कश्मीर में आज का दिन : ‘शहीदी दिवस’ या ‘काला दिन’

Edited By ,Updated: 13 Jul, 2015 12:03 AM

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13 जुलाई एक विचित्र सा दिन है जिसे कश्मीर के कई संगठन बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं, सरकारी अवकाश भी होता है।

(गोपाल सच्चर): 13 जुलाई एक विचित्र सा दिन है जिसे कश्मीर के कई संगठन बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं, सरकारी अवकाश भी होता है। किन्तु कई लोग इसे काले दिवस की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि घाटी से उनके सामूहिक पलायन की नींव इसी दिन 1931 में रखी गई थी।

जो संगठन 13 जुलाई को बलिदान दिवस के रूप में मनाते है उनमें नैशनल कान्फ्रैंस और कांग्रेस शामिल हैं। इनका कहना है कि रजवाड़ाशाही के अंत के लिए एक बड़े संघर्ष का आरम्भ 75 वर्ष पूर्व कश्मीर में इसी दिन हुआ था किन्तु अलगाववादी हुॢरयत कान्फ्रैंस तथा कुछ अन्य इसे कश्मीरियों के स्वतंत्रता संग्राम का प्रारम्भ कहकर कई तरह के समारोहों का आयोजन करते हैं और भारत के विरुद्ध विष उगलते हैं।
 
किन्तु इनके विपरीत कश्मीरी विस्थापितों का कहना है कि यह एक काला दिवस है। यह राष्ट्रीय दिवस कैसे हो सकता है क्योंकि इसी दिन उनकी तबाही व कुर्बानी का आरम्भ हुआ था और साम्प्रदायिकता का नंगा नाच हुआ था। कश्मीरी पंडितों के संगठन इस दिन सरकारी अवकाश मनाने के भी विरुद्ध हैं।
 
13 जुलाई, 1931 को क्या हुआ यह एक चिंताजनक गाथा है। इस संबंध में विभिन्न विचार भी सामने आए हैं। राज्य के अंतिम महाराजा हरि सिंह के निजी सचिव स्व. कैप्टन दीवान सिंह का कहना था कि 1931 की साम्प्रदायिक घटनाओं के पीछे अंग्रेज शासकों का हाथ था क्योंकि 1930 में लंदन में आयोजित गोलमेज कान्फ्रैंस में महाराजा हरि सिंह ने भारत की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए साम्प्रदायिक सोच को यह कहकर रद्द कर दिया था कि उनके राज्य जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्या में होने के बावजूद भाइयों की भांति एक साथ रहते हैं। लंदन में गोलमेज कान्फ्रैंस के पश्चात महाराजा हरि सिंह फ्रांस चले गए। वहां से वह अभी वापस भी नहीं लौटे थे कि कई साम्प्रदायिक प्रकार की घटनाएं शुरू हो गईं और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को भड़काना शुरू कर दिया गया।
 
लेखक डा. कुलदीप अग्निहोत्री ने अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी’ में भी 1931 में 13 जुलाई की घटनाओं और कश्मीर में मुस्लिम कान्फ्रैंस के गठन का अच्छा-खासा उल्लेख किया है और लिखा है कि 1930 में देश में जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह शुरू किया तो उनकी गिरफ्तारी पर कश्मीर में भी हड़ताल और विरोध प्रदर्शन हुए। किन्तु इसके कुछ ही समय पश्चात कुछ ऐसी घटनाएं शुरू हो गर्ईं जिनसे साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न हो गया।
 
इन्हीं दिनों कश्मीर में मुस्लिम कान्फ्रैंस और कुछ अन्य संगठनों का गठन हुआ जिन्होंने साम्प्रदायिकता को हवा दी जिसके परिणाम स्वरूप 13 जुलाई, 1931 को कुछ अप्रिय घटनाएं हुर्ईं जिनमें 21 लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए और साम्प्रदायिक ङ्क्षहसा फैलाने वालों ने अल्पसंख्यकों को लूटमार का निशाना बनाया जिसमें 3 लोगों को मारा गया। इस पुस्तक में यह भी कहा गया है कि हिंसा भड़काने के लिए जिम्मेदार एक बाहरी व्यक्ति अब्दुल कदीर था जो एक अंग्रेजी अधिकारी का बावर्ची था।
 
पाक अधिकृत कश्मीर में मुजफ्फराबाद विश्वविद्यालय के उप-कुलपति प्रो. मोहम्मद सरवर अब्बासी ने कश्मीरी मुस्लमानों के स्वतंत्रता संग्राम के शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी है जिसमें 13 जुलाई, 1931 की घटनाओं का अच्छा-खासा उल्लेख किया है और इसके कई पक्षों को अपने दृष्टिकोण के साथ अंकित किया है।
 
अपनी इस पुस्तक में कुरान शरीफ के अनादर से संबंधित कई घटनाओं का उल्लेख करने के साथ ही लिखा है कि 21 जून को खानगाह मोहल्ला में मुसलमानों की एक बड़ी सभा हुई जिसमें घाटी के लोगों ने अपनी शक्ति का पूर्ण प्रदर्शन किया। सभा की अध्यक्षता  मीरवाइज मौलवी यूसुफ शाह और मीरवाइज अहमद उल्ला हमदानी ने की। इन धार्मिक नेताओं के अतिरिक्त शेख मोहम्मद अब्दुल्ला, ख्वाजा गुलाम अहमद इशाई, मौलवी अब्दुल रहीम, गुलाम नबी गिलकार व मुफ्ती जलालउद्दीन ने सभा को संबोधित किया और घटनाओं पर ङ्क्षचता प्रकट करने के साथ ही स्थिति पर विचार-विमर्श करने के लिए हमदानिया मिडल स्कूल में आगे की रणनीति तय की। 
 
जब नेता चले गए और सामान्य लोग भी जा रहे थे तो एक अजनबी ने स्टेज पर आकर भाषण शुरू कर दिया। उसने मुसलमानों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होने का अनुरोध किया और लोगों से कहा, ‘‘मुसलमानो! अब समय आ गया है कि ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाए। मैमोरैंडमों (ज्ञापनों) और प्रार्थनाओंं से जुल्म व सितम में फर्क नहीं आएगा और न ही तौहीने कुरान का मसला हल होगा। तुम अपने पांवों पर खड़े हो जाओ और जुल्म के खिलाफ लड़ो।’’
 
महाराजा के महल की ओर संकेत करते हुए उसने कहा ‘‘इसकी ईंट से ईंट बजा दो।’’ प्रो. अब्बासी ने लिखा है कि अजनबी का नाम अब्दुल कदीर था जो सीमा प्रांत का निवासी था और एक अंग्रेजी अधिकारी का बावर्ची था। वह हजरत बल में नमाज के लिए आया करता था और मुसलमानों की मजलूमियत की बातें करता था।
 
अब्दुल कदीर को आपत्तिजनक और भड़काऊ भाषणों के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। 6 से 9 जुलाई तक मुकद्दमे की सुनवाई कोर्ट रोड अमीरा कदल श्रीनगर में स्थित न्यायालय में होती रही। क्योंकि यह मुकद्दमा अलग ही प्रकार का था इसलिए बहुत से लोग बहस सुनने पहुंचने लगे। 12 जुलाई को गांव कदल की मस्जिद में एक विरोध प्रदर्शन हुआ। हालांकि पितु शेख अब्दुल्ला ने लोगों को शांत रहने का अनुरोध किया किन्तु मुकद्दमे की सुनवाई सैंट्रल जेल स्थानांतरित कर दी गई। अत: 13 जुलाई के दिन सुनवाई शुरू होने पर बड़ी संख्या में लोग सैंट्रल जेल पहुंच गए और भड़काऊ नारों के साथ भीड़ ने जेल पर हल्ला बोल दिया ताकि अब्दुल कदीर को छुड़वाया जा सके। इस पर पुलिस ने गोली चला दी। इस फायरिंग में 20 लोग मारे गए। इसके साथ ही श्रीनगर में हिंसा भड़क उठी और लूटमार के अतिरिक्त कई लोग घायल भी हुए।
 
यह हिंसा कश्मीर घाटी के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी फैल गई। अंग्रेजों ने हिंसा को दबाने के लिए अपनी सेना भेजने की पेशकश की किन्तु महाराजा ने चतुराई से काम लेते हुए कहा कि कुछ दिन प्रतीक्षा करो अगर अवश्यकता पड़ी तो बाहरी सेना की सहायता ली जाएगी। कुछ दिनों के अंदर स्थिति पर नियंत्रण पा लिया गया, किन्तु मुस्लिम कान्फ्रैंस तथा कुछ अन्य संगठनों ने अपनी गतिविधियां जारी रखीं।
 
यद्यपि 13 जुलाई के दिन को विभिन्न संगठन अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार मनाते हैं। कोई इसे रजवाड़ाशाही के अंत के लिए संघर्ष की संज्ञा देते हैं तो कोई मुसलमानों की स्वतंत्रता संग्राम का आरम्भ मानते हैं। किन्तु कश्मीरी विस्थापितों के विचार में 13 जुलाई, 1931 से ही उनकी तबाही व बर्बादी का आरम्भ हुआ था इसलिए वह इसे काले दिवस के रूप में मनाते हैं।
 
रोचक बात यह है कि कश्मीर घाटी के अतिरिक्त अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान के कुछ भागों में इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है जिसे लेकर प्रश्न उत्पन्न होता है कि धर्मनिरपेक्षता पर विश्वास रखने वालों के लिए यह राष्ट्रीय दिवस कैसे हो सकता है?
 
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