बाबा खड़क सिंह का स्वतंत्रता संघर्ष में योगदान और महात्मा गांधी

Edited By ,Updated: 27 Oct, 2019 01:23 AM

baba kharak singh s contribution to freedom struggle and mahatma gandhi

सार्वजनिक क्षेत्र में वे चाहे स्वतंत्रता सेनानियों के तारामंडल में प्रमुख रूप से शामिल न हों लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में सिखों का योगदान कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान फांसी पर लटकाए गए 121 देशभक्तों में से 93 सिख थे।...

सार्वजनिक क्षेत्र में वे चाहे स्वतंत्रता सेनानियों के तारामंडल में प्रमुख रूप से शामिल न हों लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में सिखों का योगदान कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान फांसी पर लटकाए गए 121 देशभक्तों में से 93 सिख थे। आजीवन कारावास का दंड पाने वाले 2626 में से 2147 सिख थे। जलियांवाला बाग में शहीद होने वाले 1300 लोगों में से 799 सिख थे। यह मानते हुए कि उस समय भारत की कुल जनसंख्या में से सिख बामुश्किल 1.5 प्रतिशत थे, उनके बलिदानों की संख्या 90 प्रतिशत बनती है। 

एस.जी.पी.सी. के पहले अध्यक्ष
बाबा खड़क सिंह हमारे इंडो-ब्रिटिश इतिहास के सर्वाधिक चमकदार सितारों में से एक थे। उनका नाम पंजाब में राजनीतिक चैतन्य से जुड़ा है। स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) के एक कुलीन परिवार में जन्मे बाबा खड़क सिंह विद्याॢथयों के पहले जत्थे में से थे जिन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से स्नातक की। उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन 1912 में शुरू किया लेकिन 1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार तथा उसके बाद पंजाब में मार्शल लॉ के अंतर्गत घटनाक्रमों ने उन्हें सिख राजनीति के केन्द्र में ला दिया। वह 1921 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एस.जी.पी.सी.) के पहले अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पहले आंदोलन का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया, जिसे कीज मोर्चा के नाम से जाना जाता है। यह स्वर्ण मंदिर के तोशाखाना (खजाना) की चाबियों को लौटाने के लिए सिखों का प्रदर्शन था, जिन्हें अमृतसर के ब्रिटिश डिप्टी कमिश्रर ने अपने कब्जे में ले लिया था। 

खड़क सिंह गिरफ्तार होने वालों में पहले थे लेकिन आंदोलन जारी रहा और आखिरकार शासकों को बाबा की लौह इच्छाशक्ति के सामने झुकना पड़ा। 17 जनवरी, 1922 को अकाल तख्त पर एक सार्वजनिक समारोह के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधियों ने चाबियां उन्हें सौंप दीं। उस दिन महात्मा गांधी ने उन्हें तार भेजा कि ‘भारत की स्वतंत्रता के लिए पहली निर्णायक लड़ाई जीत ली गई है। बधाई।’ इस विजय ने गांधीवादी तरीके के लिए अपनी तरह की पहली प्रथा स्थापित कर दी, सफलतापूर्वक अहिंसक आंदोलन शुरू करना और बस्तीवादी शासकों को उनके घुटनों पर लाना। यह भारत में सहनशील प्रतिरोध के प्रयोग की पहली विजय थी।

बहादुरी व संघर्ष की गाथा
इसके बाद उनकी जीवन यात्रा एक निरंतर तथा बहादुरी वाले संघर्ष की गाथा बन गई, जिस दौरान उन्होंने अन्याय तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए आंदोलनों हेतु कई बार जेल की सजा भुगती। वह देशद्रोहपूर्ण भाषणों अथवा अपने कारखाने में कृपाणें बनाने जैसे अपराधों के लिए कई बार जेल गए। उन्हें दूर डेरा गाजी खान (अब पाकिस्तान में) की जेल में भेज दिया गया जहां जेल अधिकारियों ने एक आदेश जारी किया जिसके अंतर्गत उन्हें कुछ भी ऐसा पहनने की इजाजत नहीं थी, जो उनके राष्ट्रीय परिधान का हिस्सा बनता हो। अत: सिख काली पगडिय़ां तथा गैर-सिख गांधी टोपियां नहीं पहन सकते थे। 

यह एक आंदोलन का कारण बना जिसमें कैदियों ने अपने कपड़ों को त्याग दिया तथा जहां सिखों ने केवल कछहरा पहना, हिन्दुओं ने धोती, जब तक कि प्रतिबंध उठा नहीं लिया गया, जिसने गांधी जी के नागरिक अवमानना आंदोलन में एक नया आयाम जोड़ा। 4 जून, 1927 को अपनी सजा पूरी करने के बाद रिहा होने तक (जो आदेशों की अवमानना के कारण दो बार बढ़ाई गई) वह उस स्थान पर अत्यंत कठिन मौसमी स्थितियों के बावजूद धड़ से ऊपर नंगे रहे। 1930 में ताजा चुनावों के बाद वह अपनी अनुपस्थिति में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने जल्दी ही इस्तीफा दे दिया, हालांकि वह देश की स्वतंत्रता तथा सिखों के हितों की रक्षा के लिए काम करते रहे। इसलिए बाबा खड़क सिंह को महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए विभिन्न आंदोलनों के सफल मॉडल के तौर पर सलाम किया जा सकता है। 

1928-29 के दौरान उन्होंने जोरदार तरीके से नेहरू कमेटी रिपोर्ट का विरोध किया जिसमें औपनिवेशिक दर्जे को स्वीकार किया गया था, जब तक कि कांग्रेस पार्टी ने इसे ताक पर नहीं रख दिया और भविष्य में संवैधानिक प्रस्तावों को बनाने के लिए सिखों को सम्मिलित करने पर राजी नहीं हो गई। उन्होंने कम्यूनल अवार्ड का भी असफल विरोध किया, जो पंजाब में मुसलमानों को वैधानिक बहुमत प्रदान करता था। वह राष्ट्रीय एकता के कट्टर समर्थक तथा मुस्लिम लीग की पाकिस्तान और सिखों के एक वर्ग द्वारा आजाद पंजाब की मांग के विरुद्ध थे। महात्मा गांधी भी अंत तक विभाजन के विरुद्ध थे। 

योगदान को भुलाया
राजधानी दिल्ली में कनाट प्लेस से गुरुद्वारा बंगला साहिब की ओर जाती एक प्रमुख अद्र्धव्यासी सड़क का नाम इस महान सिख योद्धा के नाम पर रखा गया है। यह बहुत दुखद है कि इस महान आत्मा तथा स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान के बारे में लगभग कोई भी नहीं जानता। हमें पाठ्य पुस्तकों में उनका कोई उल्लेख नहीं मिलता, न ही कहीं उनके बारे में सुनने को मिलता है। और तो और, 6 जून, 2018 को उनकी 150वीं जयंती बेखबरी में गुजर गई और न ही इसकी कोई रिपोॄटग हुई। न तो कांग्रेस नीत पंजाब सरकार ने इस बारे कोई कदम उठाया और न ही अकाली नीत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने, जिसके पहले अध्यक्ष होने के नाते 1920 के दशक के दौरान वह लगातार जेल जाते रहे। अकालियों की ओर से उन्हें कोई श्रद्धांजलि नहीं दी गई, यद्यपि वह अपनी अंतिम सांस तक दिल और आत्मा से अकाली रहे। 

महान देशभक्त के जीवन तथा योगदान के सम्मान में गुरुद्वारा बंगला साहिब के साथ खड़क सिंह मार्ग पर क्षेत्र की सांसद मीनाक्षी लेखी, माननीय गृह मंत्री तथा एन.डी.एम.सी. के चेयरमैन के सहयोग से उनका एक स्मारक बनाया गया है। अङ्क्षहसा, सत्य तथा नागरिक अवमानना के संघर्ष का जो मार्ग उन्होंने चुना, उसे गांधी जी द्वारा देश में सफलतापूर्वक दोहराया गया। यह बड़े संतोष की बात है कि गृह मंत्री महात्मा गांधी के स्मर्णीय संदेश के साथ बाबा खड़क सिंह के चित्र वाली पट्टिका लगाने को सहमत हो गए हैं।-आर.पी. सिंह(राष्ट्रीय सचिव, भाजपा)

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