‘बेताल’ की तरह लटक रहा अलग हरियाणा हाईकोर्ट का मुद्दा

Edited By ,Updated: 01 Jun, 2015 10:40 PM

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हरियाणा को अपने लिए अलग हाईकोर्ट मांगते हुए 13 साल हो गए हैं लेकिन यह मुद्दा आज भी बेताल की तरह पेड़ पर ही लटका हुआ है।

(संजीव शुक्ल): हरियाणा को अपने लिए अलग हाईकोर्ट मांगते हुए 13 साल हो गए हैं लेकिन यह मुद्दा आज भी बेताल की तरह पेड़ पर ही लटका हुआ है। मजेदार बात यह है कि इन वर्षों में ज्यादातर हालात ऐसे रहे हैं कि या तो केन्द्र व राज्य दोनों ही जगह एक ही दल की सरकारें रहीं है या फिर सहयोगी दलों की, लेकिन पेड़ पर लटके बेताल की समस्या न कोई दल और न ही कोई सरकार हल कर पाई, जबकि इस मांग के हक में प्रदेश विधानसभा दो बार प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। अब नई सरकार ने मुद्दा फिर से उठाया है।  
 
अधिकारियों का कहना है कि जब हरियाणा बना था तो पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के भाग-2 में व्यवस्था की गई थी कि पंजाब तथा हरियाणा का एक ही हाईकोर्ट होगा। जाहिर है कि इस व्यवस्था में बदलाव के लिए केन्द्र को ही कानून में संशोधन करना पड़ेगा। यदि दोनों राज्य अलग हाईकोर्ट के लिए तैयार न होते तब तो समस्या थी कि अलग कोर्ट कैसे बनाया जाए, लेकिन मौजूदा हालातों में यह बात समझ में नहीं आती कि हरियाणा के बार-बार मांग करने के बावजूद उसे अलग हाईकोर्ट क्यों नहीं दिया जा रहा है?
 
पहले मार्च 2002 और फिर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार दिसम्बर 2005 में राज्य विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केन्द्र को भेज चुकी है लेकिन हो कुछ भी नहीं रहा। यही नहीं, मार्च 2006 में तत्कालीन केन्द्रीय कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज जब हरियाणा से राज्यसभा के लिए पर्चा भरने आए थे तो उन्होंने कहा था कि केन्द्र अलग हाईकोर्ट बनाने के लिए वचनबद्ध है और इस पर बड़ी गंभीरता से विचार चल रहा है, लेकिन आज तक हुआ कुछ भी नहीं। 
 
इस मसले में अड़चन क्या है इस बारे में अधिकारी बताते हैं कि चूकि पंजाब तथा हरियाणा की राजधानी एक है इसलिए अलग-अलग हाईकोर्ट बनने में समस्या आ रही है। बाकी राज्यों में सभी की राजधानियां अलग-अलग हैं इसलिए वहां कोई समस्या नहीं है।
 
जब दोनों राज्य अलग हुए थे तो कई सालों तक कोई समस्या महसूस नहीं की गई लेकिन बाद में आबादी के साथ लोगों में जागरूकता बढऩे, कानून और अपने अधिकारों प्रति जागृति आने के बाद से कोर्टों में मुकद्दमों की संख्या बढऩी शुरू हो गई। हाईकोर्ट में जजों की संख्या पूरी न होने से भी यह समस्या अधिक बढ़ी है। पिछले महीने दिल्ली में मुख्य न्यायाधीशों व मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने फिर से इस मामले को उठाते हुए बताया था कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में 2.79 लाख से अधिक मुकद्दमे लंबित हैं जिनमें से हरियाणा के 1.40 लाख तथा पंजाब के 1.24 लाख हैं।
 
यहां के हाईकोर्ट में पंजाब तथा हरियाणा के बीच क्रमश: 60:40 के अनुपात की बात कही जाती है लेकिन हरियाणा की शिकायत है कि उसे बैंच पर अनुपातिक प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिला। वर्ष 2004 में हरियाणा के तत्कालीन वित्त मंत्री सम्पत सिंह ने दिल्ली में ‘21वीं शताब्दी में न्याय परिदृश्य’ विषय पर मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में कहा था कि राज्य ने गत 20 वर्षों में न्यायालय व आवासीय भवनों के निर्माण, उनमें फेरबदल व अतिरिक्त आवासीय सुविधा जुटाने तथा उनके नवीनीकरण पर लगभग 100 करोड़ का खर्च किया है। इसमें भूमि के लिए किया गया भारी खर्च शामिल नहीं है। उन्होंने कहा था कि सीमित संसाधनों के कारण न्यायिक आधारभूत संरचना के विकास पर राज्य सरकार को अपनी अन्य योजनाओं में कटौती करके धन जुटाना पड़ता है।
 
उन्होंने आंकड़े देते हुए बताया था कि केन्द्र से कम सहायता प्राप्त होने के बावजूद राज्य ने अपनी तरफ से अतिरिक्त धन खर्च किया। वर्ष 1993-1994 से 2003-2004 के बीच प्रदेश को 1040 लाख रुपए आबंटित हुए थे। इस आधार पर राज्य को 2080 लाख खर्च करने थे लेकिन खर्च हुए 4987 लाख। वर्ष 2003-04 में केन्द्र ने 137 लाख दिए, जबकि राज्य सरकार ने न्यायालय भवनों और न्यायिक अधिकारियों के लिए आवासीय भवनों के निर्माण पर 589 लाख खर्च किए। 2002-2003 में 129 लाख रुपए केन्द्र से मिले, जबकि राज्य ने 684 लाख रुपए खर्च किए। वर्ष 2001-2002 और 2000-2001 के दौरान 876 लाख व 791 लाख खर्च किए गए, जबकि केन्द्र से क्रमश: 114 लाख और 118 लाख रुपए ही मिले।
 
ये सारे हालात व तथ्य इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि हरियाणा की मांग पूरी तरह से जायज है। उसका हाईकोर्ट अलग होना चाहिए। केन्द्र को इस मांग को पूरा करने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना ही चाहिए। समस्या को ‘बड़ी जटिल’ बताकर उस पर मिट्टी डालने से काम नहीं चलेगा। यह आज अगर हल नहीं की गई तो भविष्य में और भी जटिल हो जाएगी। तब क्या होगा? क्या तब भी इसे इसी तरह टाला जाता रहेगा?    
 

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