कितना कारगर होगा ‘सैल्फी बनाओ बेटी बचाओ’ अभियान

Edited By ,Updated: 05 Jul, 2015 10:08 PM

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स्कूली दिनों की शुरूआत में हम सबसे हिंदी में जो निबंध लिखवाए जाते हैं उनमें दो विषय सबसे आम हैं: गाय और माता। दोनों पूज्य हैं।

(मृणाल पांडे): स्कूली दिनों की शुरूआत में हम सबसे हिंदी में जो निबंध लिखवाए जाते हैं उनमें दो विषय सबसे आम हैं: गाय और माता। दोनों पूज्य हैं। अवध्य श्रेणी में आते हैं। अचरज यह, कि इसके बावजूद भारत में कम उम्र में अकाल मरने वाली माताओं की तादाद आज भी कई बहुत से अविकसित अफ्रीकी एशियाई देशों से कहीं अधिक है। जहां तक गौ माता की बात है उनके कमजोर सूखी देह वाले कई झुंड सभी शहरों में सड़कों पर यहां-वहां कूड़े की ढेरियों से जो मिले, खाते हुए देखे जा सकते हैं। 
 
खबर आई  कि कुछ लालची तस्करों ने बड़ी तादाद में गायों की चोरी-छुपे तस्करी कर उनको अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उनके गोश्त के लिए भेजने की भारी मुहिम चला रखी है। तब ‘गौवंश बचाओ’ की बड़ी  मुहिम छेड़ी गई जिससे कई स्कूल, टी.वी. चैनल और एन.जी.ओ. भी आ जुड़े।  तस्करों पर छापे पड़े, पकड़-धकड़ की गई और मीडिया को गौमांस पर प्रतिबंध की मांग करने वाले विज्ञापनों से पाट दिया गया। अब खबर आई है कि गायों की अंतर्राष्ट्रीय तस्करी कम हुई है, पर अंतर्राज्यीय तस्करी बढ़ गई है । वजह यह कि कई समुदाय पारंपरिक रूप से सदियों से बीफ  खाते आए हैं और भले ही कुछ राज्यों में बीफ  की बिक्री प्रतिबंधित कर दी गई हो पर पड़ोसी राज्यों से आया बीफ काले बाजार में बिकने लगा है। इस सबके अलावा गौवंश की देश में दशा सुधरी है, इसका कोई भरोसेमंद प्रमाण नहीं है।
 
जहां तक लड़कियों-माताओं  का सवाल है, दोनों आज भी वृहत्तर समाज की नजर में जीते जी या मृत, दोनों हालतों में बोझ ही बनी हुई हैं। यही कारण है कि देश में 0 से 6 साल की उम्र की बच्चियों की तादाद तेजी से घटती जा रही है। इसके पुष्ट प्रमाण भी हैं कि कन्या शिशु सबसे ज्यादा अपने ही घर में उपेक्षित  है। पिछड़े गरीब ही नहीं, हमारे तरक्की पसंद और संपन्न घरों में भी गर्भ में लिंग निर्धारण के बाद कन्या भ्रूण की हत्या और बच रही तो भी लगातार उपेक्षा और कुपोषण से सुखा कर इसकी चुपचाप गारंटी तय होती है कि वह पांच की होते-होते मर जाए। ताजा दस साला जनगणना के सरकारी आंकड़े इसकी गवाही दे भी रहे हैं कि 0 से 6 साल के आयु वर्ग में वर्ष 2001 में जहां 1000 लड़कों के पीछे 927 बच्चियां थीं, आज सिर्फ  914 बची हैं।
 
कहने को देश में औरत-मर्दों के बीच औसत लिंगानुपात में सामान्य सुधार हुआ है, लेकिन यह सांत्वना का विषय नहीं। पिछले 10 सालों में आबादी में औरतों की तादाद बढ़ी दिखने की असल वजह यह है कि इन बरसों में कुल आबादी भी बढ़ी है। देश की आबादी में से बच्चियों के क्रमश: लोप होने के असल आंकड़े कुल वयस्क औरतों-मर्दों के बीच आबादी में बड़े असंतुलन के रूप में तनिक आगे जाकर उजागर होंगे। कुछ राज्यों (जैसे हरियाणा) में वे साफ  दिखने लगे हैं। जिन राज्यों (द.दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, दादरा नगरहवेली, नागालैंड, मणिपुर तथा सिक्किम) में लड़कियां सबसे तेजी से घटी हैं उनका स्तर आर्थिक, स्वास्थ्य कल्याण सुविधाओं और शैक्षिक पैमानों पर निश्चित रूप से देश के सामान्य औसत से बेहतर है। यानी मात्र पिछड़े राज्यों में व्यापक गरीबी और अशिक्षा के कारण उतनी बच्चियां नहीं मर रहीं जितनी कि तरक्की कर रहे राज्यों में खाते-पीते लोगों के बीच । गुजरात, पंजाब या हरियाणा सरीखे राज्यों में तो आज नवरात्रि में कन्या पूजन को आठ कन्याएं जुटाना भी कठिन है।
 
विडंबना देखिए कि जब सरकार को मौजूद कानूनों का कड़ाई से उपयोग कर कन्या हंता परिवारों तथा चिकित्सकों को तुरंत कठोर सजा देनी चाहिए, एक असंवेदनशील-सा सुझाव आता है कि क्यों न पिता लोग अपनी बेटी के साथ सैल्फी खींच कर एक फोटो प्रतियोगिता जीतें और यश कमाएं। क्या यह जन्मना अनचाही मानते हुए भी दिखावे के लिए नवरात्रि में बेटी को देवी का रूप मान कर पूजने वाली परम्परा का यह एक नया रूपांतरण नहीं? क्या यह सच नहीं कि आज भी समाज की मानसिकता यह है कि (बढ़ती शिक्षा दर और परिवार तथा माता-पिता का सहारा बनती जा रही कमाऊ लड़कियों की तादाद में भारी बढ़ौतरी के बावजूद) नवजात के आने की खबर मिलते ही परिवार जनों और पड़ोसियों से लेकर दाई और बधावा गाने वाले किन्नर तक सभी अपनी फीस या नेग इस आधार पर वसूल करते हैं कि लड़का हुआ या लड़की? ‘लड़का’ कहते ही उल्लास छा जाता है, दाई-किन्नर भरपूर नेग मांगने लगते हैं और पड़ोसी दावत।
 
पर बेटी के आगमन की खबर पाने पर सकपकाई करुणामय प्रतिक्रिया होती है: चलो जी जान बच गई, कोई नहीं जी, चलो जो ऊपर वाला भेज दे। कोई न कोई यह भी कह ही देता है कि ‘हाय घर पर डिक्री आ गई बेचारों के।’, जादू-मंत्र, राख-भभूत के बाद भी तीसरी चौथी बेटी हुई तो रोना-धोना और प्रसूता की कोख को कोसना चालू। अभी एक बड़े अखबार में गुजरात के एक परिवार पर खबर छपी है जिसने लड़के की आस में 14 बेटियां पैदा कर डालीं और अब बेटा हो गया है तो  दूसरा बेटा पैदा करने की फिराक में है। ऐसे परिवार एक क्या, दस सैल्फी भी प्रतियोगिता में भेज दें उससे क्या साबित होने जा रहा है?
 
हमारे यहां सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ  बनाए गए कानूनों का कोई डर अब तक जनता के बीच नहीं बना है और दहेज, यौन उत्पीड़ऩ अथवा वैश्यावृत्ति  निषेध जैसे सुधारवादी कानून अपने यहां आज भी कमोबेश एक किताबी कवायद ही बने हुए हैं। सुधारवादी कानूनों का फायदा उठा कर हमारे शिक्षा संस्थान और महिला आरक्षण से लैस पंचायतें महिलाओं के महत्व को एक प्रखर राष्ट्रीय सच्चाई की शक्ल दे सकते थे , लेकिन जिन इकाइयों में अपनी कोई जान ही नहीं, वहां प्रखरता कैसी?  मेरी यह बात एक उलटबांसी लग सकती है। लेकिन सच तो यह है कि हमारे राज और समाज में ताकत का असली स्रोत आज भी जाति और निजी कानूनों पर टिकी वे तमाम संस्थाएं हैं जिनकी कमान पुरुषों के हाथ में है। उन खापों, जातीय पंचायतों या धार्मिक गुरुओं के दिए फतवों का वजन हमारे लोकतांत्रिक संविधान, कानून और निर्वाचित पंचायत पर लगातार भारी साबित होता रहता है।
 
संसद, विधानसभा,  घरों, चायखानों या टी.वी. के रियलिटी शोज में झांकने पर हमारी सीधी मुलाकात पुराने ठिकानेदारों, सामंतों और जागीरदारों की मानसिकता से होगी। इन नए सामंतों को आज डबल रोल मिल गया है। एक तरफ नए और युवा शाइनिंग इंडिया की चमक बनाए रखना  और दूसरी तरफ  यह सुनिश्चित करना कि पुराने अजर-अमर सामाजिकता वाले हिंदुस्तान की परंपराओं को नारीवादी धारणाओं से खरोंच न लगे। लिहाजा वे अपने क्षेत्र में धर्म, गोत्र आधारित खाप पंचायतों और मुल्लाओं के हुक्म से प्रेम विवाह को दंडित कराना या कालेज की लड़कियों के लिए जीन्स पहनने पर पाबंदी लगाना भी स्वीकार करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर स्त्रीशक्ति का गुणगान करते हुए महिला थानों का उद्घाटन कर महिलाओं को साइकिलें, मशीनें बांटते, बेटियों को थामे सैल्फी खिंचाते भी नजर आ रहे हैं। 
 
सचमुच की त्रस्त महिलाएं जब न्याय खोजती हैं तो उनको इन तथाकथित सशक्तिकृत स्कूलों, पंचायतों या उनमें बैठे सैल्फी प्रतियोगिता के आयोजकों में  आशा की किरण कम ही दिखती है। लिहाजा जान और आबरू बचाने को वे परम भ्रष्ट  किंतु सर्वसत्तावान चक्रवर्ती नेताओं पंचायत के प्रधानों के पैर पकड़ती हैं। पर क्या उनके हस्तक्षेप के भरोसे महिला अपने ही परिवार द्वारा डाक्टरी मदद से मारी जा रही या इलाके के सत्तावान दबंगों के बलात्कार की शिकार लड़की को बचा सकती है?
 
उपरोक्त वजहों से ट्विटर पर बेटी बचाओ अभियान के हथियार के तौर पर सैल्फी मुहिम को निरर्थक बताने वाली महिलाओं के खिलाफ  वीभत्स गालियां पोस्ट करने वाले नरपुंगव (जिनमें फिल्मी दुनिया के संस्कारी बाबूजी की छवि वाले एक जनाब भी शामिल हैं) क्या तनिक इस पर भी मनन करेंगे। 
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