मोदी-ममता ‘सहयोग’ बंगाल के लिए हितकर

Edited By ,Updated: 25 May, 2015 12:51 AM

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजा पश्चिम बंगाल यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की उनके साथ मुलाकातें और उद्घाटनी समारोह में उपस्थिति राज्य में चर्चा का विषय बनी हुई है।

(बचन सिंह सरल): प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजा पश्चिम बंगाल यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की उनके साथ मुलाकातें और उद्घाटनी समारोह में उपस्थिति राज्य में चर्चा का विषय बनी हुई है। यह बात आमतौर पर कही जा रही है कि शारदा चिटफंड घोटाले की जांच कर रही सी.बी.आई. के शिकंजे से तृणमूल कांग्रेस को बचाने हेतु ममता बनर्जी ने नरेन्द्र मोदी से घनिष्ठता पैदा करने का प्रयास किया।

दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि संसद में महत्वपूर्ण सरकारी विधेयक पारित करवाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने ममता की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। ये दोनों बातें अपने आप में स्पष्ट नहीं हैं, केवल अटकलों पर आधारित हैं।
 
ममता ने मोदी के साथ राजभवन में अकेले बैठकर क्या विचार-विमर्श किया, उसके बारे में अभी तक पता नहीं चला है। मोदी-ममता मुलाकात की माकपा, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने आलोचना की है। इस आलोचना का उत्तर देते हुए ममता बनर्जी ने कहा : ‘‘जब मैं मोदी से नहीं मिलतीं तो ये लोग कहते हैं कि मैं प्रदेश के विकास के विरुद्ध हूं और यदि मैं मोदी से मुलाकात करती हूं तो आरोप लगाते हैं कि मैं भाजपा के नजदीक जा रही हूं।’’
 
ममता के इस कथन में काफी वजन है क्योंकि इस समय उनके पास जो राजनीतिक ताकत है, उसके चलते उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भाजपा ने उन पर अपना दबाव बनाने के लिए शारदा चिटफंड घोटाले को उछालते हुए सी.बी.आई. का हौवा दिखाने का प्रयास किया है। ममता इस बात को अच्छी तरह समझती हैं कि भाजपा से समीपता बढ़ाने का तात्पर्य होगा अल्पसंख्यक समुदाय को नाराज करना। पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत मुस्लिम वोट ममता बनर्जी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैसियत रखते हैं और इसीलिए वह किसी भी कीमत पर इन्हें गंवाने को तैयार नहीं।
 
2011 में सत्तासीन होने पर ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के विकास पर ध्यान केन्द्रित करने के प्रयास किए थे लेकिन माकपा के नेतृत्व में 35 वर्ष तक सत्तासीन रही वाम मोर्चा सरकार प्रदेश पर जिस ऋण का बोझ छोड़ कर गई थी वह ममता के रास्ते का रोड़ा बना हुआ था। इस ऋण के ब्याज की वसूली रुकवाने के लिए ममता ने मनमोहन सिंह की यू.पी.ए. सरकार को निवेदन किए, लेकिन उनकी कोई सुनवाई न हुई। अब ममता बनर्जी मोदी सरकार से भी यही मांग कर रही हैं लेकिन अभी तक इस सरकार ने भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं दिया है। 
 
ममता ने स्पष्ट रूप में कहा है : ‘‘मैं न मोदी के समीप हूं और न ही उनसे दूर। मैं तो संघीय व्यवस्था के पक्ष में हूं और प्रदेश का विकास चाहती हूं।’’ अब इस बात को कोई ममता का भाजपा के करीब जाने का प्रयास समझे या मोदी की ममता से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश। असली बात यह है कि प्रदेश के विकास के लिए केन्द्र और राज्य सरकार के बीच समीपता जरूरी है। यदि ममता बनर्जी ने इस दिशा में कदम उठाया है तो यह उचित ही है।
 
प्रश्र पैदा होता है कि यह घनिष्ठता स्थायी कैसे बनी रह सकती है? केन्द्र में मोदी सरकार के सत्तासीन होते ही पश्चिम बंगाल के भाजपाइयों ने खरमस्ती दिखानी शुरू कर दी। बाहर से आकर प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व करने वाले भाजपा नेताओं ने तृणमूल कांग्रेस व अन्य पार्टियों के नेताओं के विरुद्ध घटिया शब्दावली प्रयुक्त करनी शुरू कर दी। 2016 में बंगाल विधानसभा के चुनाव होने हैं। भाजपा नेता इतराए हुए थे कि इस चुनाव में भाजपा ही विजयी होगी इसलिए उन्होंने ‘भाग ममता भाग’ का नारा लगाना शुरू कर दिया। भाजपा इस भ्रम में थी कि वह धर्म-आधारित राजनीति के बूते तृणमूल कांग्रेस को पछाड़ देगी। उसे यह भी बोध न रहा कि पश्चिम बंगाल में राजनीति सिद्धांतों और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है।
 
इस मामले में कोलकाता नगर निगम के चुनाव भाजपा की प्रथम परीक्षा थे लेकिन इन चुनावों के परिणामों ने उसे धूल चटा दी। इसके अलावा सम्पूर्ण पश्चिम बंगाल में एक भी नगर पालिका उसके नियंत्रण में न आई। इन परिणामों से भाजपा को समझ लेना चाहिए कि 2016 के विधानसभा चुनाव में उसका हश्र क्या होगा। अधिक से अधिक यह हो सकता है कि चुनाव में यह दूसरे नम्बर की पार्टी बन जाए। 
 
माकपा सहित अन्य वामपंथी पाॢटयों की कमर टूट चुकी है और उन्हें फिर से पैरों पर खड़ा होने के लिए अभी कुछ समय लगेगा। कांग्रेस की हालत भी इससे बेहतर नहीं। कोलकाता नगर निगम तथा नगरपालिका चुनावों में ये पाॢटयां पूरी तरह धराशायी हो गई हैं। इस स्थिति का लाभ भाजपा को अवश्य मिल सकता है लेकिन उसे ममता बनर्जी का अवांछित विरोध छोड़ कर प्रदेश के विकास हेतु उनके साथ सहयोग का रास्ता अपनाना होगा। 
 
आखिर कामरेड ज्योति बसु और इंदिरा गांधी के बीच ऐसी ही परस्पर सूझबूझ कायम थी और इसी के बूते उनकी पार्टी ने पश्चिम बंगाल में लगातार 35 वर्ष तक शासन किया।
 
वर्तमान स्थिति की यह मांग है कि मोदी सरकार और ममता बनर्जी के मध्य भी परस्पर सहयोग हो। भाजपा के पास नि:संदेह लोकसभा में भारी बहुमत है और उसे सरकार चलाने के लिए किसी के सहारे की जरूरत नहीं, लेकिन राज्यसभा में स्थिति ऐसी नहीं है। वहां उसे तृणमूल कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय पाॢटयों पर समर्थन के लिए निर्भर रहना पड़ता है।
 
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी की जड़ें बहुत मजबूत हैं। भाजपा के लिए उन्हें हिलाना कोई आसान काम नहीं, इसलिए केन्द्र और प्रदेश सरकार के बीच सहयोग ही हितकर होगा। पश्चिम बंगाल के विकास हेतु केन्द्र से पूरी सहायता मिलनी जरूरी है। दूसरी ओर केन्द्र सरकार की लोक-हितैषी नीतियों के लिए तृणमूल कांग्रेस से सहयोग की जरूरत है।
 
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