‘भावी संकट’ से भारतीय अर्थव्यवस्था को कैसे बचाया जाए

Edited By ,Updated: 21 Sep, 2015 02:16 AM

article

अर्थव्यवस्था औंधे मुंह कब गिरना शुरू करती है? ऐसा तब होता है जब इसका निर्देशन तंत्र और वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी हैसियत डगमगाना शुरू कर देती है।

(सुब्रमण्यन स्वामी): अर्थव्यवस्था औंधे मुंह कब गिरना शुरू करती है? ऐसा तब होता है जब इसका निर्देशन तंत्र और वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी हैसियत डगमगाना शुरू कर देती है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे जी.पी.एस. प्रणाली और राडार में खराबी आने पर विमान अनियंत्रित होकर गिरना शुरू कर देता है। विमान हो या अर्थव्यवस्था, दोनों के मामले में यह गिरावट इतनी तेजी से आती है कि अधिकतर लोगों को इसका पता भी नहीं चलता। उदाहरण के तौर पर जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस जैसे पूर्व एशियाई राष्ट्र 1975-1995 के दौर में बहुत तेजी से विकास कर रहे थे। यहां तक कि उनकी जी.डी.पी. की वृद्धि दर 10 प्रतिशत वार्षिक के आंकड़े को भी पार कर गई। यह तय दिखाई दे रहा था कि जापान 2005 तक अमरीका को भी पीछे छोड़ देगा।

इस तेज रफ्तार विकास को ‘पूर्वी एशिया का चमत्कार’ नाम देते हुए विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपनी प्रकाशनाओं में इसे भारत जैसे देशों के लिए एक माडल करार दिया था। फिर पता नहीं क्या हुआ कि 1997 में इन देशों की अर्थव्यवस्था का गुब्बारा अचानक ही फूट गया और उनके आॢथक चमत्कार की चर्चा छूमंतर हो गई। जापान तो अभी तक उस अवस्था से उबरने के प्रयास कर रहा है।
 
वर्तमान में जैसी परिस्थितियां हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था भी संकट की ओर बढ़ रही है और किसी भी समय धड़ाम से गिर सकती है। जहां तक मेरा आकलन है 2016 के प्रारम्भिक महीनों में ऐसा होने की संभावना है। क्या अपने विकास पथ को हम अभी से दुरुस्त कर सकते हैं और अपनी अर्थव्यवस्था को धराशायी होने से बचा सकते हैं? हां निश्चय ही, लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब अल्पकालिक व दीर्घकालिक नुस्खे अपनाए जाएं। नरेन्द्र मोदी की सरकार के पास इस प्रकार के नुस्खे तैयार पड़े हों फिलहाल तो ऐसी स्थिति नहीं लगती।
 
ऐसे में स्वाभाविक ही मुझसे पूछा जाएगा कि क्या मेरे पास खुद के नुस्खे हैं? पहली बात तो यह है कि  सरकार को हर हालत में ऐसे राजनीतिज्ञों और अर्थशास्त्रियों का एक संकट प्रबंधन दल (सी.एम.टी.) गठित करना चाहिए जो भारतीय समाज की चालक शक्तियों को भलीभांति समझने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के संतुलन के सामान्य गणित में भी दक्षता रखते हों। वर्तमान में ऐसा कोई दल दिखाई नहीं देता। सरकार में जितने भी अर्थशास्त्री वर्तमान में मौजूद हैं वे सभी यू.पी.ए. सरकार से विरासत में मिले हैं और सभी के सभी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की संस्कृति में रचे-बसे हैं।
 
ये दोनों ही संस्थान न केवल 1970 के दशक में लातिन अमरीका, 90 के दशक के अंत में पूर्वी एशिया तथा 2008 में अमरीका तक के वित्तीय संकटों का न केवल पूर्वानुमान लगाने में  बल्कि स्थिति को दुरुस्त करने में भी पूर्णता विफल रहे।  इन दोनों संस्थानों द्वारा जितने भी अध्ययन करवाए गए हैं वे केवल आंकड़ों और सारणियों के रूप में ही मूल्यवान हैं और इसके अलावा इनका और कोई महत्व नहीं। तात्पर्य यह है कि सी.एम.टी. में ऐसे व्यक्ति शामिल किए जाने चाहिएं जिनकी  भारतीय जीवन पद्धति और मर्यादाओं में गहरी जड़ें हों और जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के जी-हजूरिए न हों। 
 
दूसरे नम्बर पर, यह जानने के लिए कि किस प्रकार के संकट-प्रबंधन सुधार किए जाने की जरूरत है, हमें पहले अनिवार्य तौर पर यह पता होना चाहिए कि किस समस्या पर ध्यान फोकस करना है और किन प्राथमिकताओं पर कार्रवाई करनी है। मेरी सुविज्ञ अवधारणा है कि निम्रनिदष्ट प्रश्नों के उत्तर तत्काल ढूंढे जाने चाहिएं और उसी के अनुरूप नीतिगत दुरुस्तियां की जानी चाहिएं : 
 
(क) कच्चे तेल की कीमतें धराशायी होने और डालर की तुलना में रुपए की कीमत तेजी से कम होने के बावजूद गत 14 महीनों दौरान निर्यात और आयात (खास तौर पर 30 जिन्स समूहों में से 23 के मामले में) में लगातार कमी क्यों आई है? 
 
(ख) राष्ट्रीय घरेलू निवेश में बहुत बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली घरेलू बचतें जो 2005 में जी.डी.पी. का 34 प्रतिशत बनती थीं, 2015 में 28 प्रतिशत पर क्यों आ गई हैं?
 
(ग) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित सम्पत्तियों (एन.पी.ए.) में आसमान छूती वृद्धि क्यों हुई है? (वास्तव में तो यह वृद्धि दर इन बैंकों द्वारा दिए गए नए ऋण से भी अधिक है।)
 
(घ) जब ‘मेक इन इंडिया’ को वास्तविक रूप देने के लिए आधारभूत ढांचे में लगभग 1 ट्रिलियन डालर (1000 अरब डालर) के निवेश की जरूरत है तो 2015-16 के वित्तीय वर्ष में केवल 42,749 करोड़ रुपए का ही वास्तविक निवेश क्यों हो पाया है और वह भी केवल 75 परियोजनाओं में? यह तो 2005-6 में हुए 44,511 करोड़ रुपए निवेश से भी कम है, क्यों?
 
(ङ) कुशल और अर्धकुशल श्रम शक्ति को भारी मात्रा में रोजगार उपलब्ध करवाने वाले कारखाना क्षेत्र की वृद्धि दर 2 से 5 प्रतिशत के बीच की दयनीय स्थिति में क्यों है?
 
(च) प्रति हैक्टेयर बहुत कम झाड़ के बावजूद जब भारतीय कृषि उत्पाद दुनिया भर में सबसे सस्ते उत्पादों की श्रेणी में आते हैं तो इसके बावजूद हम इनका उत्पादन व निर्यात दोगुणा क्यों नहीं कर पाए?
 
इन प्राथमिकता वाली समस्याओं को संबोधित होने के लिए व्यक्तिगत आयकर को समाप्त करके;  पूंजी लागतों को कम करके; बैंकों की प्रमुख ऋण दरों को घटाते हुए 10 प्रतिशत नीचे लाकर; वित्तीय वर्ष 2016 के लिए  प्रति डालर 50 रुपए की स्थायी  विनिमय दर की ओर प्रस्थान करके; आगामी वर्षों में विनियम दर को और भी नीचे लाकर; लगभग एक ट्रिलियन काले धन को वापस लाने के लिए 2005 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की रोशनी में पार्टीसिपेटरी नोट्स को समाप्त करके और आधारभूत ढांचा परियोजनाओं के सम्पूर्ण वित्त पोषण के लिए नए नोट छापकर देश के अंदर ‘चढ़दी कला’ की भावनाओं का संचार करने हेतु कई प्रकार की कार्रवाइयों की एक पूरी शृंखला को अंजाम देना अनिवार्य है।
 
इसी बीच आर.बी.आई. के गवर्नर रघुराम राजन ने अकेले दम पर भारत के कारखाना और निर्यात क्षेत्र में भारी भरकम मंदी को साकार कर दिखाया है। वह बिल्कुल उस डाक्टर की तरह हैं जो मरीज का तेज बुखार (यानी मुद्रास्फीति) कम करने के लिए मरीज को ही मारने (यानी निवेश प्रक्रिया को बाधित करने) का तरीका अपनाता है।
 
पहले तो उन्होंने ब्याज दरों में वृद्धि की और फिर इन्हें लगातार ऊंचे स्तर पर बनाए रखकर पूंजी की लागत इतनी महंगी कर दी कि छोटे और मंझले उद्यमों व निर्यात उपक्रमों में अनिवार्य विनिर्माण निवेश का गला ही घोंट दिया। प्रधानमंत्री को हमारा सबसे बेहतरीन परामर्श यही है कि रघुराम राजन को तत्काल बदलकर डा. आर. वैद्यनाथन (जो वर्तमान में भारतीय प्रबंधन संस्थान बेंगलूर में प्रोफैसर ऑफ फाइनैंस हैं) जैसे किसी व्यक्ति को आर.बी.आई. की कमान सौंपें। 
 
सी.एम.टी. को कृषि क्षेत्र का कायाकल्प करने के लिए वैश्विकृत क्षेत्र का रूप देने के लिए  यूरोप और अमरीका की ओर खाद्यान्न व दूध का निर्यात करने हेतु पर्याप्त आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाने के लिए प्रारम्भिक कदम भी उठाने चाहिएं। दीर्घकालिक रूप में हमें लाभ की उन स्थितियों को प्रयुक्त करने की भी जरूरत है जो हमें अपनी विशाल आबादी के कारण हासिल हैं। 
 
नवोन्मेश के माध्यम से हमें हर हालत में थोरियम धातु के अपने विशाल भंडारों को खंगालना होगा ताकि स्वच्छ विद्युत उत्पादन किया जा सके और  बिजली की स्थायी किल्लत को समाप्त किया जा सके; अपने हजारों मील लंबे सागर तट पर हमें तटवर्ती राज्यों को पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध करवाने के लिए नमक-हरण संयंत्र स्थापित करने होंगे; गंगा से कावेरी तक नहरों के माध्यम से प्रमुख नदियों को आपस में जोड़कर एक जल-ग्रिड का निर्माण करना होगा और तकनीकी समस्याओं पर काबू पाना होगा। इसके अलावा हमें पैट्रोलियम उत्पादों का पर्यावरण रक्षक विकल्प उपलब्ध करवाने के लिए हाईड्रोजन फ्यूल सैल जैसी नई वैकल्पिक तकनीकें विकसित करनी होंगी।
 
वैकल्पिक वैचारिक प्रयास
जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं कि सरकार को यू.पी.ए. की अतीत में फेल हो चुकी नीतियों का सुधारीकरण करने के प्रयास करने की बजाय आर्थिक नीतियों को वैकल्पिक दिशा में आगे बढ़ाने की जरूरत है। 
 
भारत सदैव ही संकटों में से उभरता आया है और अतीत की तुलना में ऊंचे स्तरों को छूता आया है। 1965-67 के खाद्यान्न संकट में से हरित क्रांति ने जन्म लिया था जिसके फलस्वरूप हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गए। इसी प्रकार 1990-91 के विदेशी मुद्रा संकट ने आॢथक सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया था जिनके फलस्वरूप हमारा देश सोवियत स्टाइल की सरकार शाही से दूर हटकर बाजार व्यवस्था और ऊंची आर्थिक विकास दर की ओर अग्रसर हो गया।
 
ऐसे में यदि वर्तमान में हमारी अर्थ व्यवस्था के औंधे मुंह गिरने का तात्कालिक खतरा बना हुआ है तो इससे हमें अपने कारोबार करने के तौर-तरीकों को बदलना होगा और नवोन्मेश के माध्यम से नई ऊंचाइयां छूकर उच्च विकास दर और वित्तीय स्थिरता हासिल करनी होगी।    
IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!