मोदी की चीन यात्रा : सीमा विवाद पर कोई नई बात सामने नहीं आई

Edited By ,Updated: 09 Jun, 2015 04:18 AM

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‘‘सम्पर्क, संवाद, परिणाम....’’ यानी कि दौरा, वार्तालाप और नतीजे। भारतीय जनता पार्टी नीत राजग की सरकार का सत्ता में एक वर्ष पूरा होने पर केन्द्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इन तीन शब्दों में अपने मंत्रालय की उपलब्धियों को रेखांकित किया।

(सुहासिनी हैदर): ‘‘सम्पर्क, संवाद, परिणाम....’’  यानी कि दौरा, वार्तालाप और नतीजे। भारतीय जनता पार्टी नीत राजग की सरकार का सत्ता में एक वर्ष पूरा होने पर केन्द्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इन तीन शब्दों में अपने मंत्रालय की उपलब्धियों को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि किस प्रकार सरकार ने 101 देशों के साथ सम्पर्क जोड़ा है। फिर भी इनमें से आदान-प्रदान उन 18 देशों के साथ ही हुआ है, जहां  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यात्रा पर गए हैं। उनकी इन विदेशी यात्राओं में से सबसे अधिक अपेक्षित उनकी गत माह की चीन यात्रा ही थी। 

मूल रूप में प्रधानमंत्री की चीन यात्रा का उद्देश्य भारत-चीन रिश्तों में सुधार लाना था क्योंकि गत एक वर्ष दौरान दिखावे के तौर पर चाहे दोनों सरकारें कुछ भी करती रही हों, फिर भी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) तथा दक्षिण चीन सागर के संबंध में विवाद उभरते ही रहे हैं। लद्दाख की चुमार घाटी पर एल.ए.सी. को लेकर तीन माह तक भड़के विवाद ने सितम्बर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा पर भी अपनी केतु छाया डाली थी। उसके बाद उपमहाद्वीप में एक अन्य विवाद हिन्द महासागर में चीनी पनडुब्बियों की उपस्थिति को लेकर उठा, जो श्रीलंका में बहुत ही प्रत्यक्ष रूप में सामने आया था। 
 
नेपाल के भूकम्प के मद्देनजर भारत-चीन दोनों द्वारा राहत प्रयासों के अन्तर्गत उठाए गए कदमों पर भी विवादों की छाया पड़ती रही। मार्च 2015 में मोदी की हिन्द महासागर में स्थित द्वीप राष्ट्रों सैशल्स, श्रीलंका और मारीशस की यात्रा तथा बंगलादेश और अफगानिस्तान को ऋण उपलब्ध कराने के प्रयासों को जनता की नजरों में गलत रूप में पेश करते हुए इन्हें चीन के प्रभाव को नकारने की नीति के रूप में प्रचारित किया गया।
 
पड़ोसी देशों की समस्याओं के विषयों में सुश्री स्वराज ने स्पष्ट किया कि ‘भारतीय क्षेत्र में से’ गुजरने वाले 46 बिलियन डालर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की योजना से भारत काफी व्यथित है। उन्होंने कहा कि मोदी की चीन यात्रा से ऐन कुछ ही सप्ताह पूर्व चीनी राष्ट्रपति शी द्वारा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में 870 मैगावाट की जल विद्युत योजना तथा हवेलियां-थकोट राजमार्ग की घोषणा किया जाना चिन्ताजनक और रहस्यपूर्ण है। 
 
अंतिम रूप में जिस विवाद ने चीन को सबसे अधिक परेशान किया, वह था दक्षिणी चीन सागर में भारत की नीति में स्पष्ट तौर पर अमरीका और जापान के पक्ष में झुकाव। सितम्बर में अपनी जापान यात्रा के दौरान, अक्तूबर 2014 में वियतनामी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा दौरान एवं नवम्बर 2014 में पूर्व एशिया शिखर वार्ता के मौके पर और भारत- अमरीका संयुक्त बयान व दिल्ली में जारी संयुक्त विजन स्टेटमैंट में प्रधानमंत्री ने चीनी आक्रामकता और निर्बाध सागर परिवहन से संबंधित प्रत्येक हवाले में चीन की आंतडिय़ों में गंभीर मरोड़ पैदा किए हैं। 
 
इन सब बातों का तात्पर्य यह है कि जब मोदी चीन के जियान शहर में उतरे और उनका भव्य स्वागत हुआ व चीन राष्ट्रपति शी के साथ कई घंटों तक उन्हें अंतरंग बातचीत करने का मौका मिला, तो भी उनका प्रत्येक कार्य पूर्व परिभाषित था। आगामी दिनों में सिंघहुआ और फूदान विश्वविद्यालयों में उनके आदान-प्रदान दौरान भी मित्रभाव बना रहा। जैसा कि 2 सप्ताह बाद चीन यात्रा पर जाने वाली भारत के चीन अध्ययन संस्थान की निदेशक अल्का आचार्य ने कहा, ‘‘मोदी की यात्रा ने बहुत सकारात्मक प्रभाव सृजित किया है, खास तौर पर नागरिक स्तर पर।’’
 
मोदी का भव्य अभिनंदन बेशक असाधारण रूप में स्नेहभरा था, फिर भी अंतिम अर्थों में इस यात्रा का मूल्यांकन सुश्री स्वराज के फार्मूले के अनुरूप ही किया जाएगा, यानी कि केवल सम्पर्क के आधार पर ही नहीं, बल्कि वार्तालाप और परिणामों के आधार पर भी। मोदी की यात्रा ने दोनों देशों के नागरिकों के सीधे संबंध स्थापित करने में  बहुत अधिक सहायता दी है, जिसकी बोहनी चीनी सोशल मीडिया नैटवर्क ‘वाइबो’ में मोदी के प्रवेश से हुई है, फिर भी यह यात्रा महत्वपूर्ण मुद्दों के विषय में सरकार के दावों के आसपास भी नहीं पहुंचती। 
 
अनसुलझे मुद्दे अपने संवाददाता सम्मेलन में सुश्री  स्वराज ने व्यापारिक घाटे जैसे आॢथक मुद्दों तथा एल.ए.सी. के बारे में अस्पष्टता, नत्थी-वीजा, भू-सीमा निपटान और जल संसाधन डाटा के आदान-प्रदान जैसे अनसुलझे मुद्दों को महत्वपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा कि चीन के साथ इससे पहले जितनी भी बातचीत चलती रही है, वह औपचारिक कुशल-क्षेम तक ही सीमित रही है।  चीन के साथ अतीत में हुए आदान-प्रदान में वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर भारत और चीन के सीमांत क्षेत्रों में शांति और स्थिरता की बहाली के लिए 1993 में समझौता हुआ था, जिस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने हस्ताक्षर किए थे। 
 
उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच संबंधों और व्यापक सहयोग के सिद्धांतों की उद्घोषणा हुई तथा 2013 में मनमोहन सिंह के कार्यकाल दौरान सीमा रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इन सभी वार्ताओं को गंभीरता से न लेने पर भी सुश्री स्वराज को एक प्रकार से दोषमुक्त किया जा सकता है क्योंकि उनकी समूची सरकार ही अपना एक वर्ष पूरा होने पर इसी भाषा में बातें कर रही है। फिर भी तथ्य यही है कि मोदी की चीन यात्रा में सीमा मुद्दे के संबंध में कोई नई बात सामने नहीं आई। 
 
‘एल.ए.सी. के स्पष्टीकरण’ के लिए श्री मोदी द्वारा चीन को दिए गए सुझावों पर कम से कम दो बार मौन ही बना रहा है और संयुक्त बयान में भी इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया। ‘सैंटर फार पॉलिसी रिसर्च’ के विश्लेषक श्रीनाथ राघवन का कहना है कि जहां तक नतीजों की बात है, हम एक कदम भी आगे नहीं उठा पाए। उन्होंने कहा कि हमने ऐसे प्रयास 1990 के दशक में भी किए थे और पश्चिमी सैक्टर के संबंध में कुछ नक्शों का आदान-प्रदान भी किया गया लेकिन इन प्रयासों से भी बात आगे नहीं बढ़ सकी। क्योंकि यह स्पष्ट हो गया था कि एल.ए.सी. के बारे में भारत और चीन की अवधारणाएं एक-दूसरे से बहुत अधिक भिन्नता रखती हैं। 
 
जब किसी प्रकार से भी बात आगे बढ़ती न दिखी तो वाजपेयी ने बिल्कुल नया रास्ता अपनाते हुए हमेशा के लिए सीमा विवाद सुलझाने हेतु विशेष प्रतिनिधियों के स्तर पर वार्ता चलाने पर सहमति व्यक्त की। चीन के साथ वर्तमान वार्तालाप भी घूम-फिर कर इसी स्तर पर ही चलाने पर सहमति बनी है। नई बात केवल इतनी है कि सीमा पार से प्रोत्साहित आतंकवाद के बारे में भारत की चिन्ताओं का समावेश सांझे बयान में हुआ है और इसमें आतंकी नैटवर्कों को भंग करने, उनके वित्त पोषण को बाधित करने और सीमा के आर-पार आतंकियों की आवाजाही रोकने पर सहमति बनी थी लेकिन व्यावहारिक रूप में चीन की कार्रवाइयां इस समझौते की भावना के विपरीत हैं क्योंकि उसने कम से कम तीन आतंकी सरगनाओं पर प्रतिबंध लगाने के भारत के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र में रद्द करवा दिया है। 
 
जहां तक आर्थिक समझौते के अन्तर्गत चीन द्वारा भारत में 22 बिलियन डालर निवेश करने की बात है, इसकी पुष्टि तो तभी होगी जब वास्तव में कोई पैसा भारत में आएगा। मोदी की चीन यात्रा बेशक किसी प्रकार से ‘गेम चेंजर’ सिद्ध न हो, फिर भी दशकों से लटके आ रहे मुद्दों के हल के लिए नई प्रतिबद्धताओं के साथ नई शुरूआत का संकेत देती है।     
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