बेचारे ‘गरीब नेताओं’ पर कुछ तो तरस खाओ

Edited By ,Updated: 09 Jul, 2015 11:45 PM

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कभी आपने सामान्य रूप से किसी नेता को बाजार में खरीदारी करते देखा है? ऐसा हो ही कैसे सकता है। उनकी प्रतिष्ठा कम जो हो जाएगी।

(तरुण विजय): कभी आपने सामान्य रूप से किसी नेता को बाजार में खरीदारी करते देखा है? ऐसा हो ही कैसे सकता है। उनकी प्रतिष्ठा कम जो हो जाएगी। विरोधी कहेंगे-पैदल हो गए हैं बेचारे। अगर कभी ऐसा हो भी तो उसका दृश्य कुछ ऐसा होगा-आठ-दस चैनल वाले कैमरों के प्रकाश में खान मार्कीट या मालाबार हिल या एंटॉप हिल जाएंगे, किसी दुकान में घुसेंगे, फिर हंसेंगे और एकाध चाकलेट या कपड़ा लेकर कुछ ऐसा बयान देकर घर लौटेंगे-देखिए हम सामान्य जन हैं, गरीबी और बदहाली से भरे देश में शानो-शौकत से रहना खराब मानते हैं। घर आकर थककर चूर होकर अपने लोगों से कहेंगे-आपको क्या कहें, तनिक बाजार गए कि लोगों ने घेर लिया, ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़, बुक स्टोर वाले ने तो कई नई किताबें भेंट कर दीं, थक गए भाई।

दुनिया में भारत ही ऐसा देश होगा जहां बेइंतहा अमीर नेता असीमित धन से युक्त एकड़ों में फैले बंगलों के आदी हो चुके हैं, भरी तिजौरियों वाले। गांव, गरीब, बदहाल, दरिद्र, भारत की तस्वीर बदलने की बातें करते हैं। उनसे आपका मिलना कठिन, बतियाना असंभव, सहज भाव से उनके साथ उठना-बैठना कल्पनातीत पर वे मसीहा हैं।
 
हमारे नेताओं का कोई सामान्यजन, मध्यवर्गीय व्यक्ति मित्र हो ही नहीं सकता। मर्सीडीज, बी.एम.डब्ल्यू. वाले, गर्मियां अमरीका में बिताने वाले, चुनाव में दो-पांच-दस करोड़ देने वाले, उनके घर, परिजन के खर्चे और नखरे उठाने वाले, उनकी शान में कसीदे पढऩे वाले उनके दरबारी ही उनके निकट या मित्र होते हैं।
 
एक बार भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक अध्यक्ष दत्तोपंत ठेंगड़ी ने एक आपबीती सत्य घटना सुनाई। वह महाराष्ट्र के एक स्टेशन से दिल्ली आ रहे थे। सैकेंड ए.सी. में आरक्षण था। तभी एक बड़े राजनेता उसी गाड़ी से दिल्ली जाने के लिए आए। ठेंगड़ी जी को देख कर नमस्कार किया, पूछा किस डिब्बे में आपका आरक्षण है। बताया सैकेंड ए.सी. में। वह आश्चर्य से बोले नहीं-नहीं आपको फस्र्ट ए.सी. में चलना चाहिए। सैकेंड ए.सी. या स्लीपर में चलना मीडिया को बताने के लिए तो ठीक है, पर वहां फालतू के बहुत से लोग मिल जाते हैं, तरह-तरह के सवाल करते हैं। तंग करते हैं। फस्र्ट ए.सी. में आराम से सफर होता है। ठेंगड़ी जी मुस्कराए, बोले मैं भी फालतू का आदमी हूं, उन्हीं लोगों से दो मिनट बात करने का जो सुख है वह फस्र्ट ए.सी. में कहां?
 
ऐसे नेताओं के पास तीन-चार-पांच सौ करोड़ से कम पैसे कहां होते हैं। इनकी गाडिय़ां, इनके त्यौहार, इनके पारिवारिक आयोजन, इनके दौरे, इनके परफ्यूम और धार्मिक रीति-रिवाजों पर दावतों के खर्च, विदेशों में इनके बच्चों की पढ़ाई और मीडिया का जबरदस्त मैनेजमैंट इनकी गरीबी और बेचारगी का जीता-जागता सबूत है।
 
राजनीति दरअसल, मुनाफे और सम्पदा वृद्धि का सौदा हो गई है। इसे घाटे का सौदा बनाने वाला चाहिए। अमीरों में रहते हुए सांसद बनना, गरीब और दयनीय भारतीयों के  दम पर विलास करना इतना सामान्य है कि लगता है संसद की सबसिडी पर बेहद कम दामों पर भी चाय देने की प्रथा तो बंद होनी चाहिए ही बल्कि वहां सांसदों के भोजन पर पांच प्रतिशत अधिभार जोड़ कर उस पैसे पर बेचारे चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के बच्चों के शिक्षा फंड या मध्याह्न फलाहार शुरू कर देेना चाहिए। जो दस रुपए का भोजन खाकर सौ रुपए टिप दे देते हैं, उन्हें सबसिडी क्यों?
 
गरीब देश के अमीर नेताओं के चुनावी खर्च दिमाग पलटने वाले साबित होते हैं। कभी न्यूयार्क में रैगपिकर्स पाॢटयां होती थीं। धनकुबेर, फिफ्थ एवेन्यू के रंगीन वातावरण में गरीब फटेहाल, कूड़ा बटोरने वालों की पैंट पहन दावतें करते थे। धन में विचरण करते-करते जो बोरियत होती है, उसे दूर करने के लिए वे गरीबी का लबादा ओढ़ तनिक थ्रिल महसूस करते थे। बड़ा अच्छा लगता था। 
 
जैसे पांच सितारा होटल में कैंसर मरीजों की मदद के लिए एक दानपात्र रखा रहता है, जैसे दाऊद इब्राहिम या हाफिज सईद के कमरे में किसी तरह की कोई आध्यात्मिक सदाचार वाली पंक्ति दीवार पर टंगी हो, वैसे जनता से परहेज कर अपने धन-वैभव के प्रति आसक्ति रख कर नेता जनता की सेवा करते, सहानुभूति जताते, गरीब बच्चों को गोदी में उठा कर उनकी बहती नाक अपनी साड़ी और अंग वस्त्र से पोंछते हुए फोटो ङ्क्षखचवाने वाले नेता सच में बड़े गरीब, बदहाल, सहानुभूति के पात्र होते हैं।
 
अभी एक मुख्यमंत्री ने पांच करोड़ रुपए की बस ली है। कहीं इन नेताओं के लिए पचहत्तर सौ करोड़ रुपए के विमान लिए जाते हैं, कहीं धूप में तप कर सौ-सौ लोग मर जाते हैं। बुंदेलखंड, तेलंगाना, आंध्र, बिहार में गर्मी से मरने वाले न तो विदेशी होते हैं और न ही किसी दूसरे ग्रह के निवासी, वे भारतीय जन होते हैं।

मुम्बई के फुटपाथों पर जन्म से मृत्यु तक रहने वाले, चेन्नई के मरीना क्षेत्र में झुग्गियों में नारकीय जीवन बिताने वाले, रेल की पटरियों के दोनों ओर प्लास्टिक की चादरों से घर बना कर परिवार सहित रहने वाले, दिल्ली के स्टेशनों के बाहर रोड डिवाइडर पर, आसपास के उद्यानों, मंदिरों के बाहर रात भर कुत्तों, बिल्लियों, तिलचट्टों के साथ नींद लेने वाले भारतीय नागरिक ही होते हैं। सुधारने के लिए नेताओं को लुटियंस के बंगले दरकार होते हैं, जहां पंद्रह-बीस कमरों में दो जन रहते हैं। जनता तो क्या, सांसदों, विधायकों के साथ इनका बादशाहत भरा व्यवहारदेखिए। कभी गलियों में मिल जाएंगे तो नमस्कार तो दूर, पांव छूने तक के लिए क्षण भर तरस नहीं खाएंगे-चलतेजाएंगे। फरियाद करेंगे, तो कमरे में मुड़ते हुए कहेंगे ठीक है खुल्लर या रामासामी को बोल देना। इतना अहंकार।
 
अगर आप उनकी जाति के नहीं हैं तो उनके किसी काम के नहीं हैं। जाति के विरोध में तो वैसे ही बोलना बंद हो गया है। दलितों पर अत्याचार, दलितों का नरसंहार, उनकी बस्तियों का अलग होना, उनके साथ आज भी अस्पृश्यता का व्यवहार, कभी भी किसी भी स्थिति में संसद में शोर, कार्य के ठप्प करने या त्वरित समाधान की मांग से उस रूप में नहीं दिखता, जिस रूप में वेतन वृद्धि, शानो-शौकत और बादशाही अंदाज के ग्लैमर्स मामलों में शोर उपजाया जाता है।
 
जिस क्षेत्र में गरीब, वृद्ध, असहाय, समाज के दुत्कारे हुए लोगों के केंद्र बने होते हैं, वहां कभी किसी बड़े अफसर या नेता को जाते हुए नहीं देखा जाता क्योंकि वहां वोट नहीं होते, वहां जाति नहीं होती। उनके बारे में समाचार छपते हैं कि कैसे गंदगी कचरे भरे माहौल में असहाय भारतीय पशुओं की तरह रखे जाते हैं। खबर छपती है और मर जाती है। इस पर क्या कार्रवाई हुई, किसने की, क्या सूरत बदली, कभी पता ही नहीं चलता क्योंकिवैसा कभी कुछ होता ही नहीं है।
 
पर इन नेताओं के हृदय में गरीबों के लिए सहानुभूति और दया का अथाह सागर हिलोरे ले रहा होता है। अपने जन्मदिन या वैसे ही किसी महान दिवस पर वे गरीबों को धोतियां और अन्य कीमती उपहार बांटते हैं। चारोंओर कैमरों की रोशनी से जगमगाते वातावरण से दैदीप्यमान चेहरे वाले नेता परम संतोष भाव से कातर, दुखी,वस्त्र खरीदने मेंअसमर्थ भारतीय नागरिकों को दोनों हाथोंसे फैंक-फैंक कर उपहार बांटते हैं क्योंकि वे अपने जन्मदिनपर गरीब जनता के उत्थान का मिशन प्रारंभ कर रहे होते हैं।
 
इन नेताओं की गरीबी अवश्य दूर होनी चाहिए। विमान में एक साहित्य मिलता है, जिसमें लिखा होता है विमान के डूबने की स्थिति में पहले स्वयं आक्सीजन का मास्क ओढ़ें, फिर दूसरों को बचाएं। इसी तरह गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए अगर नेताओं को समर्थ बनाना है तो पहले इनकी गरीबी दूर करनी ही पड़ेगी। अब यह बात अलग है कि किसी की गरीबी दाल-रोटी और एक कमरे के घर से दूर होती है तो किसी की गरीबी गुच्ची, बुलगारी और रोलैक्स से। बेचारे गरीब नेताओं पर कुछ तो तरस खाइए वोटर प्रभु। 
 
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