बिना हंगामे के पास हो जाएगा ‘सांसद वेतन वृद्धि विधेयक’

Edited By ,Updated: 20 Jul, 2015 01:17 AM

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संसद के आगामी सत्र में प्रत्येक विधेयक पर हंगामा होगा लेकिन लोग देखेंगे कि माननीय सांसदों के वेतन व सुविधाओं में वृद्धि करने वाले विधेयक को एक ही आवाज में पारित कर दिया जाएगा।

(वेद प्रकाश गुप्ता): संसद के आगामी सत्र में प्रत्येक विधेयक पर हंगामा होगा लेकिन लोग देखेंगे कि माननीय सांसदों के वेतन व सुविधाओं में वृद्धि करने वाले विधेयक को एक ही आवाज में पारित कर दिया जाएगा। ये सांसद जिन चुनाव क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं  वहां की जनता का 70 प्रतिशत भाग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करता है। इन क्षेत्रों में 2 लाख रुपए की वार्षीक आय किसी-किसी के हिस्से में आती है, फिर भी हमारे ये माननीय प्रतिनिधि थोड़े-थोड़े अर्से बाद वेतन, भत्ते, मासिक पैंशन, टी.ए.-डी.ए. तथा अन्य घरेलू सुविधाओं के नाम पर लाखों रुपए की वृद्धि करते समय एक क्षण के लिए भी नहीं सोचते कि मतदाताओं पर क्या गुजरती है।

1975 के आपातकाल के बाद भारत की राजनीति में एक ऐसा बदलाव आया जिसका प्रभाव राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक जीवन में बहुत गहराई से आज तक महसूस किया जा रहा है। आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन ने बहुत से ऐसे नेता उभारे जिन्होंने अपने क्षेत्र के हितों के नाम पर क्षेत्रीय पार्टियों का गठन किया।  पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस विरोधी शक्तियों ने एकजुट होकर मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्रित्व में सरकार गठित करने में सफलता हासिल की। बहुत से प्रदेशों में भी मिली-जुली सरकारें अस्तित्व में आईं। यह राजनीति में नया प्रयोग था लेकिन जनता ने 2 वर्षों में ही इसे नकार दिया और फिर से इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को शासन की बागडोर सौंप दी।
 
लेकिन इन तमाम राजनीतिक घटनाओं के कारण भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल गई। राजनीतिक जीवन में देशभक्ति, सच्चाई, ईमानदारी और समाज सेवा जैसे मूलभूत तत्वों के स्थान पर वोटरों को झूठे वायदों के सब्जबाग दिखाने का फैशन ही चल पड़ा। जिस भ्रष्टाचार और सम्पत्ति संग्रहण को पाप के तुल्य समझा जाता था, सरकारों पर पारिवारिक एकाधिकार की राजनीतिक शक्ति के बलबूते इसका जमकर प्रयोग होने लगा और यह राजनीतिक संहार का मुख्य कारण बन गया। इस मानसिकता ने भारत की राजनीति को इस हद तक दागदार कर दिया है कि एक नेता ने यहां तक कह दिया कि लोग मेरे जन्मदिन पर जो करोड़ों रुपए व अन्य उपहार देते हैं वे मेरी निजी सम्पत्ति हैं, मेरी पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं।
 
एक अन्य नेता ने अपना जन्मदिन शाही अंदाज में मनाया। विदेश से मंगवाई एक बग्घी में बैठकर जलूस  निकालने के लिए शहर में लगभग 300 सजावटी गेट लगवाए गए और 75 फुट लंबा केक काटने का लुत्फ उठाया। दूसरी ओर दो अन्य राजनीतिक नेताओं ने मिलकर अपने बच्चों की शादी में लगभग एक लाख मेहमानों की खातिरदारी पर सैंकड़ों करोड़ रुपए खर्च करने में कोई घबराहट महसूस नहीं की बल्कि यहां तक कह दिया कि अब सादगी का जमाना लद गया, अब हम गरीबों जैसी जिन्दगी नहीं जी सकते, जमाने के साथ चलना ही पड़ेगा।
 
दुर्भाग्यवश इस देश के कानून के भी दो चेहरे हो गए हैं। सामान्य नागरिक छोटा-मोटा अपराध करने पर भी जेल भेज दिए जाते हैं लेकिन हमारे नेता लोग जब किसी भ्रष्टाचार या घोटाले में फंसते हैं तो उन पर मुकद्दमे तब तक चलते रहते हैं जब तक परिस्थितियां उनके लिए साजगार नहीं हो जातीं। सजा हो जाने पर भी ये नेता जमानत पर बाहर आ जाते हैं और राजनीति में सक्रिय रहते हैं। इसीलिए उन्हें कानूनी कार्रवाइयों का कोई डर नहीं होता।
 
प्रजातंत्र के असल उद्देश्य की परिभाषा ही बदल दी गई है। अदालत द्वारा सजा दिए जाने पर एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी छोडऩी पड़ी तो उन्होंने बिल्कुल सीधी-सादी सी अपनी गैर-विधायक पत्नी को मुख्यमंत्री बनाकर भारतीय राजनीति में एक नई परम्परा शुरू कर दी। जमाना यहां तक बदल गया है कि इन क्षेत्रीय दलों और इनके नेताओं के समर्थन बिना सरकार बनाना कठिन हो गया है। कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों को भी उनकी शर्तों पर गठबंधन करना पड़ा है। लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू, मायावती, जयललिता और ममता बनर्जी जैसे प्रभावशाली नेता अब भारत की राजनीति का एक अनिवार्य अंग बन गए हैं।
 
पहले भ्रष्टाचार लाखों रुपए का होता था, फिर करोड़ों रुपए के घोटाले होने लगे और अब तो अरबों रुपए के स्कैंडलों की चर्चा होती है। जिन परिवारों में से पहले एक-आध सदस्य ही सत्तातंत्र का हिस्सा होता था वहीं अब यह संख्या दर्जनों तक पहुंच गई है। आपातकाल के दौरान जो लोग 20-25 वर्ष के नवयुवक थे अब 60-65 साल के बुजुर्ग हो गए हैं, इन लोगों ने गत 40 वर्षों की राजनीति देखी है। किसी भी ढंग से राजसी शक्ति हासिल करना और उसके बाद परिवारवाद एवं लूट-खसूट के माध्यम से पैसा इकठ्ठा करना ही इनकी राजनीतिक सोच बन गई है। इन लोगों के लिए शक्ति का अर्थ है ग्लैमर- यानी 5 सितारा कल्चर और अंधाधुंध पैसा इकठ्ठा करना। पुराने नेताओं का तप-त्याग इन लोगों के लिए एक मनोरंजक कहानी से बढ़कर कुछ भी नहीं।  
 
किसी को भी न तो किसी प्रकार की समाज की चिंता है और न ही गलत काम करने में शर्म-हया महसूस होती है क्योंकि कानून का डर समाप्त हो चुका है। अन्ना हजारे का आंदोलन और दामिनी कांड राजनीतिक पार्टियों और सरकारों के लिए एक चुनौती बने रहेंगे।   
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