भारत-पाकिस्तान रिश्तों में ‘कब पिघलेगी बर्फ’

Edited By ,Updated: 13 Jul, 2015 12:03 AM

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नरेन्द्र मोदी की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात और उनका पाकिस्तान जाने का फैसला साधारण नहीं है। आखिर एक पड़ोसी से आप कब तक मुंह फेरे रह सकते हैं?

(संजय द्विवेदी): नरेन्द्र मोदी की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात और उनका पाकिस्तान जाने का फैसला साधारण नहीं है। आखिर एक पड़ोसी से आप कब तक मुंह फेरे रह सकते हैं? बार-बार छले जाने के बावजूद भारत के पास विकल्प सीमित हैं इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस साहसिक पहल की आलोचना बेमतलब है।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी स्वयं कहा करते थे, ‘‘हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते।’’ यानी संवाद ही एक रास्ता है, क्योंकि रास्ता बातचीत से ही निकलेगा। पाकिस्तान और भारत के बीच अविश्वास के लम्बे घने अंधेरों के बावजूद अगर शांति एक बहुत दूर लगती हुई संभावना भी है, तो भी हमें उसी ओर चलना है। सीमा पर अपने सम्मान के लिए डटे रहना, हमलों का पुरजोर जवाब देना किन्तु बातचीत बंद न करना, भारत के पास यही संभव और सम्मानजनक विकल्प है।
 
पाकिस्तान की राजनीति का मिजाज अलग है। सेना की मुख्य भूमिका ने  वहां की राजनीति को बंधक बना रखा है। अवाम का मिजाज भी बंटा हुआ है। किन्तु एक बड़ी संख्या ऐसी भी है जो भारत से शांतिपूर्ण रिश्ते चाहती है। ‘गर्म बातों’ का बाजार ज्यादा जल्दी बनता है और वह बिकता भी है। मीडिया, राजनीति व समाज में ऐसी ही आवाजें ज्यादा दिखती और सुनी जाती हैं। अमन, शांति और बेहतर भविष्य की ओर देखने वाली आवाजें अक्सर अनसुनी कर दी जाती हैं। 
 
पाकिस्तान को भी पता है कि आतंकवाद को पालने-पोसने का अंजाम कैसे अपने ही मासूम बच्चों के जनाजे में बदल जाता है। अपने मासूमों का जनाजा ढोता पाकिस्तान जानता है कि शांति ही एक रास्ता है किन्तु उसकी राजनीति और गर्म मिजाज धर्मांधता ने उसके पांव बांध रखे हैं। 
 
हिन्दुस्तान के प्रति घृणा और ‘भारत भय’ वहां की राजनीति का स्थायी भाव है। इसका वहां एक बड़ा बाजार है। ऐसे में भारत जैसा देश जो निरंतर अपने पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों का तलबगार है, पाकिस्तान को उसके हालात पर नहीं छोड़ सकता। रिश्तों में बर्फ  जमती रही है तो नेतृत्व परिवर्तन के साथ पिघलती भी रही है। 
 
अपने परमाणु बम पर पाकिस्तान को बहुत नाज है। कुछ बहकी आवाजें अपना गम गलत करने को उसे भारत के विरुद्ध चलाने की बातें भी करती हैं किन्तु हमें पता है कि परमाणु युद्ध के अंजाम क्या हैं। कोई भी मुल्क खुद को नक्शे से मिटाने की सोच नहीं सकता। कश्मीर में हमारे कुछ भ्रमित नौजवानों को इस्तेमाल कर एक छद्म युद्ध लडऩा और आमने-सामने की लड़ाई में बहुत अंतर है। पाकिस्तान ने इसे भोगा है, सीखा भले कुछ न हो।
 
आज की बदलती दुनिया में जब आतंकवाद के खिलाफ एक संगठित और बहुआयामी लड़ाई की जरूरत है तो पाकिस्तान भी अच्छे और बुरे तालिबान के अंतर को समझने में लगा है। नरेंद्र मोदी के दिल्ली की सत्ता में आगमन से पाकिस्तान के चरमपंथियों को भी अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिला। जुबानी तीर चले। किन्तु नरेंद्र मोदी ने संवाद को आगे बढ़ाने का फैसला कर यह बता दिया है कि वह अडिय़ल नहीं हैं और सही फैसलों को करते हुए बातचीत को जारी रखना चाहते हैं। आप देखें तो वर्तमान के दोनों शासकों मोदी और शरीफ  के बीच संवाद पहले दिन से कायम है। दोनों ने शिष्टाचार बनाए रखते हुए आपसी संवाद बनाए रखा। मोदी की शपथ में आकर शरीफ  ने साहस का ही परिचय दिया था। अपनी आलोचनाओं की परवाह न करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दिल्ली आने का फैसला किया था। अपने देशों की राजनीतिक, कूटनीतिक प्रसंगों पर होने वाली बयानबाजी को छोड़ दें तो दोनों नेताओं ने संयम बनाए रखा है। 
 
मोदी के सत्ता में आने से भारत-पाक रिश्ते बिगड़ेंगे, इस संभावना की भी हवा निकल गई है। मोदी ने साफ कहा है कि वह इस मामले में अटल जी की लाइन को आगे बढ़ाएंगे। आखिर कश्मीर में जो हुआ वह मोदी के साहस से ही उपजा फैसला था। पी.डी.पी.-भाजपा सरकार को संभव बनाने का चमत्कार आखिरकार मोदी का ही मूल विचार है। सैन्य संसाधनों पर हो रहे व्यय के अलावा हिंसा, आतंक और अशांति के कारण दोनों देश बहुत नुक्सान उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हुक्मरानों को इस सच्चाई का पता नहीं है किन्तु कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिससे बात निकलती तो  है पर दूर तलक नहीं जाती। 
 
भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों ने अपने स्तर पर काफी प्रयास किए किन्तु कहते हैं कि इतिहास की गलतियों का सदियां भुगतान करती हैं। भारत और पाकिस्तान एक ऐसे ही भंवरजाल में फंसे हैं। 
 
नरेंद्र मोदी ने विश्व राजनीति में भारत की उपस्थिति को स्थापित करते हुए अपने पड़ोसियों से भी रिश्ते सुधारने की पहल की है। वह जहां दुनिया को नाप रहे हैं वहीं वह नेपाल, भूटान, बर्मा, बंगलादेश, अफगानिस्तान को भी उतना ही सहयोग, समय और महत्व दे रहे हैं। वह सिर्फ  महाशक्तियों को साधने में नहीं लगे हैं बल्कि हर क्षेत्रीय शक्ति का साथ ले रहे हैं। रूस से अलग हुए देशों की यात्रा इसका उदाहरण है। मोदी की पाकिस्तान यात्रा इस मायने में खास है। इससे यह मजाक भी खत्म होगा कि आखिर मोदी और शरीफ पाकिस्तान के बाहर ही क्यों मिलते हैं। 
 
यह उम्मीद लगाने में हर्ज नहीं है कि नरेंद्र मोदी कश्मीर संकट को हल करने को पहली प्राथमिकता देंगे। उनके मन में धारा-370 की टीस है  किन्तु वह इसे लेकर हड़बड़ी में नहीं हैं। देश को लेकर मोदी में मन में अनेक सपने हैं जिनमें शांतिपूर्ण कश्मीर भी उनका एक बड़ा सपना है। कश्मीर में हुए पी.डी.पी.-भाजपा समझौते को किसी भी नजर से देखें, किन्तु भाजपा व उसकी राजनीतिक धारा को समझने वाला हर व्यक्ति मानता है कि कश्मीर का भाजपा और संघ परिवार के लिए क्या महत्व है। 
 
नरेंद्र मोदी अगर पाकिस्तान की राजनीतिक सोच में कुछ परिवर्तन लाकर भारत के प्रति थोड़ा भी सद्भाव भर पाते हैं तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी। यह काम किसी भाजपाई प्रधानमंत्री के लिए उतना ही आसान है जितना किसी अन्य के लिए मुश्किल। देखना है कि इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी अपने सपनों को कैसे सच कर पाते हैं।  
 

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