला अदालतों के बीच कर दिया गया है - तीस हजारी, पटियाला हाऊस, शाहदरा, रोहिणी, द्वारिका और साकेत। दिल्ली की इन सभी जिला अदालतों के बार संगठनों ने एक समन्वय समिति बनाकर काफी समय से वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा 20 लाख से बढ़ाकर 2 करोड़ रुपए करने का आन्दोलन छेड़ रखा था। लगभग एक माह से तो दिल्ली के वकील इस आन्दोलन को निर्णायक स्थिति में ले आए जिसके फलस्वरूप कानून मंत्री श्री सदानंद गौड़ा ने इस वित्तीय क्षेत्राधिकार विषय का संशोधन बिल राज्यसभा में प्रस्तुत किया जिसे राज्यसभा ने तुरन्त पारित भी कर दिया। इससे पूर्व यह बिल लोकसभा में भी प्रस्तुत किया गया था परन्तु राजनीतिक कारणों से इसे वापस ले लिया गया। 
 
मई प्रथम सप्ताह में जैसे ही यह बिल राज्यसभा से पास हुआ, वैसे ही सारी दिल्ली के वकीलों के टैलीफोन एस.एम.एस. की घंटियों से गूंजने लगे जिनमें शुभकामनाओं और बधाइयों का आदान-प्रदान किया जा रहा था। परन्तु इसके एक दिन बाद ही दिल्ली उच्च न्यायालय बार संगठन ने हड़ताल घोषित कर दी। उच्च न्यायालय के अधिवक्ता अब इस संशोधन के विरोध में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। इस विरोध को देखते हुए जिला अदालतों के बार संगठनों की समन्वय समिति ने भी अपनी हड़ताल को तब तक जारी रखने का निर्णय लिया है जब तक यह संशोधन पूर्ण कानून बनकर लागू न कर दिया जाए। पूर्ण कानून बनने के लिए इसे अभी लोकसभा में पारित होने के बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता है। दो स्तर के बार संगठनों की इस लड़ाई के कारण वित्तीय क्षेत्राधिकार पर चिन्तन आवश्यक हो गया है। 
 
आज के आॢथक हालात को देखते हुए 20 लाख रुपए की राशि कोई महत्व नहीं रखती। सामान्य मुकद्दमे भी 20 लाख रुपए से अधिक राशि के होने के कारण दिल्ली उच्च न्यायालय में प्रस्तुत करने पड़ते हैं जिसके कारण दिल्ली उच्च न्यायालय में मुकद्दमों का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। इस संशोधन के लागू होने से दिल्ली उच्च न्यायालय में लम्बित अनुमानत: 12 हजार मुकद्दमे जिला अदालतों को स्थान्तरित किए जा सकते हैं। 
 
इस संशोधन की स्वीकृति दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ अर्थात् समस्त न्यायाधीशों की बैठक में 21 नवम्बर, 2012 को प्रदान कर दी गई थी। केन्द्रीय कानून मंत्रालय तथा संसद की समिति ने भी इस संशोधन को नवम्बर, 2014 में स्वीकार कर लिया था। इस संशोधन को भारतीय संसद द्वारा ही पारित किया जाना है क्योंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है। मुम्बई तथा कलकत्ता में इस प्रकार के संशोधन राज्य विधानसभा द्वारा ही पारित किए गए हैं। 
 
वित्तीय क्षेत्राधिकार सीमा राशि का संशोधन आंकड़ों की दृष्टि से भी उचित प्रतीत होता है।  वित्तीय क्षेत्राधिकार की सीमा 20 लाख से बढ़ाकर 2 करोड़ रुपए करना मुकद्दमों के शीघ्र निपटारे की दृष्टि से भी न्यायोचित ही है।  अभी तो जिला अदालतों के अधिवक्ता केवल 2 करोड़ रुपए की राशि तक के मुकद्दमों को जिला अदालतों में लाने के लिए संघर्षरत हैं, जबकि वास्तविकता में श्री मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में व्यापारिक न्यायालय कानून बनाने का प्रयास चल रहा था जिसमें 5 करोड़ से अधिक राशि के मुकद्दमों के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित करने का प्रावधान था। यह कानून बड़े-बड़े व्यापारिक और औद्योगिक संस्थानों के दबाव में तैयार किया जा रहा था।
 
भारत के लगभग सभी राज्यों में (केवल चार महानगरों को छोड़कर) जिला अदालतों के पास सीमारहित वित्तीय क्षेत्राधिकार  हैं। इसका अभिप्राय यह है कि मुकद्दमा चाहे एक लाख का हो या 100 करोड़ का, प्रत्येक मुकद्दमे का प्रथम स्तर जिला अदालत ही निर्धारित है।  
 
जिला अदालतों में वकालत करने वाले वकीलों की शिक्षा और प्रशिक्षण भी उच्च स्तर का नहीं होता। यह कमी तो बार कौंसिल द्वारा कानून की शिक्षा में व्यापक परिवर्तन करने से ही पूरी हो सकती है। दिल्ली की जिला अदालतों में अधिकतर वातानुकूलन, कम्प्यूटर तथा बिजली-पानी की सुविधाओं में कोई कमी नहीं है। अधिवक्ताओं के प्रशिक्षण और अनुभव स्तर को लेकर भी यहां इतना अधिक नकारात्मक वातावरण नहीं हैं। दिल्ली की जिला अदालतें किसी दृष्टि से भी उच्च न्यायालय से कम नहीं हैं। सरकार को तो बल्कि यह प्रयास करना चाहिए कि सारे देश की जिला अदालतों का वातावरण इसी प्रकार तैयार हो। 
 
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