तुर्की के चुनाव परिणामों से सब हैरान

Edited By ,Updated: 07 Jul, 2015 12:17 AM

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उम्मीद तो थी कि ये चुनाव तुर्की के लिए ऐतिहासिक साबित होंगे परंतु जून में आए नतीजों ने तो तुर्की के वोटरों को ही हैरान कर दिया।

(आभा चोपड़ा): उम्मीद तो थी कि ये चुनाव तुर्की के लिए ऐतिहासिक साबित होंगे परंतु जून में आए नतीजों ने तो तुर्की के वोटरों को ही हैरान कर दिया। उन्होंने भी शायद ही सोचा होगा कि राष्ट्रपति ऋषभ तैयप एर्दोगन के विरोध में इतने अधिक मत पड़ेंगे। गत 13 वर्षों के दौरान ऋषभ ने तुर्की में अपनी राजनीतिक प्रभुसत्ता को लगातार मजबूत किया था।

उनकी ‘जस्टिस एंड डिवैल्पमैंट पार्टी’ (ए.के.पी.) एक इस्लाम समर्थक दल है। पार्टी द्वारा देश की सत्ता को लोकतांत्रिक प्रणाली से बदल कर राष्ट्रपति प्रणाली में बदलने की कोशिश की गई थी। गत वर्ष ऋषभ ने खुद को प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति के पद पर आसीन कर लिया और संविधान में संशोधन कर असीमित शक्तियां प्राप्त कर लीं। हाल ही में उन्होंने उदारता की नीति को छोड़ कर विपक्ष, पत्रकारों तथा न्यायाधीशों को जेलों में ठूंसना शुरू कर दिया था जिन्होंने उन पर या उनके मंत्रियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों पर उनका सामना करने या उनका विरोध करने की हिम्मत दिखाई थी। 
 
हालांकि, चुनावों के नतीजों में अभी भी ए.के.पी. ही 258 सीटों के साथ (550 सीटों वाले सदन में) सबसे बड़ी पार्टी है परन्तु उसके मत 9 प्रतिशत घट कर 41 प्रतिशत रह गए हैं। बेशक कोई भी अन्य दल ए.के.पी. के करीब नहीं है परंतु सरकार बनाने के लिए उसे कुल 276 सीटों की जरूरत है। वहीं संविधान को बदलने के, अपने सपने को साकार करने के लिए उसे 324 सदस्यों का साथ चाहिए। ऋषभ चाहें तो 45 दिनों में पुनर्चुनाव की मांग कर सकते हैं। 
 
बात एच.डी.पी. की
वहीं चुनाव नतीजे एच.डी.पी. के लिए सर्वाधिक अनपेक्षित खुशी लेकर आए हैं। यह उदारवादी कुर्द समर्थक पार्टी है जिसने उदारवादियों, वामपंथियों तथा महिलाओं के मत प्राप्त करने के लिए अपना प्रभाव फैलाया है। अब तक एक आतंकी आंदोलन समझे जाने वाली एच.डी.पी. को अपने आकर्षक व्यक्तित्व वाले नेता सेलाहतिन देमिरतास के नेतृत्व में इन चुनावों में 80 सीटें मिली हैं। तुर्की के संविधान के अनुसार किसी दल को संसद में स्थान पाने के लिए 10 प्रतिशत मत प्राप्त करने जरूरी हैं। एच.डी.पी. ने 13 प्रतिशत मत हासिल कर ए.के.पी. की वोटों में सेंध लगा दी है। 
 
उदारवादी देश
तुर्की में लोगों की जीत के इस अभूतपूर्व महत्व की चाह पाने के लिए यह समझना जरूरी है कि तुर्की ही एकमात्र ऐसा इस्लामी राष्ट्र है जहां 93 वर्ष लोकतंत्र रहा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उस्मान साम्राज्य कमजोर पड़ गया।  इस लोकतांत्रिक राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री कमाल अतातुर्क ने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की। 
 
हालांकि, इस देश के 90 प्रतिशत लोग मुस्लिम हैं, यह उदारवादी राष्ट्र रहा है। वहां महिलाओं को पूर्ण तथा समान अधिकार हैं, उनमें से अधिकतर उच्च शिक्षित और किसी भी अन्य यूरोपीय देश की तरह नौकरी करती हैं। 
 
मदरसों पर प्रतिबंध
असल में कमाल ने देश के सभी मदरसों पर प्रतिबंध लगा कर सभी के लिए एक समान शिक्षा को, एक भाषा ‘तुर्की’  के जरिए लागू किया था। वैसे अधिकतर लोग वहां 3 या 4 भाषाएं जानते हैं जिनमें अंग्रेजी भी शामिल है। तुर्की में महिलाएं मर्जी से जीवनसाथी चुनने को आजाद हैं। इस्ताम्बुल में कॉलेज छात्रों से बात करते समय यह जानना दिलचस्प रहा कि वहां बहुत कम अरेंज मैरिज होती हैं। इस बीच वे ए.के.पी. द्वारा स्कूलों में 6 वर्ष से बड़ी लड़कियों के लिए हिजाब से सिर ढंकने की नीति (गत 3 वर्ष से) लागू करने पर सबसे अधिक ङ्क्षचतित दिखाई दिए। शायद यह भी एक कारण रहा कि महिलाओं ने एच.डी.पी. के पक्ष में मतदान किया।
 
यह भी दिलचस्प है कि तुर्की में मदरसों को गैस्ट हाऊस या रेस्तरां में बदल दिया गया था। तुर्की के लोगों की एक सबसे बड़ी खासियत रही है कि किसी भी ऐतिहासिक स्थल चाहे वह रोमन, ईसाई या उस्मान हो, नष्ट नहीं किया गया।
 
विरासत की रक्षा
देश की विरासत तथा परम्परा को यथावत रखने का सबसे बड़ा उदाहरण वहां इस्ताम्बुल में दिखाई देता है जिसके केंद्र में रोमनों द्वारा दूसरी शताब्दी में बनाया गया हिप्पोड्रोम आज भी खड़ा है। इसके एक ओर सुल्तान अहमद मस्जिद है। यह इस्लामी दुनिया के सर्वाधिक आदरणीय स्मारकों में से एक है। सन् 1609 में निर्मित इस स्मारक से कुछ मीटर की दूरी पर हाइगा सोफिया स्थित है जिसे 300 सन् में बनाया गया था और यह ईसाइयों का दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण गिरजाघर था।
यह जानने से कि हाइगा सोफिया का निर्माण एक रोमन मंदिर के ऊपर किया गया था, यह तथ्य अधिक दिलचस्प है कि सन् 1453 में इस्ताम्बुल पर जीत प्राप्त करने के बाद सुल्तान महमूद ने हाइगा सोफिया को इसमें बने हुए ईसाई प्रतीकों को नष्ट किए बगैर एक मस्जिद में बदल दिया था। देश के लोकतंत्र बनने के बाद अब  इसे एक संग्रहालय बनाया जा चुका है जहां इस्लामी संरचनाएं तथा ईसाई प्रार्थना स्थल अच्छी हालत में संरक्षित हैं। 
 
वास्तव में सरकार ने 1920 में फैसला किया था कि वह इसे न तो मस्जिद और न ही गिरजाघर घोषित करेगी। इसके बाद से केवल प्रार्थना के समय में ही पर्यटकों को इसमें जाने की इजाजत नहीं है जबकि बाकी सारा दिन सभी धर्मों के लोग यहां स्वतंत्र रूप से घूमते हैं।
 
गत एक दशक के दौरान तुर्की में आए बदलावों पर काफी कुछ कहा जाता रहा है। कुछ का कहना था कि शायद यह लोकतंत्र से एक रूढि़वादी इस्लामिक देश में बदल जाएगा परन्तु सारे देश में लोगों के बीच मौजूद विभिन्न संस्कृतियों के लिए आदर का भाव साफ दिखाई देता है। 
 
एक छोटा-सा स्थल कापाडोकिया ईसाइयों द्वारा रोमनों से छुपने के लिए निर्मित भूमिगत शहरों या ज्वालामुखी गुफाओं के लिए मशहूर है जहां ईसाई मुस्लिम आक्रमणकारियों से छुपा करते थे वहां आज भी प्रत्येक स्मारक को अच्छी तरह संरक्षित रखा गया है। आज यह स्थान पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण है। 
 
हालांकि, तुर्की कुछ समय से गलत कारणों से खबरों में रहा है क्योंकि इसे उन युवाओं के लिए एक प्रवेश स्थल माना जाने लगा है जो आई.एस.आई.एस. का साथ देने के लिए सीरिया तथा ईराक जाते हैं परन्तु यह याद रखना चाहिए कि तुर्की के लिए अपने रूढि़वादी संगठनों तथा एशिया में अमेरिकी फौजों के आधार शिविर होने के तथ्य के बीच संतुलन बैठाना बहुत मुश्किल है। यह आई.एस.आई.एस. के खिलाफ छोटे स्तर पर लड़ भी रहा है। 
 
यह वह देश है जिसकी स्थिति सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। एक हिस्सा एशिया और दूसरा यूरोप में स्थित होने से दोनों महाद्वीपों के मध्य यह महत्वपूर्ण केंद्रीय व्यापार मार्ग रहा है। इसने न केवल 5वीं या छठी सदी में दोनों महाद्वीपों को जोडऩे वाले मार्गों का संरक्षण किया है, दुनिया के दो मुख्य धर्मों के बीच भी संतुलन बिठाने में कामयाब रहा है। शायद इसीलिए यह स्वयं को यूरोपियन संघ की सदस्यता का दावेदार मानता है और इसी संदर्भ में इन चुनावों के नतीजे महत्वपूर्ण हैं जोकि अभी तक अस्थायी हैं। 
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